लिंगम चिरंजीव राव

एक बात ऐहतियातन ऐसी भी..।

सच के शहर से 
निकलने की कोशिश में
झूठ के शहर से 
वास्ता हो गया।

मैं कल जितना खुश था
लगा मुझे आज ये क्यों
फिर दुगना हो गया।

तसल्ली भी हर तरफ से
फोन पर बातें हर तरफ से
मिलता कोई नहीं कभी
एक दूसरे से आजकल  
ऐसा हमारा रास्ता हो गया।

कब हमारी सुबह 
कब शाम हो जाती है
पता ही नहीं चलता 
जिंदगी के हर अरमानो से
रोज का ही वास्ता हो गया।

मैं आज तक भी कभी
यह समझ न पाया.
जिंदगी गलत या झूठ के
रास्तों की इतना सुकून देती है
फिर क्यों सच के शहर के
रास्ते तलाशते सभी का
कुछ इस तरह भटकना हो गया।

परत आँखों पर कुछ इस तरह है
पीतल को भी सोना समझने लगी
मृगमरीचिका की तरह 
जीवन में हमारे मरुस्थल 
की रेत से कब वास्ता हो गया।

हँस और कौओं की कहानियाँ
बचपन मे पढी तो थी 
बहुत हमनें भाव कभी
पहचान उससे कुछ इस तरह 
आज फिर हमारा हो गया।।

देखता जा "चिराज""
बहुत सुकून की ऐसी ही तलाश
हमारे सुख से भरी खुशियों को
तबाही का मंजर दिखा कर जाऐगी
अब तो सहन करने का रास्ता हो गया।