‘परसाई –शताब्दी वर्ष’
हरिशंकर परसाई- भारतीय हिंदी साहित्य मे व्यंग्य के हस्ताक्षर
जयंती-      22-08-2023 
पुण्यतिथि-10-08-2023
इनका जन्म 22-08-1924 को इटारसी के पास जमानी ग्राम,जिला-होशंगाबाद, मध्यप्रदेश(भारत) मे हुआ था।
एक साहित्यकार जिसने नौकरी का मोह छोडकर स्वतंत्र लेखन को ही जीवनचर्या के रूप मे चुना है, ऐसे थे परसाई जी बहुत उतार-चढाव के बाद स्थापित हुए हरिशंकर परसाई जी इनको व्यंग्य लेखक कहा जाता है,परंतु व्यंग्य किस पर और क्यों के बीच और कितना तीखा ।इन शब्द हथियार से घायल होने वाले कौन । बहुत सी बातें है। एक व्यंग्यकार तो अपनी सामाजिक समझ,जिम्मेदारी और अपने आम आदमी के साथ खडे होने की तैयारी मे दूसरे लेखकों से अधिक सतर्क,दृष्टिवान और योध्दा होता है।न गंभीर चुनौतियों का सामना परसाई जी ने बखूबी किया ।इनके व्यंग्य की शिष्ठता का सम्बंध उच्चवर्गीय मनोरंजन से न होकर समाज मे सर्वहारा की उस लडाई से अधिक है जो आगे जाकर मनुष्य की मुक्ति में जुडती है।
विश्व के जाने माने व्यंग्य लेखन के अग्रर्णी आदरणीय स्वर्गीय हरिशंकर परसाई जी का रचना संसार व्यापक है।व्यापकता इतनी गहन है कि जब साहित्य और कलाओं को ‘’मीडिया’’ को आचरण से हासिए पर धकेलने की कोशिश हो रही थी, फिर भी कभी इसका असर कभी न उनपर व उन पर होने वाले प्रकाशन पर देखने को मिला निर्बाध रूप से प्रकाशन का कार्य जारी रहा । इनके जन्म से लेकर उनके पूरे जीवन काल के साथ साथ उनकी साहित्य यात्रा के अनेक पहलुओ पर जब परसाई जी से बहुत से प्रश्न पुछे जाते रहे तो खुद उन्होंने बहुत सी बातों का खुलासा किया है ।जिसका विस्तृत विवरण वर्तमान मे (आकाशवाणी के प्रसार भारती अभिलेखागार, भारत का लोकसेवा प्रसारक के तीन भागों मे यू-ट्यूब मे संक्षिप्त रूप में परसाई जी के जवाब एक तरह का साक्षात्कार उपलब्ध है। साक्षात्कार डॉ श्यामसुंदर मिश्र जी व्दारा किया है ) ।बहुत सी बातों का विस्तृत विषलेषण के साथ। अन्य जीवन यात्रा के अनछुए आयामों से जब हमारी मुलाकात होती है तो केवल और केवल सत्य के साथ संधर्ष करता एक ऐसा लेखक जिनकी सुक्तियाँ सिर्फ सार तत्व नहीं है ,बल्कि वे सुक्तियाँ असंभव चित्रात्मकता के साथ खडी होकर विद्रुप को उजागर करती है और दो स्थितियों के टकराव को आमने सामने रखकर सत्य का संधान करती है । उनमें एकसाथ कटाक्ष,पीडा,सत्य और रहस्य के अनावरण जैसी दुर्लभ स्थितियां सहज ही उपलब्ध हो जाती है ।इसके अलावा इन्होंने समाज को अपनी व्यंग्य की भाषा से सत्य को उजागर करते हुए लोगो को इससे उनकी पहचान कराई है और जनमानस के समक्ष ला छोडा है कि साहित्यिक समाज का हर मानव इनकी ऐसी व्यंग्यात्मक शैली का कायल है ।इनकी लेखनी के हर पक्ष पर हम अगर नजर डाले तो एक सामान्य पाठक के लिए इनके व्यंग्य लेखन की विधा मे जितनी भी किताबें आज उपलब्ध है।प्रायः सभी के साथ इनकी रचनावली के चार खण्ड और विशेषकर उनकी एक कृति ‘’पूछो परसाई से’’ देखे तो  एक विशाल विस्तार लिए भारतीय राजनीति,नौकरशाही और सामाजिक(रीति-रिवाजों के पाखंडों और बेहुदगी का मजाक उडाया),उन्हें विडबंना और कटाक्ष के उपयोग के लिए भी जाना जाता है ।  और अन्य सभी क्षेत्रों को बहुत ही बारिकी से अवलोकन कर उनके साथ न्याय करते हुए पाठक तक अपनी लेखनी के माध्यम से रखा है । हास्य-व्यंग्य संकलन,निबंध-संग्रह,उपन्यास और कहानी संग्रह इसके प्रमुख विंकलाग श्रध्दा का दौर(साहित्य एकादमी व्दारा पुरस्कार प्रप्त) ,पगडंडियों का जमाना,तुलसीदास चंदन धीसे,आवारा भीड के खतरे,रानी नागफनी की कहानी,हंसते है रोते है आदि।मानवीय दुखः एवम् पीडा को अनुभव किया ,समाज मे व्याप्त विसंगतियों को देखा परखा और अपनी व्यंग्य रचनाओं के माध्य से सजग रहते हुए सक्रियता भी दिखाई।  
हरिशंकर परसाई जी ने अपने समकालीन साहित्यकारों के बारे मे उनके अपने विचार दिए जो जुलाई-अक्टूबर2014(प्रकाशित नवंबर2014)

उदभावना के साभारः-
(इनमे कुछ के बारे मे विवरण प्रस्तुत कर रहा हूँ) 

अज्ञेय-साहित्य में भी अखिल भारतीय कीर्तिवाले बडों से मैं अकारण मिलने की कोशिश नहीं करता था।उन दिनों साहित्य तीर्थराज प्रयाग था ।मैं वहाँ अक्सर जाता था ।पर मेरी यह आदत नहीं है कि तीर्थ गए है तो हर मंदिर,और पडिया मे जाकर नारियल फोडूँ। सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायायन ‘अज्ञेय  ‘ से आज तक मेरी दुआ-सलाम नहीं हुई ।देखा कई बार है ।इसका कारण मेरा अंहकार नहीं है।संकोच है।‘अज्ञेय  ‘ मुझे चित्र-से और सामने भी एक उदास दार्शनिक लगते है ,जिनके बंद होंठ  है। मैं उनसे मिलने जाता और वे बाईसवीं सदी के मनुष्य की चिंता मे लीन हो जाते ,तो मै. क्या बात करता ।वैसे भी लेखको से बात करना मेरे लिए कटीन है ।
मैथलीशरण गुप्तः-मैथलीशरण गुप्त से भी कभी नहीं मिला ।उनके बारे मे कहा जाता था कि कोई लेखक उनसे मिलने जाता था तो बाहर उनका कोई भाई या भतीजा मिलता था ।वह लेखक से पूछता था-हिंदी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य कौन सा है?यदि लेखक ‘कामायनी’ का नाम ले देता और ‘साकेत’ का नहीं तो उससे वहाँ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था ।
अश्कः-प्रयाग मे अश्क जी से मिलना एक विशिष्ठ अनुभव है-अपने को कुछ नहीं बोलना पडता। वे ही बोलते है और अपने बारे में बोलते है ।पूरी किताब सुना जाते है ।उनके पासबैठने से सबसे बडी पाप्ति यह होती है कि सारे लेखकों की बुराई मालूम हो जाती है,और उनकी नई से नई कलंक-कथा आप जान जाते है ।‘अश्क’ बडे प्रेमी,मेहमाननवाज आदमी है,पर मेहमान पर एहसान का बोझ नहीं छोडते।मेहमान के जाने के बाद उसकी निंदा व उपहास करके ‘पेमेंट’ वसूल कर लेते है ।
जैनेंद्रः- जैनेंद्र जी से चार-पाँच बार की मुलाकात है।उनसे मजेदार नोक-झोंक होती है।एक बार दिल्ली मे अफ्रो-एशियाई शांति सम्मेलन मे गया था ।बाहर निकल रहा था कि जैनेंद्र जी चादर संभाले मिले मैनें कहा-जैनेंद्र जी, आप यहाँ कैसे?उन्होंने जवाब दिया –अरे भाई,सुना कि तुम लोग आए हो तो मैं भी  गया ।मैनें कहा-आपकी कार कहाँ है ?वे बोले मेरे पास कार कहाँ है ?मैनें कहा-अज्ञेय के पास तो है।उन्होंने कहाँ कहाँ अज्ञेय - कहाँ मैं ।मै तो गरीब अदमी हूँ ।उस समय जैनेंद्र ऋषि दुर्वासा की तरह लग रहे थे ।सामने ‘अज्ञेय’ होते तो भस्म हो जाते। फिर जैनेंद्र संत की कुटिल मुद्रा मे बोले-इस सम्मेलन में ने के लिए तुम्हें रूस से बहुत पैसा मिला होगा ।मैनें कहा-जी हाँ ,इस सम्मेलन को बिगाडने के लिए के लिए जितना पैसा सी.आई.ए से आपको मिला है ।

य़शपालः- यशपाल जी से मेरी मुलाकात इलाहाबाद मे कराई गई तो मैं अचकचा गया ।मै हाथ जोडकर बहुत झुका उनके सामने ,परंतु यशपाल ने और भी झुककर मेपे हाथ पकड लिए और बोवे-महारज,महाराज ! मैं कब से आपसे मिलने को उत्सुक हूँ ,कि आप मिले ।मैं संकट मे पड गया ।मुझे पता नहीं,शायद वे हर एक को महाराज कहते हों।खैर, यह भ्रम तो हुआ नहीं कि य़शपाल मेरा प्रतिभा के आगे इतने झुक गये ।इतना बेवकूफ मैं कभी नहीं रहा। इसके पहले मुझे कई लोग वाल्टेयर,बर्नाढ शा,मोलियर,चेखव आदि कह चुके थे और उल्लू नहीं बना था।उल्लू  बन जाता तो लिखने-पढने मे इतनी मेहनत न करता ।मुझे इतना जरूर लगा कि यशपाल मेरा लिखा हुआ पडते है और उस पर घ्यान देते है और उसका मूल्य भी आँकते है ।उन्होंने लगभग आधा-पौन घंटे मेरी कहानियों के बारे मे चर्चा की । यशपाल जब बी मिलते, यही कहते –अरे महराज ,अरे महराज! वे तमाम विषयों पर बाते करते थे-इतिहास पर,राजनीति पर ।1979 की मेरी नसे अंतिम भेंट याद रखने योग्य है ।उत्तर प्रदेश हिंदी परिषद का पुरस्कार लेने लखनऊ गया था । य़शपाल भी पुरस्कार लेने आए ।विशाल हाल में संयोग से मेरी उनकी कुर्सी साथ लगी हुई थी ।मै बैठा तो उन्होंने कहा-अरे महराज, आ गए।फिर बातचीत शुरू हो गई ।हाल पूरा भरा था ।करीब पाँच सौ लेखक और करकारी अधिकारी होंगे ।माइक से घो,णा होने लगी-अब राज्यपाल महामहिम डॉ.रेड्डी पधार रहे है ।सारे लोग खडे हो गए ।पर संयोग से एक ही भावना के कारण यशपाल और मैं बैठे रहे । आसपास के लोग खडे होने के लिए कहते रहे ,पर हम नहीं उठे। राज्यपाल हमारे बगल से निकल कर मंच पर पहुंच गए ।यशपाल ने कहा-बहुत ठीक किया महराज! आखिर हम क्यो खडे हों ।होगा कोई गवर्नर ।बहुत-से होते है ।निकल जाएगा।इसके बाद राष्ट्रगीत शुरू हुआ तो यशपाल ने खडे होते हुए कहा-अब खडे होंगे।यह राष्टर्गीत है ।
हजारी प्रसाद व्दिवेदीः- व्दिवेदी जी में अगाध पांडित्य,इतिहास-बोध,सांस्कृति समझ,तर्क-क्षमता और विकट रचनात्मक प्रतिभा थी ।उनकी चिंता ऐतिहासिक चिंता थी,वे सभ्यता के संकट को समझते थे और मनुष्य की नियति को हस्तामलकवत् देखते थे ।कबीर की तरह फक्कड थे।बहुत विनोदी भी।वे मजाक करते थे और ठहाका लगाते जाते थे। लगता था,वे कह रहे है- ‘साधो,देखो जग बौराना !’ मुझसे मिलकर वे खुश होते थे ।मुझे अचरज और हर्ष होता था,जब वे मेरी कहानियों का उल्लेख करते थे ।उन्हें मेरे निबंधों के पैराग्राफ याद थे ।उनके पास बैठकर लगता था कि इनकी ज्ञान-गरिमा कितनी सहज और कितनी विस्वासदायनी है ।जब भी उनसे भेंट होती ,हँसी और ठहाकों का लंबा दौर चलता । एक बार वे हमारे विश्वविधालय आए।मुझे हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. उदयनारायण तिवारी का संदेश मिला कि व्दिवेदी जी ने कहा है कि शाम को परसाई को जरूर बुला लेना ।मैं शाम पहुँचा ।उनका भाषण शुरू हो चुका था ।विषय था ‘वाणी और विनायक धर्म’ ।डेढ घंटे के पांडित्यपूर्ण भाषण के बाद बाहर निकले ,तो मैं मिला। उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा-‘ ज्ञान से दुनिया का काफी नाश कर चुके। चलो  कहीं बैठकर गप्प ठोकेगें। ‘हम लोग डॉ.उदयनारायण तिवारी के घर बैठे ,जहां डॉ.राजबली पांडेय और चार-पाँच और आचार्य आ गए और दो घंटे अट्टहास होता रहा। इनके साथ और भी मुलाकाते होती रही । 

जिस तरह परसाई जी ने अपने समकालीन साहित्कारों से अपनी मुलाकातों के संस्मरण विचारों के माध्यम से पाठकों के साथ साझा किया उनकी साफगोई व बातों को पूरी स्पष्टता के साथ सहज भाव से रखना बहुत ही लाजवाब है । 
हर तरह से परसाई जी को उनके विभिन्न लेखनों के माध्यम से हम सभी ने विगत अनेक वर्षों से व्यंग्य को देखा,पढा और जाना है।गुरू परसाई जी के व्यंग्य बांण(अरूण पाण्डेय) संग्रह से कुछः-
()जिस आदमी को खुश रखना है,उसकी बीमारी मे रोज उससे मिलने जाना चाहिए
()तकदीर निकम्मेपन,अंधविश्वास और बेवकूफी का नाम है ।
()शासन की हिंसा संवैधानिक बन जाती है।
()प्रशंसा के जाल से बचना आसान नहीं ।
()बडे की हिंसा अहिंसा होती है ।
आज हमारे बीच नहीं रहे - महाप्रयाण- 10-08-1995 संस्कारधानी जबलपुर मध्यप्रदेश जो उनके लंबे समय की कर्मस्थली रही । 
आज हम इनको, इनके साहित्य के माध्यम से स्मरण करते हुए इनकी लेखनी के प्रति कृत्ज्ञता प्रकट करते हुए । 
सादर नमन के साथ विनम्र श्रध्दांजलि.   

संकलन और लेखन  
लिंगम चिरंजीव राव