राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)  

‘हंगामा हो गया’’! ‘‘हा हा हा’’!                                                   

   हं गा मा!

संसद के हंगामे पर फिल्म ‘‘अनहोनी’’ का गाना याद आ रहा है! ‘‘हंगामा हो गया’’! जिस पर मैंने पूर्व में भी एक लेख लिखा था।
संसदीय परंपराएं एवं नियम
    संसद जिसे ‘‘लोकतंत्र का मंदिर’’ भी इसलिए कहा जाता है कि, वह सिर्फ नियमों से नहीं बल्कि संसदीय परंपराओं के साथ भी चलता है। भारत देश ‘‘संस्कृति प्रधान’’ देश है। देश की संस्कृति सिर्फ कानून, नियमों से ही नहीं परंपराओं से भी बनती हैं। इन्हीं परंपराओं का अनुसरण कई बार संसद को चलाने में होता है। 

बहस पर बहस, किंतु मुद्दे पर नहीं! 
  

 संसद में का वर्षा कालीन सत्र जब से प्रारंभ हुआ है, वह गतिरोध पैदा होने के कारण ‘‘प्रथम ग्रासे मक्षिका पात’’ (पहले ही निवाले में मक्खी गिरना) की उक्ति को चरितार्थ करता हुआ आसन्दी द्वारा प्रतिदिन स्थगित किया जाता किया जा रहा है। गतिरोध का एकमात्र कारण मणिपुर पर बहस को लेकर है। आश्चर्य और ‘‘समझ’’ कर न ‘‘समझने’’ वाली बात यह भी है कि सत्ता और विरोधी दोनों इस मुद्दे पर ‘‘आभासी’’ बहस चाहते हैं, बहस के लिए तैयार ‘‘भी’’ हैं, परन्तु फिर भी बहस नहीं हो पा रही है। यह क्रिकेट के खेल के समान हो गई है, जहां मैदान में दोनों टीमें उतर कर आती हैं। लेकिन बिना गेंद फेंके ही एंपायर बेटिंग टीम को नहीं, बल्कि फील्डिंग करने वाली टीम के बॉलर को रिटायर्ड हर्ट कर देता है और तब टीम मैदान छोड़कर चली जाती है। चूंकि खेल टी20 या वनडे न होकर टेस्ट मैच है, अतः दूसरे दिन दोनों टीमें फिर खेलने आती है। यह सिलसिला चलता चला आ रहा है। इस प्रकार फिल्म ‘‘अनहोनी’’ का आशा (भोसले) की आवाज में उक्त गाना ‘‘हंगामा हो गया’’ संसद में सांसदों द्वारा दिन प्रतिदिन हंगामा किया जाकर ‘‘आशा’’ नहीं निराशा की ‘‘अनहोनी का रिकॉर्ड’’ तो नहीं बनने जा रहा?
    वस्तुतः मुद्दा क्या है? मणिपुर में हो रही हिंसा और यौन दुराचार की वीभत्स घटनाओं को रोकने के लिए संसद में सार्थक बहस होकर आम सहमति से समस्या का निदान किया जाए या बहस का मुद्दा यह हो जाए कि किस नियम के तहत बहस करनी है? इस विषय को लेकर देश की मीडिया से लेकर आम लोग के बीच लगभग सीधा विभाजन (वर्टिकल डिविजन) होता हुआ दिख रहा है। मुद्दा यह बिल्कुल नहीं है कि आप मणिपुर की बहस की यात्रा की ट्रेन(संसद) में आप प्रथम श्रेणी क्लास के डिब्बे में बैठे या द्वितीय क्लास के डिब्बे में? इसलिए यह गंभीर प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में दोनों पक्ष मणिपुर के मुद्दे पर सार्थक बहस चाहते हैं? अथवा बहस (आभासी) बहस का हंगामा कर ‘‘मुंह में राम बगल में छुरी’’ रखे हुए हैं? अथवा सत्ता पक्ष मणिपुर गुजरात के बाद दूसरी प्रयोगशाला बनाने के कारण बहस से कतरा रहा है जैसा कि तथाकथित रूप से कुछ क्षेत्रों में यह कहते हुए कि ‘‘रोम जब जल रहा था, तब नीरो बंशी बजा रहा था’’, आरोप लगाए जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर विदेशी ताकतों का हाथ होने का आरोप भी लगाया जा रहा है। तब फिर होने वाली बहस का मुद्दा सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे को ‘‘कटघरे में खड़ा कर’’ नीचा दिखाने का होगा अथवा समस्या के निदान का होगा? तीन प्रमुख बातें सुचारू रूप से संसद चलने के लिए विपक्ष जरूरी मानता है। एक तो बहस नियम 267 के तहत काम रोको प्रस्ताव के सामान अन्य समस्त संसदीय कार्यवाही रोककर दीर्घकालीन चर्चा हो, जिसमें मतदान का प्रावधान है। दूसरे प्रधानमंत्री संसद में उपस्थित रहे और तीसरा मणिपुर के मुद्दे पर ‘‘विभूषणम् मौनं पंडिताणाम्’’ की उक्ति से मुक्ति पाकर प्रधानमंत्री का बहस के पहले संसद पटल पर बयान हो। जबकि ट्रेजरी बेंच (सत्ता पक्ष) नियम 176 के तहत बहस चाहती हैं, जिसमें बहस का समय अधिकतम ढाई घंटे का होता है, जिसमें वोटिंग नहीं होती है। बहस का जवाब गृहमंत्री देंगे, क्योंकि जिस विभाग का मुद्दा होता है, जवाब भी उसी विभाग का मंत्री अर्थात यहां पर गृहमंत्री ही देंगे।

पक्ष-विपक्ष का सकारात्मक रुख नहीं !
  

 यानी ‘‘पंचों का कहा सर माथे, लेकिन परनाला तो यहीं गिरेगा’’। यदि दोनों पक्ष अर्थात सत्ता व विपक्ष अपने अपने ‘‘स्टैंड’’ से कुछ हटकर एक कदम आगे बढ़े तो, निश्चित रूप से सार्थक बहस हो सकती है। मैंने पहले भी कहा कि दोनों पक्ष जनता के समक्ष सिर्फ बहस का मुखौटा पहनकर जनता को बेवकूफ बना रहे हैं। नियम 267 के तहत अभी तक की 11वीं बार बहस आखरी बार नोटबंदी को लेकर हुई थी? क्या मणिपुर का मुद्दा नोटबंदी से कम महत्वपूर्ण है? जहां सरकार ढाई दिन की बहस की बजाए ढाई घंटे की बहस ही कराना चाहती है? सरकार वास्तव में सदन के महत्वपूर्ण समय को बहस में अनावश्यक रूप से जाया न करने के उद्देश्य से ढाई घंटे की समय सीमा जो नियम 176 में निर्धारित की गई है, में ही कराना चाहती है, तो वह गलत है। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या?, जब सरकार अच्छी तरह से जानती है, और देख भी रही है कि विपक्ष सदन चलने नहीं दे रहा है। तब यदि पहले दिन ही विपक्ष की मांग मान ली जाती तो, अभी तक 3 दिन के भीतर ही बहस पूरी हो जाती, जो समय बिना किसी बहस और संसदीय कार्य के सदन का बेकार हो गया। अतः यह स्पष्ट है, यहां पर दोनों पक्षों पर ‘‘मुंह में राम बगल में छुरी’’ वाली कहावत मणिपुर के मुद्दे पर चर्चा को लेकर लागू होती है। वास्तव में चर्चा कोई नहीं करना चाहता है। हां चर्चा का नरेशन और परसेप्शन जरूर बनाने का प्रयास किया जा रहा है, जिसमें देश का मीडिया बहस में घी की आहुति दे रहा है। 
    समस्त राजनेताओं को हमारे मध्यप्रदेश के प्रसिद्ध गजल लेखक स्व. दुष्यंत कुमार की इस गजल को संसद में प्रवेश करने के पूर्व जरूर याद कर लेना चाहिए। ‘‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं! मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए!’’