राजर्षि पुरषोत्तमदास टंडन जन् म01-08-1882 -जयंती..01-08-2025

“भारत रत्न (1961) पुरस्कार से सम्मानित स्वाधिनता आंदोलन के अग्रणी नेती, समाज सुधारक, कर्मठ पत्रकार और हिंदी के अनन्य सेवक पुरुषोत्तम दास टंडन।” 
(पुरुषोत्तम दास टंडन अत्यंत मेधावी और बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः तीन भागों में बँटा हुआ है- स्वतंत्रता संग्राम, साहित्य और समाज।
(हिन्दी को देश की आजादी के पहले आजादी प्राप्त करने का साधन मानते रहे और आजादी मिलने के बाद आजादी को बनाये रखने का। टण्डन जी का राजनीति में प्रवेश हिन्दी प्रेम के कारण ही हुआ।)  
      भारत के प्रमुख स्वाधीनता सेनानी राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म 01 अगस्त 1882 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज नगर में हुआ था। उनके माता- पिता के विषय मे जानकारी का अभाव है। उनकी प्रांरभिक शिक्षा स्थानीय सिटी अंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में हुई। 1894 में उन्होंने इसी विद्यालय से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी दौरान उनकी बड़ी बहन तुलसा देवी का स्वर्गवास हो गया। उस समय की रीति के अनुसार 1897 में ही स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद विवाह हो जाने की प्रथा थी और उनका विवाह मुरादाबाद निवासी नरोत्तमदास खन्ना की पुत्री चन्द्रमुखी देवी के साथ हो गया। 1899 कांग्रेस के स्वयंसेवक बने 1899 इण्टरमीडियट की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1900 में वे एक कन्या के पिता बने। तत्पश्चात उन्होंने लॉ की डिग्री हासिल कर 1906 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में (लॉ की प्रैक्टिस के लिए) काम करना शुरू किया। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के अग्रणी नेता के साथ-साथ वे एक समाज सुधारक, कर्मठ पत्रकार, हिंदी के अनन्य सेवक तथा तेजस्वी वक्ता भी थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में हुई। सन् 1899 अपने विद्यार्थी जीवन से ही वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे। 1906 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि (इलाहाबाद से) चुने गए।सन् 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड का अध्ययन करने वाली कांग्रेस पार्टी की समिति से संबद्ध थे। सन् 1920 में असहयोग आंदोलन, 1921 में सामाजिक कार्यों तथा गांधीजी के आह्वान पर स्वतंत्रता संग्राम में काम के लिए हाईकोर्ट का काम छोड़ कर वे इस संग्राम में कूद पड़े।सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में सन् 1930 में बस्ती में गिरफ्तार हुए तथा कारावास भी मिला।लंदन में आयोजित (सन् 1931 - गांधीजी के वापस लौटने से पहले) गोलमेज़ सम्मेलन में पंडित नेहरू के साथ-साथ राजर्षि टंडन को भी गिरफ्तार किया गया था। भारत की आजादी के बाद उन्होंने विधानसभा (उत्तरप्रदेश) के प्रवक्ता के रूप में 13 वर्षों तक काम किया। इस दौरान 1937 से 1950 के लंबे कार्यकाल में कई बार विधानसभा को संबोधित किया था।भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी को प्रतिष्ठित करवाने में उनका खास योगदान माना जाता है तथा देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भी उन्हें दिया गया।
टंडन जी लगातार देश के स्वतंत्रता संग्रम मे रत रहे। इसी दौरान 1940 में नजरबंद कर लिए गए और एक वर्ष की जेल काटी। अगस्त 1942 को इलाहाबाद में फिर गिरफ्तार-1944 को जेल से मुक्त यही उनकी अंतिम व सातवीं जेल यात्रा थी। संधर्ष को लक्षित करते हुए “किशोरीदास वाजपेयी” ने लिखा है ‘जब जब राष्ट्रीय संधर्ष हुए टंडन जी सबसे आगे रहे। आप खाली बैठना तो जानते ही नहीं’।  टंड़न जी का स्वतंत्रता संग्रम की लड़ाई का जज्बा कभी कम नहीं होता था. 1942 में जब जेल से छूटे तो उन्होंने देखा की चारो तरफ निराशा ही निराशा के बादल मंडरा रहे थे सभी हताश थे। अतः उन्होंने कांग्रेस प्रतिनिधि असेम्बली नामक संस्था की स्थापना कर पुनः नई चेतना जगाई, फिर प्रंतीय कमेटियाँ बनी और प्रतिनिधि असेम्बली को भंग कर दिया गया। इलाहाबाद नगरपालिका अध्यक्षता के रूप में भी उन्होंने कई साहसिक कार्य किए। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन प्रदेश विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष थे। वह हिंदी के अनन्य उपासक थे। विधानसभा में हिंदी का चलन उनके कार्यकाल में ही शुरू हुआ। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी टंडन को राजर्षि की उपाधि ब्रह्मर्षि देवरहा बाबा ने दी थी। कांग्रेस अध्यक्ष पद से जल्द त्यागपत्र दे दिया ।समझौतावादी रवैया –स्वीकार नहीं था । राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रणी पंक्ति के नेता थे। कुछ विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता प्राप्त करना उनका पहला साध्य था। हिंदी को वे साधन मानते थे- "यदि हिन्दी भारतीय स्वतंत्रता के आड़े आयेगी तो मैं स्वयं उसका गला घोंट दूँगा।" वे हिन्दी को देश की आजादी के पहले आजादी प्राप्त करने का साधन मानते रहे और आजादी मिलने के बाद आजादी को बनाये रखने का। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि टण्डन जी का राजनीति में प्रवेश हिन्दी प्रेम के कारण ही हुआ। टंडन जी ने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में हिंदी के लेक्चरर के रूप में कार्य किया उस समय अटल बिहारी वाजपेई विक्टोरिया कॉलेज के छात्र हुआ करते थे।17 फ़रवरी 1951 को  मुजफ्फरनगर 'सुहृद संघ' के 17 वें वार्षिकोत्सव के अवसर पर टण्डन जी ने कहा था- "हिन्दी के पक्ष को सबल करने के उद्देश्य से ही मैंने कांग्रेस जैसी संस्था में प्रवेश किया, क्योंकि मेरे हृदय पर हिन्दी का ही प्रभाव सबसे अधिक था और मैंने उसे ही अपने जीवन का सबसे महान व्रत बनाया। हिंदी साहित्य के प्रति मेरे (उसी) प्रेम ने उसके स्वार्थों की रक्षा और उसके विकास के पथ को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया।" अत: यह कहा जा सकता है कि टण्डन जी के साध्य स्वतंत्रता और हिन्दी दोनों ही थे। राजर्षि में बाल्यकाल से ही हिंदी   के प्रति अनुराग था। इस प्रेम को बालकृष्ण भट्ट  और मदन मोहन मालवीय जी ने प्रौढ़ता प्रदान करने की दिशा मे सहयोग रहा। 10 अक्टूवर1910 को काशी में हिंदी साहित्य सम्मेलन  का प्रथम अधिवेशन जो कि महामना मालवीय जी की अध्यक्षता में हुआ और टण्डन जी सम्मेलन के मंत्री नियुक्त हुए। तदनन्तर हिंदी साहित्य सम्मेलन के माध्यम से हिन्दी की अत्यधिक सेवा की। टण्डन जी ने हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए हिंदी विद्यापीठ प्रयाग  की स्थापना की। इस पीठ की स्थापना का उद्देश्य हिन्दी शिक्षा का प्रसार अंग्रेजी  के वर्चस्व को समाप्त करना था। सम्मेलन हिन्दी की अनेक परीक्षाएँ सम्पन्न करता था। इन परीक्षाओं से दक्षिण में भी हिन्दी का प्रचार प्रसार हुआ। सम्मेलन के इस कार्य का प्रभाव महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में भी पड़ा, अनेक महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पाठ्यक्रम को मान्यता मिली। वे जानते थे कि सम्पूर्ण भारत में हिन्दी के प्रसार के लिए अहिन्दी भाषियों का सहयोग अपेक्षित है। शायद उनकी इसी सोच का परिणाम था सम्मेलन में गाँधी  का लिया जाना। आगे चलकर हिन्दुस्तानी  के प्रश्न पर टण्डन जी और महात्मा गाँधी में मतभेद हुआ। टण्डन जी अपराजेय योद्धा थे। वे सत्य और न्याय के लिए किसी से भी लोहा ले सकते थे। अपने सिद्धान्तों पर चट्टान की तरह अडिग एवं स्थिर रहते थे। परिणामत: गाँधी जी को अपने को सम्मेलन से अलग करना पड़ा, टण्डन जी निरापद अपने मार्ग पर बढ़ते रहे।

                                            

सन् 1949 में जब संविधान सभा  में राजभाषा सम्बंधी प्रश्न उठाया गया तो उस समय एक विचित्र स्थिति थी। महात्मा गाँधी तो हिन्दुस्तानी  के समर्थक थे ही, पं. नेहरू और डॉ॰राजेनाद्र प्रसाद तथा अन्य अनेक नेता भी हिन्दुस्तानी   के पक्षधर थे, पर टण्डन जी हारे नहीं, झुके नहीं। परिणामत: विजय भी उनकी हुई। 11,12,13,14 दिसम्बर 1949 को गरमागरम बहस के बाद हिन्दी और हिन्दुस्तानी को लेकर कांग्रेस में मतदान हुआ, हिन्दी को 62 और हिन्दुस्तानी को 32 मत मिले। अन्तत: हिन्दी राष्ट्रभाषा  और देवनागरी राजलिपि घोषित हुई। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर और समर्थन पत्र भी एकत्र किए थे। यहाँ यह उल्लेख कर देना भी अपेक्षित है कि टण्डन जी ने नागरी अंकों को संविधान में मान्यता दिलाने के लिए भरसक कोशिश की। इस हेतु उन्होंने उस संस्था को छोड़ा जिसकी सेवा लगभग पाँच दशक तक की। संविधान-सभा में राजर्षि ने अंग्रेजी अंकों का विरोध किया पर नेहरू जी की हिदायत के कारण कांग्रेसी सदस्य श्रीकन्हैयालाल माणिकलाल मुशीं , श्रीगोपाल स्वामी आयंगर के फार्मूले के पक्ष में रहे। टण्डन जी का विरोध प्रस्ताव गिर गया और नागरीं अंक संविधान में मान्यता प्राप्त न कर सके। हिन्दी को राष्ट्रभाषा  और वन्देमातरम' को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिए टण्डन जी ने अपने सहयोगियों के साथ एक और अभियान चलाया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर और समर्थन पत्र भी एकत्र किए थे। 'हिन्दी राष्ट्रभाषा क्यों', 'मातृभाषा की महत्ता', 'भाषा का सवाल', 'गौरवशाली हिन्दी', 'हिन्दी की शक्ति', 'कवि और दार्शनिक' आदि विषयों पर टण्डन जी के निबंध प्रकाशित हैं।
साहित्य रचना-राजर्षि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का आंकलन करते समय प्राय: उनके साहित्यकार रूप को अनदेखा कर दिया जाता है। वह एक उच्चकोटि के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में तत्कालीन इतिहास की खोज की जा सकती है। साहित्यकार के रूप में टण्डन जी निबंधकार कवि और पत्रकार के रूप में दिखलाई पड़ते हैं।
निबन्ध-उनके निबंध हिन्दी भाषा और साहित्य, धर्म और संस्कृति तथा अन्य विविध क्षेत्रों से सम्बंधित हैं। भाषा और साहित्य सम्बंधी निबंधों में-कविता,दर्शन और साहित्य, हिन्दी साहित्य , हिन्दी राष्ट्रभाषा क्यों, मातृभाषा की महत्ता, भाषा का सवाल, गौरवशाली हिन्दी, हिन्दी की शक्ति, कवि और दार्शनिक आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।धर्म और संस्कृति सम्बंधी निबंधों में- भारतीय संस्कृति और कुम्भमेला  भारतीय संस्कृति संदेश, तथा अन्य निबंधों में लोककल्याणकारी राज्य, धन और उसका उपयोग,स्वामी विवेकानंद और सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि अति महत्वपूर्ण हैं। काव्य-काव्य रचनाओं में 'बन्दर सभा महाकाव्य', 'कुटीर का पुष्प' और 'स्वतंत्रता' अपना ऐतिहासिक महत्व रखती हैं। इन कविताओं में राष्ट्रीयता और देशभक्ति की प्रमुखता है। उनकी रचनाओं में काव्यशास्त्र की बारीकी ढूँढ़ना छिद्रान्वेषण करना ही होगा, किन्तु युगीन यथार्थ की अभिव्यक्ति टण्डन जी ने जिस ढँग से की है, वह निश्चय ही श्लाघनीय है-

                   
  एक एक के गुण नहिं देखें, ज्ञानवान का नहिं आदर,
  लड़ैं कटैं धन पृथ्वी छीनैं जीव सतावैं लेवैं कर।
  भई दशा भारत की कैसी चहूँ ओर विपदा फैली,
  तिमिर आन घोर है छाया स्वारथ साधन की शैली ॥
  अपनी अपनी चाल ढाल को सब कोऊ धर-धर छप्पर पर,
  चले लुढ़कते बुरी प्रथा पर जिसका कहीं पैर नहिं सिर।
  धनी दीन को दुख अति देवैं, हमदर्दी का काम नहीं,
  धन मदिरा गनिका में फूँकै करैं भला कुछ काम नहीं ॥
'बन्दर सभा महाकाव्य` में आल्हा  शैली में अंग्रेजों की नीतियों का भंडाफोड़ किया है। उन्होंने अंग्रेजों के प्रति जो चुटकियाँ ली हैं उनमें से एक-दो का आनन्द आप भी लीजिए-
   कबहूँ आँख दाँत दिखलावैं, लें डराय बस काम निकाल।
   कबहूँ नम होय सीख सुनावैं, रचैं बात कै जाल कराल ॥1॥
   ऐसे वैसे तो डर जावैं या फँस जावैं हमारे जाल।
   जौने तनिक अकड़ने वाले तिनके लिए अनेकन चाल ॥2॥
पत्रकारिता – पत्रकारिता के क्षेत्र में टण्डन जी अंग्रेजी के भी उद्भट विद्वान थे। श्रीत्रिभुवन नारायण सिंह जी ने उल्लेख किया है कि सन् 1950 में जब वे कांग्रेस के सभापति चुने गए तो उन्होंने अपना अभिभाषण हिन्दी में लिखा और अंग्रेजी अनुवाद मैंने किया। श्रीसम्पूर्णानंद जी ने भी उस अंग्रेजी अनुवाद को देखा, लेकिन जब टण्डन जी ने उस अनुवाद को पढ़ा, तो उसमें कई पन्नों को फिर से लिखा। तब मुझे इस बात की अनुभूति हुई कि जहाँ वे हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान थे, वहीं अंग्रेजी साहित्य पर भी उनका बड़ा अधिकार था।
भारतीय संस्कृति से प्रेम- पुरुषोत्तमदास टण्डन के बहु आयामी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को देखकर उन्हें 'राजर्षि` की उपाधि से विभूषित किया गया। 15 अप्रैल सन् 1948 की संध्यावेला में सरयू तट पर वैदिक मंत्रोच्चार के साथ महन्त देवरहा बाबा ने आपको 'राजर्षि` की उपाधि से अलंकृत किया। कुछ लोगों ने इसे अनुचित ठहराया, पर ज्योतिर्मठ के श्री शंकराचार्य  महाराज ने इसे शास्त्रसम्मत माना और काशी की पंडित सभा ने 1948 के अखिल भारतीय सांस्कृतिक सम्मेलन के उपाधि वितरण समारोह में इसकी पुष्टि की। तब से यह उपाधि उनके नाम के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई स्वयं अलंकृत हो रही है। भारतीय संस्कृति के परम हिमायती और पक्षधर होने पर भी राजर्षि रूढ़ियों और अंधविश्वासों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों एवं कुप्रथाओं पर भी अपने दो टूक विचार व्यक्त किये। उनमें एक अद्भुत आत्मबल था, जिससे वे कठिन से कठिन कार्य को आसानी से सम्पन्न कर लेते थे।बालविवाह और विधवा विवाह के सम्बंध में उनका मानना था कि "विधवा विवाह का प्रचार हमारी सभ्यता, हमारे साहित्य और हमारे समाज संगठन के मुख्य आधार पतिव्रत धर्म के प्रतिकूल हैं" उन्होंने स्पष्ट किया कि विधवा-विवाह की माँग इसलिए जोर पकड़ रही है, क्योंकि हमारे समाज में बाल विवाह की शास्त्र विरुद्ध प्रणाली चल पड़ी है और बाल विधवाओं का प्रश्न ही भारतीय समाज की मुख्य समस्या है। अत: "बाल-विवाह की प्रथा को रोकना ही विधवा विवाह करने की अपेक्षा अधिक महत्व का कर्तव्य सिद्ध होता है।"
उनके व्यक्तित्व के इस पहलू के एक-दो उदाहरण पर्याप्त होंगे- प्राय: लोग समझते हैं कि पका हुआ भोजन सुपाच्य होता है, पर राजर्षि ने इसे एक रूढ़ि माना और उन्होंने वर्षों तक आग से पके हुए भोजन को नहीं ग्रहण किया। चीनी खाना एक बार छोड़ दिया। एक ओर उन्हें गाय के दूध से परहेज था तो दूसरी ओर चमड़े के जूते से। इस प्रकार वे एक अद्भुत व्यक्तित्व के धारक थे।
भारतवर्ष में स्वतंत्रता के पूर्व से ही सांप्रदायिकता की समस्या अपने विकट रूप में विद्यमान रही। कुछ नेता टण्डन जी पर भी सांप्रदायिक होने का आरोप लगाते रहे हैं। यह सच है कि राजर्षि अपनी संस्कृति के परम भक्त और पोषक थे। वे यह कहने में भी हिचक का अनुभव नहीं करते थे कि भारत में दो संस्कृतियों को जीवित रखना देश के साथ विश्वासघात करना होगा, पर इसका मतलब यह नहीं था कि टण्डन जी साम्प्रदायिक थे, मुसलिम विरोधी थे। इस सम्बंध में कुलकुसुम के विचार कितने सार्थक हैं-
“”यदि किसी धर्म या संस्कृति में कोई व्यक्ति विशेष आस्था रखता है, तो उसके विरोधी प्राय: यह समझने की भूल कर बैठते हैं कि वह आदमी अन्य धर्मों तथा संस्कृतियों का शत्रु है। यही बात राजर्षि टण्डन के साथ हुई। उनके अनन्य हिन्दी प्रेम, भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं की एकनिष्ठा, आस्था और साधुओं के से वेष-विन्यास को देखकर उनके विरोधियों ने जान बूझकर या अनजाने ही यह प्रचार करने की भूल कर दी कि टण्डन जी मुसलमानों के शत्रु हैं।“”
स्वयं टण्डन जी ने भी लिखा है—“”मेरे हिन्दी के काम के कारण लोगों ने मुझे मुसलमान भाइयों का मुखालिफ समझ लिया। इन लोगों को यह नहीं मालूम कि बहुत से मुसलमान मेरे कितने अच्छे दोस्त हैं। मेरे सामने यदि कोई मुसलमान के साथ अन्याय करे, तो मैं उसके पक्ष में जान की बाजी लगा दूँगा। “” वास्तव में टण्डन जी का व्यक्तित्व मानववादी था। उनके घर पर जो बालक उनका सहयोग करता था, वह मुसलमान था, पर कैसी विडम्बना है कि लोग कहते हैं कि टण्डन जी साम्प्रदायिक थे।
राजर्षि टंडन का त्यागपत्र- इसी विषय मे पं. गोविंन्द वल्ल्भ भाई पंत ने अपने भाषण 5नवम्बर 1947 को उस समय दिया था, जिस समय मुस्लिम लीग की ओर से टंडन जी के विरूध अविश्वास का प्रस्ताव रखने की सूचना दी गयी थी और टंडन जी ने भी अपने त्यागपत्र देने के निर्णय को विधान सभा में घोषणा कर दी थी। इस तरह पंत जी ने इस पर विचार रख टंडन जी को ऐसा करने से रोक लिय़ा।
1961 में उन्हें भारतवर्ष का सर्वोच्च राजकीय सम्मान भारत रत्न  प्रदान किया गया। उनकी स्मृति को अक्षुण बनाये रखने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके नाम परउत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविदयालय की स्थापना की स्थापना की है। उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ  उनकी स्मृति में चार लाख रूपये का "राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन सम्मान" प्रदान करता है। एक विशेष बात..भारत सरकार द्वारा सन् 1961 में 'भारत रत्न' की उपाधि से विभूषित किया गया। भारत रत्न के विषय में। एक बडे साहित्यकार वियोगी हरि जी ने अपने संस्मरण में लिखा..सुमित्रानंदन पंत को ‘’पदम भूषण ‘’.उन्हें ये बात अपने भारत रत्न मिलने की उतनी खुशी नहीं थी जितनी पंत जी को ‘भारत रत्न’’ न मिलने का दुख। इनके जीवन के तीनों कार्यक्षेत्रों में(राजनैतिक-स्वतंत्रता संग्राम, साहित्यिक व समाज) जिसके लिए वे हमेशा अपना पूरा श्रेष्ठ देकर जीवन को भारतवर्ष की अस्मिता के सात अपने को जोडते रहे उनका राजनैतिक क्षेत्र की विविधता व विशालता के अनेक आयाम हमनें देखे, साहित्य का क्षेत्र भी उतना कम नही उनके निबंध बहुत ही सार्थक रहे इसी तरह सामाजिक सरोकार की बातें आचार विचार के प्रति सजग रहते हुए जीवन मे कभी भी न गलत किया और न किसी गलत के साथ समझौता किया ऐसे महान व कर्मशील व्यक्तित्व के पोषक को हमारा नमन। ऐसे महान कर्मयोगी, 'राजर्षि' के नाम से विख्यात, स्वतंत्रता सेनानी पुरुषोत्तम दास टंडन जी का 1 जुलाई 1962 को निधन हो गया। आज इनके 143 वीं जयती पर हमारी विनम्र श्रध्दांजलि।   

चिरंजीव 
लिंगम चिरंजीव राव 
म.न.11-1-21/1, कार्जी मार्ग
इच्छापुरम ,श्रीकाकुलम (आन्ध्रप्रदेश)
पिनः532 312 मो.न.8639945892
स्वतंत्र लेखन (संकलन व लेखन)