अघोषित आपातकाल! कांग्रेस।
अघोषित आपातकाल! कांग्रेस।
बीबीसी के भारत में दिल्ली एवं मुंबई स्थित दफ्तरों पर आयकर विभाग के सर्वेक्षण (सर्वे) (सर्च-छापा नहीं) की कार्रवाई चालू है। यद्यपि जांच दल को जांच के दौरान ही ‘‘अपराध संकेती दस्तावेज’’ पाये जाने पर उच्च अधिकारियों से अनुमति लेकर सर्वेक्षण को छापे में परिवर्तित करने का अधिकार है। नींद में लगभग सोया हुआ विपक्ष उठकर मुख्य विपक्ष दल कांग्रेस ने प्रतिक्रिया में इसे ‘‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि’’ जताते हुए अघोषित आपातकाल कह दिया। समाजवादी पार्टी ने इसे ‘‘वैचारिक आपातकाल’’ तो टीएमसी ने ‘‘चैंकाने वाला’’ प्रतिपादित किया। घटना पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया स्वरूप उपयोग किया गया शब्द ‘‘आपातकाल’’ से मेरे (पिताजी भी मीसाबंदी रहे) सहित समस्त मीसाबंदी परिवारों को हृदय की गहराइयों में थोड़ी-बहुत राहत जरूर पहुंची होगी। क्योंकि कांग्रेस ने सार्वजनिक रूप से बदनाम नहीं बल्कि वस्तुतः बद आपातकाल को बुरे काल के रूप में सत्य को स्वीकार किया। यही नहीं, अघोषित शब्द का उपयोग कर यह भी संदेश दिया कि कांग्रेस द्वारा कानून का दुरुपयोग कर संवैधानिक अधिकारों को निलंबित करके, गलत तरीके से कानूनी जामा पहनाकर वर्ष 1975 में आपातकाल लागू किया था।
भाजपा ने कम से कम अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर कानून का दुरुपयोग कर अघोषित आपातकाल लागू नहीं किया, बल्कि कानून का प्रयोग (उपयोग?) ही किया गया है। गलत या सही! का निर्णय न्यायालय ही करेगा। क्योंकि ‘‘खग जाने खग ही की भाषा’’। स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार कांग्रेस द्वारा लगाया गया आपातकाल एक भयानक बुरा काल होने के कारण ही, बावजूद आपातकाल हटाये जाने के, तुरन्त बाद हुए लोकसभा के आम चुनाव में जेल में नवगठित जनता पार्टी से कांग्रेस को बुरी तरह से हार झेलनी पड़ी थी। पूरे देश में उत्तर भारत के हिन्दी प्रदेशों में कांग्रेस की ‘‘मिट्टी पलीद’’ हो गयी थी और मात्र 2 सीट ही कांग्रेस को प्राप्त हुई थी। इससे आप सोच सकते है कि देश के इतिहास में अमिट काले अध्याय के रूप में दर्ज आपातकाल के विरुद्ध जनता में कितना गहरा असंतोष, आक्रोश, विरोध, गुस्सा था। बावजूद तत्समय ‘‘भई गति सांप छछून्दरी केरी’’ के प्रभाव से ग्रस्त कांग्रेस को उक्त आपातकाल लगाने के लिए माफी मांगने में सालों लग गये। मार्च 2021 में पहली बार राहुल गांधी ने आपातकाल के लिए देश से माफी मांगी और कहा कि उनकी दादी इंदिरा गांधी ने इसे एक ‘‘गलती’’ (मिस्टेक) माना। परन्तु राहुल का यह कथन तथ्यों के विपरीत है, क्योंकि इंदिरा गांधी ने आपातकाल के निर्णय को अधिकारिक रूप से कभी गलत नहीं माना। हां, तत्समय की गई कार्रवाईयां व उसके दुष्परिणामों की समस्त जिम्मेदारियों (हार सहित) को स्वीकार अवश्य किया था।
आज शायद कांग्रेस ने पहली बार किसी घटना की प्रतिक्रिया में सार्वजनिक रूप से बद आपातकाल शब्द का उपयोग करने का साहस किया। यद्यपि बीबीसी के ऊपर आयकर के छापे की तुलना आपातकाल से करना अंक गणित के अंकों के अनुसार कदापि उचित नहीं है। तथापि कांग्रेस बीजगणित से इस तुलना को जरूर उचित ठहराने का प्रयास कर सकती है। इस आयकर सर्वेक्षण से इस बात का संदेश तो अवश्य जाता है कि देश में मीडिया की स्वतंत्रता यदि वह शासन के विरुद्ध जाती है, तो वह शासकों को स्वीकार नहीं है। इसके पूर्व भारत सरकार ने बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगा कर उक्त आरोप की पुष्टि ही की है।
याद कीजिए! आपातकाल में पूरे संवैधानिक तंत्र को ही लंगड़ा कर दिया था और समस्त मीडिया पर कड़ी सेंसरशिप लागू कर दी गई थी। अधिकांश मीडिया ने भी ‘‘जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी दीजै’’ वाला रुख़ अपना लिया था। संविधान द्वारा प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार भी निलंबित कर दिये गये थे। न्यायालयों पर भी लगाम खींचने का प्रयास किया गया था। प्रतिबद्ध न्यायपालिका (कमिटेड जुडिशरी) का खतरनाक नारा भी तभी दिया गया था। लोकसभा की 5 साल की नियत अवधि बढ़ाकर 6 वर्ष कर दी गई थी। देश भर में बेगुनाह एक लाख से ऊपर लोग बिना मुकदमों के जेलों में ठूंस दिये गये थे। इसलिए उस आपातकाल की भयावहता की तुलना कम से कम कांग्रेस को आज के छापे से तो न ही करनी करना चाहिए। चूंकि कांग्रेस ऐसा कर रही है, तो निश्चित रूप से आपातकाल के ‘‘हाथों के तोते उड़ाने वाले’’ दुष्परिणाम भुगतने से उसका दिमाग ठिकाने पर आ गया लगता है। शायद उसे अब इस बात की गहरी आशंका है कि वह स्थिति कहीं वापस नहीं आ जाए, जिससे जनता को भुगतते हुए कांग्रेस ने (मुस्कुराते हुए) देखा था, जिसकी इबारत ‘‘बालू की भीत’’ पर कांग्रेस ने ही लिखी थी। पर आपातकाल के दौरान जनता के कष्ट व उसके पश्चात आये चुनावी परिणाम के कारण कांग्रेस भी अब शायद किसी भी स्थिति में आपातकाल नहीं चाहेगी। क्योंकि ‘‘काठ की हांडी तो एक ही बार चूल्हे पर चढ़ती है’’।
परन्तु इस समय देश में एक दूसरा खतरा जो शायद आपातकाल से भी ज्यादा नुकसानदायक हो सकता है, जिसकी आशंका बुद्धिजीवी वर्ग के मन में बलवती हो रही है। वह शीर्षस्थ (अधिकतम द्वय) स्तर पर इस बुरी तरह से सत्ता का एकीकृत केन्द्रीकरण होने का है। ‘‘लौह महिला’’ (आयरन लेडी) इंदिरा गांधी, जिन्हे दुर्गा की उपमा भी दी गई थी, के प्रधानमंत्री काल में भी सत्ता का वर्तमान समान केन्द्रीकरण एकत्रीकरण नहीं हुआ था। जहां आज अधीनस्थ सत्ता के भागीदारों में भी उक्त कारण से भय व डर पैदा हो गया है। एक-दो अपवादों को छोड़कर मंत्रियों की औकात ‘‘औकात’’ दिखाने वाली नहीं रह गई है। मुख्यमंत्रीगण मजबूत क्षत्रप नेता न होकर आंख मूंदकर आदेशों का पालन करने वाले आज्ञाकारी शिष्य हो गये हैं। इस बात पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। जहां तक मीडिया का प्रश्न है, कुछ लोग गोदी मीडिया कहकर उसमें विभाजन करने का प्रयास जरूर करते है। परन्तु वास्तव में कुछ को छोड़कर सरकार के ‘‘गले की फांस बने हुए’’ अधिकांश इलेक्ट्रानिक मीडिया को एक दो अति शक्तिशाली मीडिया हाउसेस को मालिकाना हक दिलाकर नियंत्रित किया जा रहा है। तो प्रमुख प्रिंट मीडिया भी ‘‘को नृप होउ हमहि का हानी’’ की लाइन पर चलते हुए सत्तासीनों के पंजे की मुठ्ठी में समाया हुआ है। इन दोनों प्रकार के मीडिया को तेजी से प्रति-विरोध (काँउटर) कोई कर रहा है, तो वह सोशल मीडिया ही रह गया है।
अंत में भाजपा सांसद व पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह की यह टिप्पणी बहुत बचकानी होकर देशहित में नहीं है, जब वे यह कहते है कि बीबीसी के विघटन के एजेंडा को देश में आगे बढ़ाने का काम कांग्रेस को सौंप दिया गया है। वे कांग्रेस पर उक्त आरोप लगाते समय यह भूल गए कि ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग काॅरपोरेशन (बीबीसी) ब्रिटिश सरकार की ‘‘माउथ पीस’’ वल्र्ड सर्विस टेलीविजन संस्था है, जिसे ब्रिटिश संसद ग्रांट देकर फंडिंग करती है। वहां के अभी हाल में ही चुने गए प्रधानमंत्री भारतीय मूल के ऋषि सुनक है, जिनकी विजय की इच्छा हर भारतीय दिल में पाले हुआ था। यह तो वही बात हुई कि ‘‘आयी मौज फकीर की, दिया झोपड़ा फूंक’’। सांसद का उक्त बयान द्विपक्षीय संबंधों पर क्या प्रभाव डालेगा? इसकी कल्पना शायद बयान देने के पूर्व नहीं की गई? यदि सांसद के उक्त आरोप सही है, तो ऐसे गंभीर आरोपों के चलते देरी किए बिना बीबीसी पर तुरंत प्रतिबंध लगाने की कार्रवाई कारण क्यों नहीं प्रारंभ कर देनी चाहिए? खासकर हाल की ही इन्हीं मीडिया के इस समाचार को देखते हुए कि विदेशी मीडिया भारत में सरकार को गिराने-बैठाने में लगा रहता है। वैसे जी-20 देशों के प्रतिनिधियों की बैठक के चलते और 30 देशों के मंत्रियों की उपस्थिति में वैश्विक एयर शो प्रदर्शन के चलते विदेशी मीडिया पर चल रही आयकर के सर्वेक्षण की कार्रवाई पर देश का मीडिया चुनावी वर्ष में कैसी प्रतिक्रिया (रिएक्ट) करता है, यह देखना दिलचस्प होगा।