सुचिता (सकुनिया) खंडेलवाल बैतूल/कलकत्ता  

 तू  शक्ति, तू संगीत, 
       तुझसे ही सृष्टि का अस्तित्व। 
कभी औरत, कभी नारी, कभी  गृहणी 
       तो कभी बेटी, बहू, जननी है तू। 

चंचल मन से उठाती है आशाओं के पर्वत को तू,
पार करती है कठिनाइयों के हर समुंदर को तू।
  औरत के रूप में बंधी हुई है ना जाने
             कितने रिवाजों से तू, 
कभी तीज से ,चौथ से,तो कभी निर्जल  व्रत  से,
       कभी अर्घ्य से  तो  कभी पारण से ।।

कभी  सताती चिंता  तुझको गरम फुलकों की ,
      तो कभी परेशान होती  तू कपड़ों की 
           सिलवटें  हटाते हटाते,
   कभी बंध जाती तू  जिल्द लगी किताबों से,
तो कभी डरती तू सलीके से दौड़ती गृहस्थी से,
तो कभी  मायूस हो जाती घड़ी के काँटों से 
              बँधी  सहूलियतों से  ।।

भागती रहती दिन  रात ना जाने किस सुकून 
         कि तलाश में तू ,
अपना मन मार के सबके मन की करती है तू ।
अपना और अपनों को संजो-सहेज कर रखने  की आदत  ही बनतीं  शक्ति तेरी। 
ये जो खुद को भूल जाने की आदत  है  ना तेरी ,
शायद वो ही मिटा देती थकान और जिस्मानी हरारत तेरी। ।

नारी तू  दृढ़ता से खड़ी होती है हर आधार पर,
हारती नहीं तू क्योंकि रखती तू यकीन अपने सामर्थ्य पर। 
तूने सशक्त किया अपने आप को अपने अंतर्मन से  सुनी  अपने दिल की  और सीखा अपनी  जिम्मेदारी  से!

नारी तू स्वाभिमानी तू  अभिमानी तू आत्मनिर्भर 
तूने ने ही ये रचा विधान है।।
ना जाने कितने किरदार ख़ुद में समेटे
ख़ुद अपना इतिहास बनाती है तू नारी ।।
ख़ुद अपना इतिहास बनाती है तू नारी ।