राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)  

मुम्बई सत्र न्यायाधीश ने राणा दंपत्ति के जमानत आदेश में जो शर्ते लगायी है, उसमें दो शर्ते महत्वपूर्ण है। प्रथम राणा दंपत्ति उक्त विषय पर कोई ‘‘पत्रकार वार्ता’’ अर्थात् मीडिया से चर्चा नहीं करेगें। दूसरा वे भविष्य में ‘‘इस तरह का दोबारा विवाद नहीं’’ अर्थात् इस ‘‘अपराध की पुनरावृत्ति नहीं करेंगे’’, जैसा कि मीडिया द्वारा कहा गया है। 
प्रश्न यह है कि मीडिया से बातचीत करने का जो प्रतिबंध माननीय न्यायालय ने लगाया है, वह कितना न्यायिक, संवैधानिक होकर संविधान में दी गई बोलने के ‘‘प्रतिबंध के साथ दी गई सीमित (पूर्ण नहीं) स्वतंत्रता’’के अंतर्गत आता है? बड़ा प्रश्न यहां इस कारण से भी हो जाता है क्योंकि पटल (कॉउटर) में मीडिया को इस विषय पर कोई स्टोरी प्रसारित करने पर प्रतिबंध नहीं लगाया है। अर्थात् यदि मीडिया एक तरफा उक्त घटना पर अपनी स्टोरी आरोपी के विरूद्ध मिर्च-मसाला के साथ प्रसारित करता है, जैसा कि प्रायः मीडिया हमेशा से प्रायः करते आया है। तब उस स्टोरी के तथ्यों के गलत होने पर आरोपी मीडिया में जाकर अपने बचाव में अपना पक्ष नहीं रख सकते हैं। 
निश्चित रूप से मेरा ऐसा मानना है कि इस तरह का प्रतिबंध आरोपी की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार पर एक प्रकार का कुठाराघात सा है। पुलिस प्रशासन को इस बात का अविरल अधिकार है कि यदि अपराधी/अभियोगी मीडिया से बात करते समय स्थापित सीमाओं का अथवा किसी कानून का उल्लघंन करते हैं, तो पुलिस उनके खिलाफ नई एफआईआर दर्ज करके आवश्यक कानूनी कार्यवाही कर गिरफ्तार कर सकती है। आज कल व्यक्ति के संवेदनशील मामलों में अपराधी बनने पर राज्य सरकारों को अपराधी की ‘‘सम्पत्ति के अतिक्रमण का ख्याल’’आ जाता है और वह अपने कानूनी अधिकारों का अतिक्रमण कर अपराधी के तथाकथित अतिक्रमण पर तुरंत-फुरंत बुलडोजर चला देते है। क्योंकि आज की राजनीति में यह एक वोट प्राप्त करने का मुद्दा जो हो गया है। जैसा कि प्रस्तुत मामले में भी मुम्बई महानगर पालिका ने राणा दंपत्ति के खार स्थिति फ्लैट पर अगली कार्यवाही करने के लिए नोटिस चिपका दिया है। उक्त अपराध घटने के पूर्व क्यों नहीं? इसीलिए यह प्रतिबंध कहीं न कही संविधान में दी गई सीमा से कही ज्यादा दिखता हुआ प्रतीत होती है, जो कार्य शायद पुलिस प्रशासन का है। 
एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि माननीय सत्र न्यायाधीश ने इस विषय पर मीडिया से बातचीत करने पर प्रतिबंध राणा दंपत्ति पर लगाया। परन्तु उनके परिवार के सदस्य व सहयोगियों पर कोई प्रतिबंध न लगाने के कारण यदि वे लोग इस विषय पर मीडिया से बातचीत करे, तो क्या प्रतिबंध अप्रभावी नहीं हो जायेगा? और क्या वह न्यायिक अवमानना की सीमा में आयेगा? 
जहां तक पुनः अपराध न करने की दूसरी शर्ते है, वास्तव में वह भी सामान्य शर्त नहीं है। माननीय सत्र न्यायालय ने यह कहकर कि वे दोबारा इस तरह का विवाद नहीं करेगें, उन्हे प्रथमदृष्टिया एक तरह से अपराधी ही मान लिया है, जो कि जमानत के मूल सिंद्धातों के विरूद्ध है। जमानत प्रकरण में मुख्य रूप से यह देखा जाता है कि अभियोगी जमानत मिलने पर गवाहों को ड़राये-धमकाये नहीं और उसके भागने की संभावनाएं न हो व जांच में वह पूर्ण सहयोग करे। प्रथमदृष्टिया यदि अपराधी गंभीर अपराध को अंजाम देने वाला माना जा रहा है, तो न्यायालय द्वारा सामान्यतः जमानत ही नहीं दी जाती है। आरोपी ने अपराध किया या अथवा नहीं, यह अवधारित करना सामान्यतः जमानत आवेदन की सुनवाई के समय नहीं बल्कि यह तो मुकदमें का ट्रायल होने पर ही निर्णित होगा। परन्तु जमानत आवेदन पर सुनवाई के दौरान माननीय सत्र न्यायाधीश की टिप्पणी निचली अदालत ट्रायल कोर्ट में चलने वाली कार्यवाही को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाली हो सकती है, इस बात को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है। 
जमानत के मामलों में सामान्यतः सत्र न्यायधीश के समक्ष बहस होने के बाद जमानत देने अथवा न देने का निर्णय ले लिया जाता है। और कभी समय की कमी होने पर विस्तृत निर्णय अगले दिन के लिये रख दिया जाता है। परन्तु 30 तारीख को बहस समाप्ति के बाद प्रकरण आदेशार्थ बंद करने के बाद दो तारीख तक निर्णय सुरक्षित रख कर निर्णय देने कहा गया। फिर 4 तारीख के लिए निर्णय को बढ़ा दिया गया। इस प्रकार अभियुक्तों की तीन दिन की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन हुआ है। सेशंन कोर्ट तत्काल ही बहस के बाद जमानत देने की घोषणा करके अगले दिन विस्तृत निर्णय दे सकती थी, ताकि उन्हे दूसरे दिन समस्त औपचारिकता पूरी करने पर जमानत मिल जाती। माननीय सत्र न्यायाधीश से यह जानकारी ली जानी चाहिए कि इस तरह का जमानती आदेश कितने अन्य प्रकरण में उन्होंने दिये, जहां 3-4-5 दिन बाद निर्णय दिये गये हों। जमानत का एक अधिकार है व अस्वीकार एक अपवाद है, उच्चतम न्यायालय का यह एक प्रतिपादित सिंद्धान्त है। यहां पर न्यायालय की उपरोक्त समय लगने वाली प्रक्रिया के कारण उक्त सिंद्धान्त की भावना को कही न कही हल्की सी चोट जरूर पहुँची है। 
राजनैतिक आपराधिक मामलों में न्यायालय शायद अतिरिक्त सावधानी और सुरक्षा बरतने के कारण वह एक सामान्य न्यायिक प्रक्रिया नहीं रह जाती है। इस पर उच्चतम न्यायालय को कोई न कोई स्पष्ट निर्देष और सिंद्धान्त जारी करना चाहिए। ताकि निचली अदालतें निश्चित होकर संवेदनषील मामलों में अपनी न्यायिक कर्तव्यों को अपराध की घटना व अपराधियों के वजूद के कारण अपने आस-पास उत्पन्न परिस्थितियों से अप्रभावित हुये बिना निभा सकें।