श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि, श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं
जगन्नाथ पुरी धाम के मंदिर की विशेषताएं –कई बार हमने बहुतो के मुख से सुनी होगी उसका संक्षिप्त विवरण आप लोगों के लिए पुनः अवलोकनार्थ –मेरे संकलन से ।
जिज्ञासा—बनी रहे तो कुछ मिलता है ॥
मंदिर का इतिहास : इस मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में मिलता है। कहा जाता है कि सबसे पहले सबर आदिवासी विश्ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। आज भी पुरी के मंदिरों में कई सेवक हैं जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है। राजा इंद्रध्युम्न ने बनवाया था यहां मंदिर : राजा इंद्रध्युम्न मालवा का राजा था जिनके पिता का नाम भारत और माता सुमति था। राजा इंद्रध्युम्न को सपने में हुए थे जगन्नाथ के दर्शन। कई ग्रंथों में राजा इंद्रध्युम्न और उनके यज्ञ के बारे में विस्तार से लिखा है। उन्होंने यहां कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया। एक रात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन दिए और कहा नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है उसे नीलमाधव कहते हैं। तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी इस मूर्ति को स्थापित कर दो। राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उसमें से एक था ब्राह्मण विध्द्यापति। विध्द्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है। चतुर विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आखिर में वह अपनी पत्नी के सहारे नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी। विश्ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख से भगवान भी दुखी हो गए। भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राज इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वो एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे बशर्ते कि वो एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे। राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा। भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो व्दारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है। राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्ववसु की सहायता लेना पड़ेगी। सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर स्वंय भगवान विश्वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में अकेले ही बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। राजा इंद्रध्युम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार/भूलकर/ध्यान न देकर राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया। जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी मूर्तियां मिली पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।इन मुर्तियों के ऐसे आकार के बारे मे ये कहा जाता है कि सबर जनजाति के लोग इसी तरह की आकृतियों की पूजा किया करते थे जो जंगल मे हमेशा कई अन्य पूजा स्थलो को देखने पर ऐसे प्रमाण मिलते रहते है । यह भी कहा जाता है स्वयं विश्वकर्मा जी ही इन मुर्तियों के निर्माणकर्ता थे। वर्तमान में जो मंदिर है वह 7वीं सदी में बनवाया था। हालांकि इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व 2 में भी हुआ था। यहां स्थित मंदिर 3 बार टूट चुका है। 1174 ईस्वी में ओडिशा शासक अनंग भीमदेव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। मुख्य मंदिर के आसपास लगभग 30 छोटे-बड़े मंदिर स्थापित हैं। मंदिर के निर्माण के बारे मे कई बार टूटने ,फिर बनने के भी प्रमाण तो ग्रंथों मे मिलते है ।

धार्मिक आस्था के विभिन्न आयामों में हमारे चारो धामों में एक धाम जो भारत के पूर्व में स्थित है जिसे जगन्नाध धाम (पुरी) के नाम से प्रसिध्द है ।यह श्री पुरूषोतम क्षेत्र में शंखाकार स्थान नीलाचल पर्वत शिखर । यहाँ की हर बात एक विशेषता लिए हुए प्रतीत होती ही नहीं वरन है ।मंदिर ,मदिर में स्थापित मुर्तियां ,प्राय:मुर्तियाँ ,धातुओं की होती है पर काठ की मुर्तियाँ चुकिं सबर जनजाति इन्हीं आकृतियों की /मुर्तियों की पूजा करते थे इसलिए ऐसा ही बनाया माना जाता है जो केवल इसी मंदिर में है ।हर मंदिर में विष्णु जी को प्रायः लक्ष्मी जी उनकी पत्नी के साथ अर्थात माता लक्ष्मी जी होती है इस मंदिर में विष्णु के अवतार माने जाने वाले श्रीकृष्ण जी के साथ उनके भाई बलराम व छोटी बहन सुभ्रदा जी की काठ की प्रतिमाएँ है ।इन्हें जगन्नाथ के नाम से अर्थात जगत के नाथ के रूप में ओडिशा में स्थापित है उसे निलांचल नामक प्रदेश के नाम से जाना जाता है । 10-11वी शताब्दी मे शुरू होकर12वीं शताब्दी में एक राजा+ के परिवार के दादा जी ने कार्य शुरू किया और पोते ने इसे पूर्ण किया कहा जाता है।पूरी जगन्नाध स्वामी भगवन के रूप में इस स्थान पर ये माना जाता है ये आदिवासी के देवता के रूप में नीलमाधव के नाम से स्थापित थे उनकी जानकारी प्राप्त करने के लिेए वहाँ प्रभु राजा इन्द्रधुम्न ने कई बार आदिवासियों से उस भगवन के दर्शन के कई प्रयास किए पर उनके बारे में आदिवासियों से कुछ भी पता नहीं चल पाया या ये कहा जाय की उन्होंने इस विषय में उन्हें कुछ भी नहीं बताया फिर एक रास्ते निकाला गया उन्होंने (राजा ने)विधापति नामक एक ब्राम्हण युवक को इसके बारे में पता लगाने के लिए आदिवासियों के बीच भेजा जहां इस युवक का प्रेम आदिवासी राजा की पुत्री ललिता से हो गई फिर विवाह के रूप में परिणित हुआ इसके दौरान दहेज के रूप में दामाद जी की इच्छा यह थी की वह उन्हें नीलमाधव जी के दर्शन करवाए ,पश्चात लगातार अपने दामाद के व्दारा इस तरह नीलमाधव के रहस्य को जानने की जिज्ञासा के कारण आदिवासी राजा व्दारा बार-बार यह समझाया गया की यह केवल हमारी जाति के लोगों के लिए ही इनके दर्शन की अनुमति है व उन्हें ही यह सुलभ रहते है ,अन्य किसी जाति के लोगों के लिए इनके दर्शन कराना हमारे लिए निषेध है..इस तरह बता कर उन्होने लगातार इस इच्छा को टालते रहे पर इस स्थिति में दहेज के रूप मे मांगी चीज को न दे पाना व उनकी इच्छा का घ्यान न देना व दामाद जी को बारबार टाल पाना उनके लिए कठिन हो गया फिर उन्होने एक शर्त पर उनके दर्शन के लिए राजी हो गए ,वो ऐसे की रास्ते भर आपके आँखों में पट्टी बंदी रहेगी ताकि आप मार्ग न देख सके वैसे ही किया गया पर विधापति जी व उनकी पत्नी ने मिलकर एक युक्ति की उन्होंने एक पोटली में सरसों के बीज रख कर अपनी यात्रा शुरू करने का निश्चय किया, ताकि रास्ते की जानकारी के लिए उन बीजो को फेंकते हुए आगे भगवन के दर्शन प्राप्त करने के बाद लौट कर वापस आ जाए जिससे बरसात के पश्चात इन बीजो के सहारे उगे पेडो के व्दारा हम वहाँ पहुँच सकते है ऐसा सोच कर यह किया गया ।विधापति के लौटकर आने के पश्चात उन्होंने राजा को इस विषय में सूचित कर उन्होने उनके वहां पहुंचने का रास्ता भी बताया ।पर राजा व्दारा पूरी सेना लेकर गर्व से भरे होने के कारण जब राजा वहां पहुँचे तो नीलमाधवन वन में वहाँ से अदृश्य हो गए और वहाँ से जा चुके थे । राजा को इसका बहुत सदमा हुआ और वो लौटकर अत्यन्त ही दु:खी रहने लगे इसी क्रम में उन्होंने एक प्रकार से जल-अन्न सभी त्याग कर एक योगी के रूप में अपने को बना लिया लगातार इसी हाल में रहते हुए उनको एक दिन स्वपन आया की तुम्हें मेरे दर्शन न मिलने का कारण तुम्हारे लिए मैं एक अवसर दे रहा हूँ जिसमें मैं तुम्हें दर्शन दूंगा ।शंख नामक नदी जिस स्थान पर समुद्र से मिलती है वहाँ पर मैं नीम के पेड के रूप में बहकर आऊँगा ।तुम उसे वहां से लाकर अपने पास रखना मैं उसमें निवास करूंगा या उसमें रहूँगा राजा ने उसी तरह काठ रूपी नीम के पेडो के काठ को लेकर आ कर एक जगह लाकर रखा कई कारीगरों को बुलाया पर इससे उनको कोई लाभ नहीं हुआ ।इसी दौरान स्वय विश्वकर्मा जी का एक विकलांग के रूप में आगमन हुआ उन्होंने राजा से कहा मैं इन पर कार्य करूँगा और एक सुन्दर स्वरूप देकर रहूँगा पर मेरी एक इच्छा है की 21 दिनों तक इस पर जहां मैं काम कर रहा हूँ इस स्थान के कपाट न खोले ।पर उनकी पत्नी गुंडिचा देवी के आशंका जताने का तात्पर्य यह की वहाँ कार्य होने का किसी प्रकार के संकेत नहीं मिल रहे है कोई आवाज नहीं आ रही है ।कहने पर राजा ने किवाड खुलवा दिए जिसका परिणाम यह हुआ की उस जगह पर विश्वकर्मा जी अदृश्य हो गए पर वहाँ काठ कर तीन आकृतियाँ व एक सुदर्शन चक्र का अधुरा निर्माण हुआ हुआ था केवल चेहरे बने थे ..राजा को फिर पश्चाताप हुआ,पुन: स्वपन का आना व कहना मुझे इसी रूप में स्थापित किया जाए ।नारद जी के कहने पर फिर ब्रम्हा जी के व्दारा इसकी स्थापना की गई इन्होनें ही इस काठ की मुर्तियों में प्राण भरे जो आज भी इसका मान्यता है हर 12 से 13 वर्ष के दौरान जिस वर्ष दो आषाढ माह का आगमन होता है उस समय इन काठ की मुर्तियों को बदला जाता है इस उत्सव को नवकलेवर यात्रा के नाम से जाना जाता है .इसके लिए उपयोग मे लाए जाने वाले काठ नीम का जगन्नाथ जी (थोडा काला रंग),सुभद्रा(लाल भाग) व बलराम (सफेद भाग) का प्रयोग सर्वमान्य है इन लकडियों में शंख,चक्र,गदा अथवा पदम चिन्हो का होना। इन मुर्तियों को बनाने के लिए नीम के पेड का चयन भी नदी में बहकर आए पेड को ही चुना जाता है जिस जगह पर ये मिलता है उस जगह पर भी बहुत ही सुन्दर उत्सव का माहौल बन जाता है इन मुर्तियों को बनाने के लिए कुछ विशेष जाति के लोग ही इस काम को अंजाम देते है इस तरह इन मुर्तियों के ब्रम्ह तत्व को बदलने के लिए कुछ विशेष पुजारियो को ही अनुमति होती है और बहुत ही रहस्यमय तरीके से यह कार्य किया जाता है साथ ही उसके पश्तात ही पुन: भक्तों को दर्शन के लिए अनुमति मिलती है ।।इस मंदिर की विशेषताओं के इस क्रम में और भी बहुत सी विशेषताए है ..साल में एक बार ही भगवन का अभिषेक होता है वो जेष्ठ पुर्णिमा के दिन होता है ।इस दिन भगवान को स्नान कराते है इस स्थान पर तीन पर्दो के अन्दर बाहर निकल कर फिर भगवन को सर्दी हो जाती है इस दौरान मान्यता है कि भुवनेश्वर व पुरी के आसपास बरसात होती है और 15 दिनों के लिए बुखार आया-सर्दी हो गई कह कर भगवन को आराम दिया जाता है ,इस दौरान भगवन का भोजन भी काढा आदि होता है । इस दौरान इनके दर्शन वर्जीत होते है इसके स्थान पर इन्ही के स्वरूप श्री हर-हर नाध जी की पूजा करते है जो मंदिर के प्रांगण में ही है जिसे चैतन्य महाप्रभु के व्दारा स्थापित किया गया था ।आषाढ माह की व्दितीया को रथयात्रा  उसके पश्चात रथयात्रा का आगमन ।यहाँ पर हमारे सबसे वैभवशाली मंदिर बालाजी तिरूपति में लगने वाले 16 प्रकार को भोग की तुलना में इस जगह पर 56(*) भोग का प्रचलन है ।

इस मंदिर की विशेषताओं में सभी वास्तविक मूल मुर्तियाँ बाहर निकाली जाती है लोगों के दर्शन के लिए अन्य मंदिरों में इनके प्रतिरूप ही बाहर निकाले जाते है ।रथ यात्रा की विशेषताएँ हर वर्ष नये रथ का निर्माण होता है यह कार्य अक्षय तृतीया के दिन से शुरू होता है। सभी तीनो रथो के अलग-अलग नाम है क्रमश: काल ध्वजा, पदमा ध्वजा और नंदी घोष रथो के नाम से जाना जाता है ।एक विशेष व्यवस्था के तहत उनकी प्रतिमाओं को बाहर लाते समय उन्ही आदिवासियो के वशंजो व्दारा इसे बाहर लाया जाता है जिसने सर्वप्रथम नीलमाधव के दर्शन कराए थे  इसमे बिठाने के लिए सबसे पहले बडे भाई बलराम को ,सुभद्रा को फिर अंत में जगन्नाध जी को लाया जाता है । बलराम के लाने के बाद ऐसा कहा जाता है की अगर जगन्नाध जी को लाने पर छोटी बहन सुभद्रा को डर लगने लगेगा इस लिए बहन को पहले लाया जाता है । इस रथयात्रा के दौरान उस स्थान के राजा के वशंज व्दारा रथो को सोने के झाडू से बुहारने का काम किया जाता है इसके पश्चात रथों में मुर्तियो के रखने के बाद रथ यात्रा उस चौडी सडक से होते हुए गुण्डिचा मंदिर (मौसी मंदिर) तक जाता है जहाँ एक सपताह तक वहीं रहकर उस स्थान से यात्रा की वापसी होती है। इस दौरान रत्नो से जडी वेदी पर सभी मुर्तियों को उस मंदिर में हर दिन भगवन के अलग-अलग रूप दशावतारो मे सजाया जाता है ।इस तरह रथो की वापसी के पूर्व वहाँ पर भी बहुत सारे उत्सवो को लगातार देखा जाता है ।इस मंदिर का क्षेत्रफल 4000 वर्गफुट में फैला हुआ है बहुत सारी विशेषताओं का समागम इस मंदिर की शिल्प कला कलिंग राजाओ के काल की होने के कारण दक्षिण-पूर्व भारत के अन्य मंदिरो की तरह नहीं है ।चार व्दार है चारो व्दारो को अलग-अलग नामों से जाना जाता है मुख्य व्दार सिँह व्दार कहलाता है जहाँ एक जोडी सिंह विराज मान है ,शेष तीन व्दार क्रमश:अश्व(घोडे) व्दार,व्याग्र(शेर)व्दार और गज (हाथी) व्दार बहुत ही आकर्षक लगते है ।सिँह व्दार के आगे एक धातु का स्तम्भ है जिसके ऊपर सूर्य के सारथी अरूण विराजमान है इसे वहाँ के राजा ने कोणार्क से लाकर वहां स्थापित किया ।मंदिर के प्रागंण में की अन्य छोटे-छोटे मंदिर स्थापित है जिनकी भी पूजा लगातार होती रहती है इस मंदिर का भोग यहाँ स्थापित प्रमुख 156 मंदिरो को प्रतिदिन  जाता है ।इन तीनों मुर्तियों के अलावा एक सुदर्शन चक्र जो मिला वह गुम्बज पर विराजमान है । इस मंदिर के अन्दर एक पाक शाला है जिसमें लगभग हर दिन लाखो लोगो के लिए भोग का प्रबन्ध होता है। यहां केवल मिट्टी के बर्तनो में ही भोजन बनता है हर दिन यहां 3 लाख मिट्टी के बर्तनो का उपयोग होता है इस तरह ये बर्तन दुबारा उपयोग में नहीं लिए जाते इसी पाक शाला में हजारो की तादात में लोग कार्य करते रहते है ऐसा कहा जाता है की इस पाक शाला की देखरेख स्वयं माता लक्ष्मी जी करती है ,इस प्रांगण में दो ऐसे कुँए है जिनकी गहराई उनकी अपनी विशेषताओं के साथ है जो मंदिर के गुम्बज का ध्वज जितनी ऊपर लगा है उतने ही गहरे है। एक कुआं नमकीन(खारा पानी) देता है, तो दुसरा कुआं साफ(मीठा पानी) देता है ।इसी कुएँ के जल से ही यहां का भोजन बनाया जाता है। इस पाक शाला के अन्दर जिस प्रकार भोजन पकाने के लिए एक के ऊपर एक के क्रम में नौ पात्र रखे जाते है, आश्चर्य तो तब होता है जब सबसे पहले ऊपर के पात्र का अन्न पहले पककर तैयार होता है ।बताया जाता है एक समय था यहाँ पर उपवास करना अपराध माना जाता था। इस पाक शाला में जब कभी भी भोजन के निर्माण मे किसी प्रकार की गलती हो जाती है तो कहा जाता है एक कुते की परछाई पाक शाला की दीवार पर पडने लगती है उस समय सारा भोजन जमीन के अन्दर गाड दिया जाता है और पुन: तैयार किया जाता यहाँ भोजन बनाने की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है ।ओडिशा में रथयात्रा हर गांवों में शहरों मे जरूर होता है। ...वर्ष भर का ये पर्व अन्य प्रन्तों के अन्य महत्वपूर्ण पर्वों की तरह जैसे ..बंगाल की दूर्गा पूजा से .उसी तरह महाराष्ट्र के गणेश जी से, दक्षिण का ओणम , पोंगल, मकरशंकरान्ति तो भारत के हर राज्यों अलग अलग नामों से मनाया जाता है । किसी भी स्थिति मे कम नहीं। इससे संबन्धित कुछ बाते जो बहुत ही रोचक व सामन्य जन के लिए उपयोगी भी मैं कोशिश कर रहा हूँ इसे प्रस्तुत करने के। इस दौरान दशावतार लिए प्रभु के रूप कलाकारो व्दारा बडे ही शिद्दत के साथ बना कर हर दिन लोगो के दर्शन के लिेए रहता है जो मन मोह लिया करता है गुण्डिचा मंदिर (मौसी मंदिर) रथ यात्रा के समय ।
(1)प्रथम दिन सामान्य  (2)व्दितीय मत्सय व कछप अवतार , (3)तृतीय दिन वरहा व नरसिम्हा अवतार ,(4)चतुर्थ- परशुराम व वामन अवतार (5)पंचम बलराम व नारायण(सामान्य रूप ) 
(6)शष्टम बलराम व राम (7)सप्तम-अष्टम बलराम व कृष्ण ..(9)नवम बौधी व कल्की अवतार  
(10)दशम सामन्य ।
(नोट-इन सभी में मेरी शंका बौधी अवतार का क्या विवरण है..नहीं जान पाया अगर कोई इस पर विस्तार दे तो कृपा होगी ।)
जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी एक बेहद रहस्यमय कहानी प्रचलित है, जिसके अनुसार मंदिर में मौजूद भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्वयं ब्रह्मा विराजमान हैं। ब्रह्मा कृष्ण के नश्वर शरीर में विराजमान थे और जब कृष्ण की मृत्यु हुई तब पांडवों ने उनके शरीर का दाह-संस्कार कर दिया लेकिन कृष्ण का दिल(पिंड) जलता ही रहा।कुछ मत ये भी की नाभी । ईश्वर के आदेशानुसार पिंड को पांडवों ने जल में प्रवाहित कर दिया। उस पिंड ने लट्ठे का रूप ले लिया। राजा इन्द्रद्युम्न, जो कि भगवान जगन्नाथ के भक्त थे, को यह लट्ठा मिला और उन्होंने इसे जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्थापित कर दिया। उस दिन से लेकर आज तक वह लट्ठा भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर है। हर 12 वर्ष के अंतराल के बाद जगन्नाथ की मूर्ति बदलती है लेकिन यह लट्ठा उसी में रहता है।इस लकड़ी के लट्ठे से एक हैरान करने वाली बात यह भी है कि यह मूर्ति हर 12 साल में एक बार बदलती तो है लेकिन लट्ठे को आज तक किसी ने नहीं देखा। मंदिर के पुजारी जो इस मूर्ति को बदलते हैं, उनका कहना है कि उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है और हाथ पर कपड़ा ढक दिया जाता है। इसलिए वे ना तो उस लट्ठे को देख पाए हैं और ही छूकर महसूस कर पाए हैं। पुजारियों के अनुसार वह लट्ठा इतना सॉफ्ट होता है मानो कोई खरगोश उनके हाथ में फुदक रहा है। पुजारियों का ऐसा मानना है कि अगर कोई व्यक्ति इस मूर्ति के भीतर छिपे ब्रह्म को देख लेगा तो उसकी मृत्यु हो जाएगी।इसी वजह से जिस दिन जगन्नाथ की मूर्ति बदली जानी होती है, उड़ीसा सरकार द्वारा पूरे शहर की बिजली बाधित कर दी जाती है। यह बात आज तक एक रहस्य ही है कि क्या वाकई भगवान जगन्नाथ की मूर्ति में श्री कृष्ण का वास है। जय जगन्नाथ। .जय श्री कृष्णा

हवा के विपरीत लहराता ध्वज : श्री जगन्नाथ मंदिर के ऊपर स्थापित लाल ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है। ऐसा किस कारण होता है यह तो वैज्ञानिक ही बता सकते हैं लेकिन यह निश्चित ही आश्चर्यजनक बात है।  यह भी आश्चर्य है कि प्रतिदिन सायंकाल मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़कर बदला जाता है। ध्वज भी इतना भव्य है कि जब यह लहराता है तो इसे सब देखते ही रह जाते हैं। ध्वज पर शिव का चंद्र बना हुआ है। 

गुंबद की छाया नहीं बनती : यह दुनिया का सबसे भव्य और ऊंचा मंदिर है। यह मंदिर 4 लाख वर्गफुट में क्षेत्र में फैला है और इसकी ऊंचाई लगभग 214 फुट है। मंदिर के पास खड़े रहकर इसका गुंबद देख पाना असंभव है। मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है। हमारे पूर्वज कितने बड़े इंजीनियर रहे होंगे यह इस एक मंदिर के उदाहरण से समझा जा सकता है। पुरी के मंदिर का यह भव्य रूप 7वीं सदी में निर्मित किया गया।

चमत्कारिक सुदर्शन चक्र : पुरी में किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है।

हवा की दिशा : सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है। अधिकतर समुद्री तटों पर आमतौर पर हवा समुद्र से जमीन की ओर आती है, लेकिन यहां हवा जमीन से समुद्र की ओर जाती है।

गुंबद के ऊपर नहीं उड़ते पक्षी : मंदिर के ऊपर गुंबद के आसपास अब तक कोई पक्षी उड़ता हुआ नहीं देखा गया। इसके ऊपर से विमान नहीं उड़ाया जा सकता। मंदिर के शिखर के पास पक्षी उड़ते नजर नहीं आते, जबकि देखा गया है कि भारत के अधिकतर मंदिरों के गुंबदों पर पक्षी बैठ जाते हैं या आसपास उड़ते हुए नजर आते हैं।

दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर : 500 रसोइए 300 सहयोगियों के साथ बनाते हैं भगवान जगन्नाथजी का प्रसाद। लगभग 20 लाख भक्त कर सकते हैं यहां भोजन। कहा जाता है कि मंदिर में प्रसाद कुछ हजार लोगों के लिए ही क्यों न बनाया गया हो लेकिन इससे लाखों लोगों का पेट भर सकता है। मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती।मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है अर्थात सबसे ऊपर रखे बर्तन का खाना पहले पक जाता है। है न चमत्कार!

समुद्र की ध्वनि : मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर ही (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि को नहीं सुन सकते। आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें, तब आप इसे सुन सकते हैं। इसे शाम को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है।इसी तरह मंदिर के बाहर स्वर्ग द्वार है, जहां पर मोक्ष प्राप्ति के लिए शव जलाए जाते हैं लेकिन जब आप मंदिर से बाहर निकलेंगे तभी आपको लाशों के जलने की गंध महसूस होगी।

रूप बदलती मूर्ति : यहां श्रीकृष्ण को जगन्नाथ कहते हैं। जगन्नाथ के साथ उनके भाई बलभद्र (बलराम) और बहन सुभद्रा विराजमान हैं। तीनों की ये मूर्तियां काष्ठ की बनी हुई हैं। यहां प्रत्येक 12 साल में एक बार होता है प्रतिमा का नव कलेवर। मूर्तियां नई जरूर बनाई जाती हैं लेकिन आकार और रूप वही रहता है। कहा जाता है कि उन मूर्तियों की पूजा नहीं होती, केवल दर्शनार्थ रखी गई हैं। विश्व की

सबसे बड़ी रथयात्रा : आषाढ़ माह में भगवान रथ पर सवार होकर अपनी मौसी रानी गुंडिचा के घर जाते हैं। यह रथयात्रा 5 किलोमीटर में फैले पुरुषोत्तम क्षेत्र में ही होती है। रानी गुंडिचा भगवान जगन्नाथ के परम भक्त राजा इंद्रदयुम्न की पत्नी थी इसीलिए रानी को भगवान जगन्नाथ की मौसी कहा जाता है। अपनी मौसी के घर भगवान 8 दिन रहते हैं। आषाढ़ शुक्ल दशमी को वापसी की यात्रा होती है। भगवान जगन्नाथ का रथ नंदीघोष है। देवी सुभद्रा का रथ दर्पदलन है और भाई बलभद्र का रक्ष तल ध्वज है। पुरी के गजपति महाराज सोने की झाड़ू बुहारते हैं जिसे छेरा पैररन कहते हैं। हनुमानजी करते हैं जगन्नाथ की समुद्र से रक्षा : माना जाता है कि 3 बार समुद्र ने जगन्नाथजी के मंदिर को तोड़ दिया था। कहते हैं कि महाप्रभु जगन्नाथ ने वीर मारुति (हनुमानजी) को यहां समुद्र को नियंत्रित करने हेतु नियुक्त किया था, परंतु जब-तब हनुमान भी जगन्नाथ-बलभद्र एवं सुभद्रा के दर्शनों का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे। वे प्रभु के दर्शन के लिए नगर में प्रवेश कर जाते थे, ऐसे में समुद्र भी उनके पीछे नगर में प्रवेश कर जाता था। केसरीनंदन हनुमानजी की इस आदत से परेशान होकर जगन्नाथ महाप्रभु ने हनुमानजी को यहां स्वर्ण बेड़ी से आबद्ध कर दिया। यहां जगन्नाथपुरी में ही सागर तट पर बेदी हनुमान का प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिर है। भक्त लोग बेड़ी में जगड़े हनुमानजी के दर्शन करने के लिए आते हैं। 

जगन्नाथ पुरी में तीनो रथो के बारे में कुछ तथ्य 

(1)भगवान् जगन्नाथ जी के रथ का संक्षिप्त परिचय
(1). रथ का नाम -नंदीघोष रथ (2 )कुल काष्ठ खंडो की संख्या -832 (3).कुल चक्के -16 (4). रथ की ऊंचाई - 45 फीट (5).रथ की लंबाई चौड़ाई - 34 फ़ीट 6 इंच (6).रथ के सारथी का नाम - दारुक
(7).रथ के रक्षक का नाम- गरुड़ (8). रथ में लगे रस्से का नाम- शंखचूड़ नागुनी (9).पताके का रंग- त्रैलोक्य मोहिनी (10)रथ के घोड़ो के नाम -वराह, गोवर्धन, कृष्णा, गोपीकृष्णा, नृसिंह,राम, नारायण, त्रिविक्रम,हनुमान,रूद्र ।। ?
(2)बलभद्र जी के रथ का संक्षिप्त परिचय
(1) रथ का नाम -तालध्वज रथ (2) कुल काष्ठ खंडो की संख्या -763 (3)कुल चक्के -14 (4) रथ की ऊंचाई- 44 फीट (5)रथ की लंबाई चौड़ाई - 33 फ़ीट (6)रथ के सारथी का नाम - मातली
(7).रथ के रक्षक का नाम-वासुदेव(8). रथ में लगे रस्से का नाम- वासुकि नाग(9).पताके का रंग- उन्नानी
(10). रथ के घोड़ो के नाम -तीव्र ,घोर,दीर्घाश्रम,स्वर्ण नाभ ।।
(3) सुभद्रा जी के रथ का संक्षिप्त परिचय
(1). रथ का नाम - देवदलन रथ (2) कुल काष्ठ खंडो की संख्या -593 (3).कुल चक्के -12
(4). रथ की ऊंचाई- 43 फीट (5).रथ की लंबाई चौड़ाई - 31 फ़ीट 6 इंच (6.)रथ के सारथी का नाम – अर्जुन (7).रथ के रक्षक नाम- जयदुर्गा (8). रथ में लगे रस्से का नाम- स्वर्णचूड़ नागुनी (9).पताके का रंग- नदंबिका (10). रथ के घोड़ो के नाम -रुचिका,मोचिका, जीत,अपराजिता
कृपया इसके अन्य कोई जानकारी उपलब्ध हो तो जोडने में सहयोग प्रदान करें ।
कहीं कहीं पर कुछ प्रसंग दुबारा भी आये है,जो केवल उस क्रम को बनाए रखने के उद्देश्य से है । सामान्य मनुष्य की धार्मिक भावना के लिए। विस्तार में बहुत सी बाते है। यह एक संक्षिप्त संकलन है। कृपया गलतियों को क्षमा करते हुए सुधार के लिए आवश्यक मार्गदर्शन करें ।
चिरंजीव(स्वतंत्र लेखन)
संकलन एवं लेखन
लिंगम चिरंजीव राव
म.न.11-1-21/1, कार्जी मार्ग
इच्छापुरम, श्रीकाकुलम (आन्ध्रप्रदेश)
पिन 532 312, मों.न. 8639945892