“हिंदी भाषा के माध्यम से भारतीयता के अनुरूप शिक्षा व्यवस्था बनाने में राष्ट्ररत्न बाबू शिव प्रसाद गुप्त संकल्पित रहे ”
‘’स्वतंत्र शिक्षा के सपनों को राष्ट्ररत्न बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने काशी विद्यापीठ के माध्यम से साकार किया’’“”शिव प्रसाद गुप्त को महात्मा गांधी ने राष्ट्ररत्न कहा था, लोगों ने उन्हं  भुला दिया। काशी के लाल राष्ट्ररत्न शिवप्रसाद गुप्त ने तन मन और घन से राष्ट्र निर्माण में अहम भूमिका निभाई, शिक्षा, स्वास्थ एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी अतुलनीय भूमिका थी।“” ‘उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक बिकने वाला 'आज' अखबार के संस्थापक थे बाबू शिव प्रसाद गुप्ता जी थे एक दूरदर्शी, हमेशा राष्ट्र के प्रति समर्पित परोपकारी व्यक्ति जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम मे भाग ले रहे अनेक नेताओं को दिशा देने वाले नेता और महात्मा गांधी के सहयोगी और काशी विध्यापीठ के सफल संस्थापक थे। घनवान उद्योगपति और जंमींदार परिवार से सबंधित होने के बावजूद भी उन्होंने अपना जीवन स्वतंत्रता संग्राम के विभिन्न आंदोलनों मे अपनी सक्रिय भूमिका के साथ लहायता करते हुए वित्तीय सहायता के लिए भी हमेशा समर्पित रहते थे। वाराणासी के समाजसेवी शिवप्रसाद गुप्त जिन्हें देश की आजादी की लड़ाई में बहुमूल्य योगदान के कारण उन्हें महात्मा गांधी जी के व्दारा उनका नामाकरण “राष्ट्ररत्न” किया था और वे इसी नाम से संबोधित भी हुआ करते थे। व् महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक, महामना मदन मोहन मालवीय और अन्य सभी राष्ट्रवादी नेताओं के साथ उनका करीबी सबंध रहा। इनका निवास सभी के लिए वाराणासी में हमेशा खुला रहता और इनकी सलाह व सहायता के सभी आंकाक्षी रहे। अपने समय में वे बापू के अनन्य सहयोगी, स्वप्नदर्शी स्वतंत्रता सेनानी, सहृदय लोकोपकारी और सत्य व न्याय के लिए उत्सर्ग को तैयार रहने वाले व्यक्तित्व के धनी , सुख-सुविधा के माहौल में पलते-बढ़ते वे उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय गए तो वहां न्हें आचार्य नरेन्द्र देव व गोविंदवल्लभ पंत आदि का साथ मिला, जिसने निर्भीकता, दृढ़ता व उत्साह जैसे जन्मजात गुणों के निखारकर उन्हें नई ऊँचाई प्रदान करने मे मदद मिली। उस समय के महान विभूतियों के सान्निध्य के कारण वे उनसे बहुत प्रभावित थेः पंडित मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, महात्मा गांधी , आचार्य नरेन्द्र देव, डॉ. भगवान दास आदि राष्ट्रवादी। राष्ट्रवादी गतिविधियों के खातिर अनेक बार जेल भी गये । आजादी की लड़ाई में काशी से पूरे देश का नेतृत्व किया। उनहोंने आजादी की लड़ाई लड़ने वाले और जेल मे रहने वाले सेनानियों के घर भी हर माह राशि मिजवाना शुरू किया, जिससे उनका मनोबल कम न हो, शिवप्रसाद गुप्त सुभाष चंद्र बोस के सेना की भी मदद के लिए समय-समय पर रूपये भेजा करते थे। महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के संस्थापक थे जो एक राज्य स्तरीय विश्वविद्यालय इसके निर्माण के पीछे का कारण उन छात्रों के लिए था जिन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़कर भारत की स्वतंत्रता के आंदोलन में शामिल होकर इसको सपल बनाने मे लगे थे । ताकि उन युवाओं को पढ़ाई का मौका दिया जा सके इस संस्थान के लिए बड़ी दारता के साथ दस लाख रूपये का दान शिवप्रसाद गुप्ता जी व्दारा दिया गया। बनारस में भारत माता मंदिर का निर्माण भी किया था जिसमें संगमरमर पर भारत का एक उभरा हुआ नक्शा उकेरा गया है। इस मंदिर का उदघाटन 1936 में महात्मा गांधी जी व्दारा किया गया। जो एक राष्ट्रीय धरोहर स्मारक है इसे देखने आज भी देश विदेश के लोग बनारस आते है। चिकित्सा के प्रति भी उनका विशेष योगदान राष्ट्र को रहा है जो आज भी याद किया जाता है । शिव प्रसाद गुप्ता अस्पताल- वाराणासी सिविल अस्पताल, दैनिक हिंदी समाचार पत्र आज सबसे पुराना मौजूदा हिंदी समाचार पत्र है। ज्ञानमंड़ल लिमिटेड के प्रकाशन, से निकलने वाला आज अखबार बहुत ही प्रसिध्द व पुराना अखबार है जिसे गुप्त ने 1920 में इसके बाद लोगों को जागरूक करने के लिए हिंदी भाषी क्षेत्र में "आज समाचार पत्र" की ऐसी शुरुआत की जिसका असर जल्द ही दिखाई देने लगा,. उन्होंने विष्णु राव पराड़कर को स्वतंत्र संपादकीय करने दिया। स्वतंत्रता के लिए भारतीय संधर्ष को सुविधाजनक बनाने के लिए शुरू किया था। इस तरह इस अखबार को बहुत ख्याति भी मिली आज समाचार पत्र ने काशी से ही देशव्यापी आंदोलन में अपनी भूमिका निभाई. । गुप्ता जी कई वर्षो तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को कोषाध्यक्ष के रूप में जुड़े भी रहे । गांधी जी से निकटता के कारण पंडित जवाहरलाल नेहरू समेत अनेक छोटे-बड़े कांग्रेसी नेता उनसे सहयोग व समर्थन लेने प्रायः बनारस आया करते थे. 1924 से 1931 तक वे कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहे और इस दौरान 1928 में बनारस में हुई पहली राष्ट्रीय कांग्रेस का उन्होंने अपने निजी खर्च से आयोजन किया। 

उनके ऊपर हमेशा किसी न किसी सामाजिक कार्य का आर्थिक भार रहा करता था और वे उसे निभाते भी थे 1928 में वाराणासी मे आयोजित हुआ प्रशम राष्ट्रीय कांग्रेस का संपूर्ण व्यय और व्यवस्था गुप्त जी ने अपने निवास सेवा पवन मे की जो एक हेरिटेज भवन है जिसे एड़विन लुटियंस ने अपने मित्र श्री कैटले, वाराणासी के कलेकेटर के लिए डिजाइन किया था। गुप्त जी ने 1916 में उसे खरीद लिया था। फिर इसका नाम महात्मा गांधी जी ने सेवा उपवन कर दिया था जो यहां लोगों के दिए जाने वाले आतिथ्य का प्रर्याय था। उस समय इसका विस्तार भवन 75,000 वर्ग फीट के क्षेत्र में स्थित है। गंगा नदी के पश्चिमी तट पर 20 एकड़ संबंधित भूमि के घिरा है। इस तरह इस जगह पर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण कार्य के लिए पहला दान आदरणीय शिवप्रसाद गुप्त जी का था राशि 1,01,000 रूपये था। जिसके लिए 20वीम शताब्दी की शुरूआत में विभिन्न रियासतों और औद्यौगिक घरानों से महामना मालवीय जी के प्रयास से ऴ उनकी प्रेरणा से कुल राशि 50 लाख जमा हुए थे।  इसी क्रम मे उनके कार्यो की सूची में देश को आर्थिक तौर पर समृद्ध करने के लिए खादी के कपड़े के निर्माण और उत्पादन के साथ ही बिक्री को बढ़ावा देने के लिए देश में पहली बार गांधी आश्रम पहला स्वदेशी निर्मित खादी कपड़ो का उत्पादन और बिक्री को बढ़ावा देने के लिए भारत में पहला गांधी आश्रम अकबरपुर में स्थापित किया गया। जिसके लिए 150 एकड़ जमीन उनके व्दारा देकर इस पुनीत कार्य का श्रीगणेश किया गया। इसके साथ ही साथ और भी कई अन्य परियोजनाओं को उन्होंने अंजाम देकर राष्ट्र की सेवा की। शिव प्रसाद गुप्ता जी एक निस्वार्थ परोपकारी व्यक्ति का सच्चा उदाहरण रहे जिन्होंने अपना जीवन वाराणासी के लोगों की सहायता करने व न्हें बुनियादी सुविधा प्रदान करने के लिए और राष्ट्रवादी भावना भरने के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने संस्कृत, फारसी और हिंदी का अध्ययन घर पर ही किया था। इलाहाबाद से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण किया और संस्कृत. फारसी और हिंदी के अध्ययन के अनुभव के आधार पर स्नातक तक के छात्रों को पढ़ाया ह हिंदी साहित्य को बल देने के लिए 1918 ईं मे ‘ज्ञानमंड़ल’ की स्थापना की । मिश्र, इंग्लैड़, आयरलैंड़, अमेरिका. जापान, कोरिया, चीन ,सिंगापुर आदि की यात्राएँ भी किए। बाबू शिवप्रसाद गुप्त 1913-14 मे जापान की यात्रा के समय उन्होंने पाया की स्वाधीन एशिया की राजधानी में उन्होंने एक ऐसी शिक्षण संस्था को देखने का सौभाग्य मिला जहां सरकारी सहायता और हस्तक्षेप से मुक्त रहते हुए सवतंत्र रूप से शिक्षा प्रदान कर रही थी। यह विचार उनके मन मे आने पर काशी में ऐसा क्यो न किया जाए जो अपनी भाषा मे हो और बिना सरकारी सहायता के युवकों के चरिक्त्र निर्माण करते हुए देश-प्रेम की भावना भरने में पूरी तरह समर्य़ हो। समय 1920 का था जब असहयोग आंदोलन में सरकारी नौकरी, सरकारी शिक्षा का बहिष्कार इस आंदोलन का लक्ष्य व अंग बना था। उचित समय पाकर उन्होंने इस विषय मे डॉ भगवान दास जी से राष्ट्रीय शिक्षा की कार्य योजना पर चर्चा की परंतु इंकार मिला फिर गांधी जी की स्वीकृति मिलने के पश्चात डॉ भगवान दास जी भी मान गए। दोनों की स्वीकृति के पश्चात उन्होंने अपनी संपति का मुल्यांकन कर अपने छोटे भाई हर प्रसाद जिनका निधन बाल्यकाल में हो गयी था। असहयोग आन्दोलनसे उपजा काशी विद्यापीठ की स्थापना 10 जनवरी 1921 को बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने की थी। काशी विद्यापीठ के प्रादुर्भाव के पीछे हिन्दुस्तान का एक लम्बा इतिहास जुड़ा हुआ है। ब्रिटिश हुकूमतके दबाव में शिक्षा व्यवस्था को लेकर व्यापक असंतोष था। असहयोग आन्दोलनके दौरान सरकारी शिक्षण संस्थाओं के बहिष्कार का निर्णय लिया गया। इस दौरान राष्ट्रीय शिक्षाविद् राष्ट्ररत्न बाबू शिवप्रसाद गुप्त के मन में स्वतंत्र शिक्षा की कल्पना ने उड़ान भरी और इस प्रकार 10 फरवरी 1921 काशी विद्यापीठ ने आकार लिया। उनके हिस्से की संपति का एक ट्रस्ट बनाया व उसको ट्रस्ट में दान दे दिया और उससे मिलने वाले ब्याज से जो लगभग चालीस हजार हर साल के सहारे स संस्था का संचालन हो सके । अन्य आय को भी वे दान कर दिया करते थे। शिव प्रसाद गुप्ता के प्रपौत्र डॉ. अंबुज कुमार गुप्त ने बताया कि बाबूजी के कार्यों के बारे में बताना, सूरज को रोशनी दिखाने के बराबर है. आजादी की लड़ाई में स्वतंत्रता सेनानियों को किसी प्रकार की समस्या न हो इसका पूरा ध्यान वह रखते थे. जेल में बंद कैदियों को का नाम पता लिख कर उनके घर हर महीने 4 रूपये भेजते थे। जिससे उनका पालन पोषण हो सके।अंबुज गुप्त ने बताया कि काशी अनाथालय  नगर निगम एवं शहीद उद्यान जैसे संस्थान भी शिव प्रसाद गुप्त की दी हुई जमीन पर ही है। डॉ. अंबुज कुमार गुप्ता ने बताया कि बाबूजी तन, मन एवं धन समाज एवं देश हित में कार्य करते हुए दान कर दिया था. लोगों को एक उपवन दिया गया है, जिसमें बापू जी ने हम लोगों को मना किया था कि किसी भी तरह का कमर्शियल कार्य न किया जाए. उसमें हम लोग से सिर्फ पौधरोपण का ही काम करते हैं। 

भारत-भारती के आराधक के रूप में पहचाना जाना ही सर्वाधिक प्रिय था. प्रसंगवश, बापू से उनकी पहली भेंट दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटेन की राजधानी लंदन में हुई. उन दिनों शिवप्रसाद गुप्त यह जानने के लिए विदेश भ्रमण पर थे कि दुनिया के स्वतंत्र देश अपनी प्रभुसत्ता की रक्षा कैसे करते हैं, उनकी शैक्षिक, सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियां किस प्रकार की हैं और पराधीन भारत उनसे कैसे और क्या-क्या सबक सीख सकता है? इस क्रम में वे यूरोप के अलावा अमेरिका व जापान जाकर वहां सक्रिय स्वतंत्रता सेनानियों व क्रांतिकारियों से भी मिले. स्वदेश लौटने के बाद उन्होंने अपने भ्रमण के अनुभवों को आधार बनाकर देशवासियों को एक सूत्र में बांधने, उनमें आत्मविश्वास पैदा करने और उन दुर्बलताओं व बाधाओं को दूर करने के कई जतन शुरू किए, जिनका लाभ उठाकर गोरे हमारा शोषण, दोहन व दमन करते आ रहे थे. दलितों व विधवाओं की हालत सुधारकर उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने और छुआछूत व जात-पात जैसी सामाजिक बुराइयां खत्म करने के लिए उन्होंने अछूतोद्धार, विधवा व अंतरजातीय विवाह के अभियानों को तन-मन-धन से प्रोत्साहित किया. उनका मानना था कि मजहब या धर्म मनुष्य की निजी संपत्ति है और उसे सांसारिक झगड़ों में डालना उसकी पवित्रता व गौरव को नष्ट करना है. अपनी प्रसिद्ध कृति ‘पृथ्वी प्रदक्षिणा’ में उन्होंने लिखा है कि संसार में जिन भी जातियों ने सांसारिक उन्नति की है, मजहब व दुनिया को अलग रखकर ही की है । यह बात बहुत कम ही लोग जानते हैं कि महामना मदनमोहन मालवीय को इलाहाबाद से वाराणसी लाकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना में प्रवृत्त करने वाले शिवप्रसाद गुप्त ही थे. इस विश्वविद्यालय की कल्पना को साकार करने में वे कदम-कदम पर मालवीय जी के सहायक रहे. उसके लिए एक लाख एक हजार रुपयों का पहला दान भी उन्होंने ही दिया. आगे चलकर शिक्षा के माध्यम के सवाल पर दोनों में मतभेद हुआ तो भी अपने आदर्शों व मान्यताओं के प्रति खासे आग्रही शिवप्रसाद गुप्त ने उसे समन्वयवादी महामना के साथ कटुता की सीमा तक नहीं जाने दिया। अपने मतभेद का सृजनात्मक इस्तेमाल करते हुए उन्होंने अलग काशी विद्यापीठ की स्थापना की, जिसका महत्तर उद्देश्य था- राष्ट्र का निर्माण और राष्ट्रीय चरित्र का विकास. असहयोग आदोलन के दौरान 1921 में 10 फरवरी को वसंत पंचमी के अवसर पर महात्मा गांधी ने इसका उद्घाटन किया तो जल्दी ह यह राष्ट्रीय आंदोलन का केंद्र बन गई. बहुत दिनों तक यह समाजवादियों के तीर्थस्थल के रूप में भी जानी जाती रही. ऐसे अनेक युवकों ने इस विद्यापीठ में अपनी पढ़ाई पूरी की, स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रियता के कारण जो उसे बीच में ही छोड़ बैठे थे. शिवप्रसाद गुप्त ने विद्यापीठ में पठन-पाठन का प्रमुख माध्यम हिन्दी को बनाया और उसे माध्यम के तौर पर सक्षम बनाने के लिए उच्च कोटि की पाठ्यपुस्तकों को छपवाया.1995 में विद्यापीठ के साथ महात्मा गांधी का नाम जोड़ दिया गया.लेकिन यह विद्यापीठ उनके द्वारा स्थापित एकमात्र संस्था नहीं है. वाराणसी के जिस अस्पताल के साथ उनका खुद का नाम जुड़ा है, उसके अतिरिक्त ज्ञानमंडल और भारत माता मंदिर भी उनके योगदान से ही स्थापित हुए. अपनी तरह के अनूठे भारत माता मंदिर का उद्घाटन 1936 में गांधी जी ने ही किया था. प्रसंगवश, ज्ञानमंडल शिवप्रसाद गुप्त के ही समय में विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखित इतिहास, राजनीति और दर्शन आदि के हिन्दी ग्रंथों के प्रकाशन का बड़ा केंद्र बन गया था. इसमें शिवप्रसाद का जोर हमेशा इस बात पर होता था कि देश तभी प्रगति के पथपर अग्रसर हो सकता है जब अध्ययन-अध्यापन में जनता की भाषा यानी हिन्दी का प्रयोग हो.अंग्रेजी भाषा में दी जाने वाली पश्चिमी ढंग की शिक्षा को वे गुलामी की शिक्षा कहते थे. उनकी इच्छा थी कि देश की शिक्षा प्रणाली अध्यात्म की नींव पर खड़ी और शिष्टता के संस्कारों से युक्त हो. सावन के सघल-घन की तरह शिवप्रसादजी सहज स्व भाव से सभी के लिए जीवन-मय-सजल थे। उनके रहते ‘सेवा उपवन’ एक विशाल अतिथि-निवास था। किसी तरह का भी गुणी हो, गुप्तेजी के मन में उसके लिए उदार आदर-भाव सुरक्षित था। विद्यार्थियों को, विद्यालयों को, समाज-सेवकों को, राष्ट्र -कर्मियों को, नेताओं को मालवीयजी और गांधीजी को बाबू शिवप्रसाद गुप्त् मुक्तेहस्त  दान दिया करते थे, वह भी भावपूर्ण भक्ति से। महामना मालवीयजी पर तो वह लोटपोट-मुग्ध् थे, उन्हेंद पिता अपने को पुत्र और गोविन्दण मालवीय को भाई कहा करते थे। मालवीयजी भी बाबू शिवप्रसाद गुप्त् को इतना मानते थे कि काशी में उन्हींह के यहाँ रहते, उन्हींग का अन्नो पाते थे। ज्ञानमण्ड्ल को ज्ञानमण्डाल बनाने में शिवप्रसादजी के लक्ष-लक्ष रुपये अलक्ष हो गए। ‘आज’ को ‘आज’ बनाने में। ‘भारतमाता का मन्दिर’ की भव्यय कल्प्ना को दिव्यआ आकार देना, काशी विद्यापीठ की बुनियाद डालना दिवंगत गुप्तरजी ही का प्रसाद है। काशी में जो भी राष्ट्री य चेतना जाग्रत हुई उसकी प्रेरणा में गांधीजी के बाद बाबू शिवप्रसाद गुप्तर ही का नाम लेना मुझे समुचित लगता है। शिवप्रसादजी के प्रसाद का पुण्या-प्रकाश सारे उत्तर प्रदेश में, खुशबू सारे देश में थी। शिवप्रसादजी इतने मोटे थे कि लगता था उनका विशाल हृदय बूझकर ही विधाता ने वह बड़ा-घर उन्हेंु बख़्ेशा था। शिवप्रसादजी का बँगला बड़ा, मोटर बड़ी, कैसे बड़े-बड़े वायलर घोड़ों की जोड़ी थी उनकी, जिसके पीछे वर्दी-धारी दो-दो साईस राहगीरों को तेज़ स्व र से सावधान करते रहते थे। शिवप्रसादजी खाने और खिलाने के भी बड़े शौकीन थे। घर की बात अलग, यात्रा में भी उनके साथ पूरा भण्डाऔरा चला करता था। काशी में आकर कोई भी बड़ा आदमी ‘सेवा उपवन’ ही में सुविधा, आतिथ्यर और सुख पाता था। अक्षरश: रईस थे श्रद्धेय शिवप्रसादजी गुप्त । ऐसे जैसे को जेल तो कदापि नहीं होना चाहिए थी। लेकिन भला अंग्रेज़ कब छोड़नेवाला था। उन्हेंा भी सीख़चों में बन्दो किया ही गया। शिवप्रसादजी-जैसे रईस को जेल देना फाँसी देने के बराबर था। हृदयहीन कानून ने ऐसा समझा ही नहीं। वह जेल ही में बीमार पड़ गए। छूटे, तो उन्हेंह फ़ालिज मार गया। फ़ालिज मार गया? शिवप्रसाद गुप्तव को? ऐसे नेक-दिल आदमी को जिसकी तुलना देवता से भी करने को मैं तैयार नहीं? तो यह सारे-का-सारा उत्तम अभियान, विधिविहित दान, सबकी पूजा, सबका सम्मावन, सबके लिए अपार मोहमय प्या र सदाचार नहीं, अपराध था? क्यों कि शिवप्रसादजी को विकराल, भयानक दण्ड  मिला— जिसे छ: महीने की फाँसी कहते हैं। जिस ‘सेवा उपवन’ में उन्होंलने सारे संसार की सेवा की थी उसी में बहुत दिनों तक वह पक्षाघात से परम पीड़ित पहियादार गाड़ी पर झुँझलाते, खुनसाते घुमाए जाते थे। वह अक्स र बनारसी बोली में व्याथा-विह्वल दोहाइयाँ दिया करते थे — ‘रमवाँ, रे रमवाँ! कौन गुनहवाँ करली रे रमवाँ!’ तो? तो क्याे बाबू शिवप्रसाद गुप्तव को भी स्व र्ग के फाटक से नहीं गुज़रने दिया गया? बाइबिल में लिखा है : सुई के सूराख़ से ऊँट निकल जाए— भले, परन्तु  धनवान स्विर्ग के फाटक से त्रिकाल में भी नहीं गुज़र सकता। देश के लिए उनके योगदान को देखते हुए भारतीय डाक विभाग उनकी स्मृति में उनके जन्मदिन पर 1988 में एक डाक टिकट भी जारी किया था। ऐसे महान स्वतंत्रता सेनानी, राष्ट्र मे हिंदी भाषा में शिक्षा के प्रति प्रेम के दूत का निधन 24 अप्रैल 1944 को हुआ । हमारी विनम्र श्रध्दांजलि।
चिरंजीव
लिंगम चिरंजीव राव 
म.न.11-1-21/1, कार्जी मार्ग
इच्छापुरम ,श्रीकाकुलम (आन्ध्रप्रदेश)
पिनः532 312 मो.न.8639945892
स्वतंत्र लेखन (संकलन व लेखन)