‘‘द ग्रेट पॉलीटिकल शो (ड्रामा) ऑफ केजरीवाल’’!
राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)
‘‘विरोधाभाषी अजब-गजब व्यक्तित्व! केजरीवाल’’
-:प्रथम भाग:-
लेख बड़ा होने से दो भागों में लिखा जा रहा है।
उक्त नाटक का शो शुरू करने के लिए पर्दा उठाने के पूर्व, देश की राजनीति और राजनीतिक स्थिति-परिस्थितियों पर मंथन करना आवश्यक है, ताकि आप वस्तुस्थिति से अच्छे से भिज्ञ हो सकंे। विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश हमारा भारत है, कहते-कहते हम थकते नहीं हैं और पड़ोसी देश चीन, पाकिस्तान को देखकर तो ’आत्मविमुग्ध’ व ’आत्मविभोर’ हो जाते हैं। लोकतंत्र का आधार, रीढ़ की हड्डी तथा उसे जीवंत, जीवट और जनोन्मुखी बनाये रखने के लिए दलीय, निर्दलीय व संघीय व्यवस्था हमारी संविधान की बिना प्रश्नचिन्ह लगे, खूबसूरत संवैधानिक व्यवस्था है। तथापि दल बदल विरोधी कानून लागू होने के बावजूद भी ‘‘थोक’’ में विधायकों की दल बदलने की घटनाओं में हाल में हुई बेतहाशा वृद्धि होने से हमारे संविधान की इस खूबसूरत व्यवस्था पर ‘‘चिंताजनक’’ प्रश्न चिन्ह अवश्य लगा है। यह ’’चिराग तले अंधेरा’’ की स्थिति दीखती है। स्वतंत्रता के पहले और उसके बाद भी कुछ समय तक राजनीति में भाग लेना गौरवशाली, सिर ऊंचा करने वाला और पूर्णतः राष्ट्र हित का कार्य माना जाता रहा है। अन्य कारकों के साथ मुख्य रूप से इसी कारण से ही न केवल देश को स्वतंत्रता मिली, बल्कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए देश के सक्षम, योग्य, कर्मठ वर्ग बेहिचक राजनीति में सक्रिय भाग लेकर अपना-अपना योगदान देते रहे।
परन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 साल व्यतीत हो जाने के बाद जब देश अमृत महोत्सव मना रहा है, तब आज ’’राजनीति’’ की स्थिति क्या हो गई है? जहां ऐन-केन प्रकरण सिर्फ ‘‘राज’’ को भोग कर ‘‘नीति’’ को छिटक दिया जाता है। शायद ’’तेल देखो तेल की धार देखने वाली राजनीति’’ की ऐसी स्थिति की कल्पना सार्वजनिक व सामाजिक जीवन में नहीं की गई थी। जब कोई भी व्यक्ति गलत कार्य अथवा गलत कदम उठाया है, तो उसे टोकतें-रोकते हुए कहा जाता है ‘‘कम से कम यहां तो राजनीति’’ मत कीजिए। अर्थात राजनीति ‘‘राजनीतिक खेल का एक गंदा मैदान’’ रह गई है, जहां गंदगी व बू के कारण स्वच्छ ईमानदार व्यक्ति जाना ही नहीं चाहता है। यदि किसी कारणवश कोई चला जाता हैं, तो वह भी भ्रष्ट राजनीति का शिकार होकर ’’ढाक के तीन पात’’ के अंदाज में स्वयं के अस्तित्व को समाप्त कर उसका अभिन्न अंग बन जाता है। जैसे नौकरशाही, सामाजिक कार्यकर्ता, आंदोलनकारी, स्वच्छ, ईमानदार अरविंद केजरीवाल के राजनीति में आने का उदाहरण आप सबके सामने है।
इस गंदी भ्रष्ट प्रभावशाली राजनीति का असर केजरीवाल पर इतना ज्यादा चढ़ गया कि ईमानदार व साहस पूर्वक बोलने वाले केजरीवाल को इस भ्रष्ट राजनीति की कुर्सी की सत्ता ने अपने ‘तंत्र’ के कुचक्र में ही मिलाकर विसर्जित कर उनकी अलग विशिष्ट पहचान को अस्तित्वहीन ही कर दिया। तदनुसार केजरीवाल भी ’’सावन के अंधे के समान’’ भ्रष्ट तंत्र का भाग बन कर वही सुविधाजनक राजनीतिक जीवन जीने भोगने लगे है, जिनके खिलाफ उंगली उठाते हुए आंदोलन किया, इतने लम्बे समय तक कि शायद उनकी दर्द से उंगली व लगातार बोलने के कारण मुंह कराह रह रहा होगा? मतलब राजनीति का परसेप्शन पूरी तरह से निर्माणात्मक की बजाय ऋणात्मक हो गया है। अर्थात सेवा करने की बजाय मेवा लेना वाला हो गया है।
इस गंदी राजनीति का एक पुराना सिद्धांत है जिस सीढ़ी से चढ़ो उसी को हटा दो। विद्वान, तेजतर्रार नौकरशाह लेकिन राजनीति के नौसिखिया केजरीवाल ने इस सिद्धांत को शिखर पर बने रहने के लिए बहुत तेजी से अपनाया। जिस लोकपाल व लोकायुक्त कानून बनाने के आधार पर व अन्ना के कारण वे प्रसिद्धि के जिस शिखर पर पहुंचे और राजनीति में सफलता मिली उसको ही वे भूल गए।
काफी समय पश्चात, कुछ दिन पूर्व ही जब ‘‘निस्वार्थी’’ अन्ना हजारे का केजरीवाल को उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार लिखा शराब नीति के संबंध में पत्र सार्वजनिक हुआ, तब ’आप’ पार्टी सहित अन्य दलों की आई प्रतिक्रिया स्वार्थ से परिपूर्ण थी। शायद अन्ना ने ’’जिस थाली में खाय उसी में छेद करने’’ वाला मुहावरा नहीं सुना, जो अपनी चिट्ठी में केजरीवाल द्वारा रचित ‘‘स्वराज’’ किताब में लिखी उन आदर्शों की याद केजरीवाल को नहीं दिखाते? इसका कोई जवाब केजरीवाल के पास न कल था, न आज है और न कल होगा। इसलिए चुप रहना ही बेहतर हल है। कहते हैं न कि ’’सौ को हराए एक चुप’’। राजनैतिक विवाद-लडाई आरोप-प्रत्यारोप में जीत व सफलता के दो ही तरीके होते हैं। प्रथम चुप रहना ताकि समय के गुजरने के साथ कमजोर याददाश्त के कारण जनता भूल जाती हैं। दूसरा ’’आक्रमक होना सबसे अच्छा बचाव’’ (अटैच इ दज बेस्ट डिफेंस) हैं। केजरीवाल इन दोनो हथियारों का उपयोग समयानुसार सफलतापूर्वक करते चले आ रहे हैं। जनता के विश्वास का हमेशा दावा करने वाले 62 में से 56 सदस्य का अटूट बहुमत होने के बावजूद जिस प्रकार दिल्ली विधानसभा मेें अनावश्यक रूप से प्रस्तुत विश्वास मत के जवाब में अरविंद केजरीवाल संबोधन कर रहे थे, उससे निश्चित रूप से यह बात बेशक सिद्ध हो जाती है कि कथनी व करनी में जो अंतर अच्छे व बुरे के बीच कैसा रहा है, अरविंद केजरीवाल ने अपने कृत्य से उस अंतर की गहराई को समुद्र तट की मीलों लम्बी दूरी के समान कर दिया है। अन्ना ने भी अपने पत्र में केजरीवाल की कथनी-करनी में अंतर की सच्चाई को स्वीकारा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ज्यादा आत्मबल व ’’काली रात को सफेद उजाला’’ के रूप में दमदारी से भाजपा से ज्यादा मीडिया का अच्छे तरीके से दुरूपयोग कर जनता के दिलों दिमाग तक में उतारने वाला एकमात्र कोई शख्स है, तो वह अरविंद केजरीवाल ही है। (हालांकि यह कहना भी ’’सूरज को दीपक दिखाने जैसा’’ है।) विधानसभा में जवाब देते समय उनके चेहरे से टपक रहा आत्मबल, आत्मविश्वास व चेहरे की भाव भंगिमा निश्चित रूप से असाधारण थी। ‘एडीआर’ की एक रिपोर्ट अनुसार आप के आधे से अधिक (लगभग 60 प्रतिशत) विधायकों के विरुद्ध 140 से ज्यादा चल रहे आपराधिक प्रकरणों के संबंध में केजरीवाल विधानसभा में स्थिति स्पष्ट कर यह गिना रहे थे, फलाने विधायक पर इतने प्रकरण चल रहे हैं और इतने में से वे छूट चुके है, शेष आपराधिक प्रकरण विचाराधीन है, किसी को भी सजा नहीं हुई है। ये बोलते समय उन केजरीवाल के चेहरे पर जरा सी भी शिकन तक नहीं थी, जो अन्ना आंदोलन के समय मात्र ‘दागी’ होने के आधार पर ही दागी सांसदों के इस्तीफे की मांग लगातार कर रहे थे। बल्कि ’’थोथा चना बाजे घना’’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए ’’ताल ठोक कर’’ जैसे न्यूज चैनलों के प्रोग्राम के नाम होते हैं, विधानसभा में विधानसभा में डेक्स ठोक-ठोक कर, चिल्ला-चिल्ला कर बोल रहे थे, साथ ही जुमला भी जोड़ रहे थे कि देश को 75 सालों में किसी ने नहीं बदला, हम बदलेंगे? भारत को दुनिया का नंबर वन देश बनाएंगे? (क्या दिल्ली दुनिया का सबसे सर्वश्रेष्ठ शहर बन गया ?) देश में दो ही पार्टी रह गई है, एक कट्टर ईमानदार आप और दूसरी कट्टर बेईमान भाजपा। केजरीवाल वास्तव में यह प्रमाण पत्र देते और कहते समय भूल जाते है कि वे इस क्रिया में ईमानदारी का प्रमाण पत्र सामने वाले को ही दे रहे है, जब वे कहते है कि आप कड़क ईमानदार है। इतनी शालीनता उन्होंने जरूर रखी है, जब वे संबोधन में तुम की जगह आप का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार आप का प्रयोग सामने वाली भाजपा के लिए अपने आप हो जाता है व ईमानदारी का प्रमाण पत्र भी आपके (भाजपा) के पास पहुंच जाता है।
यदि आप भाजपा है, तब प्रश्न पैदा होता है मैं कौन? केजरीवाल खुद ही मैं का बखान करते हुए कहते है, मेरे विधायकों पर केस चल रहे हैं, मैंने दिल्ली में स्कूलों की देश का सबसे सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था लागू की है। अच्छी स्वास्थ्य सेवा के लिए मोहल्ला चिकित्सा व्यवस्था की। इसी मैं में ही केजरीवाल का मैं (स्वयं) का झूठ छिपा हुआ है। यदि दिल्ली की स्कूल व चिकित्सा सर्वश्रेष्ठ है, तब वे यह दावा क्यों नहीं करते हैं कि हमारे 56 विधायकों व मंत्रियों के बच्चे इन्हीं स्कूलों में पढ़ रहे है और उनके परिवारों के सदस्य इन्हीं अस्पतालों में इलाज कराते हैं। विशेष कर उस स्थिति में जब ’’विदेशी अति महत्वपूर्ण गणमान्य’’ दिल्ली आकर केजरीवाल माडल की प्रशंसा करते चुकते-थकते नही हैं व विश्व प्रतिष्ठित पत्रिका न्यूयॉर्क टाईम के पृथक पृष्ठ पर दिल्ली सरकार के स्कूल मॉडल को छापती है। तब फिर स्वयं की पत्नी के इलाज का पच्चीस लाख के बिल का भुगतान दिल्ली सरकार के अस्पतालों के बजाए अन्य अस्पतालों (मैक्स हॉस्पिटल) को कैसे हो गया? ’’राम नाम जपना, जनता का माल अपना’’! इसका जवाब केजरीवाल जी से नहीं आता है और न ही आयेगा।