पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जन्म-27/05/1894 जयंती-27/05/2025

“सरस्वती पत्रिका के कुशल संपादक, साहित्य वाचस्पति और मास्टर जी के नाम से जाने जाने वाले पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी प्रसिध्द आलोचक ललित निबंधकार थे । “साहित्य जगत् में 'साहित्यवाचस्पति पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी' का व्यक्तित्व उनकी कृतियों में स्पष्ट परिलक्षित होता है। बख्शी जी मनसा, वाचा, और कर्मणा से विशुद्ध साहित्यकार थे। मान, सम्मान, पद, प्रतिष्ठा या कीर्ति की लालसा से कोसों दूर निष्काम कर्मयोगी की भाँति पूरी ईमानदारी और पवित्रता से निश्छल भावों की अभिव्यक्ति को साकार रूप देने की कोशिश में निरन्तर साहित्य सृजन करते रहे। व्दिवेदी युग के प्रमुख साहित्यकारों में से एक श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का जन्म मध्य प्रदेश के एक छोटे से कस्बे खैरागढ़ में 27/05/1894 को हुआ था। जब जन्म हुआ उस समय खैरागढ़ मध्य प्रदेश के राजनांदगांव जिले मे आता था। वर्तमान में खैरागढ़ छतीसगढ़ राज्य का एक अलग जिला है ।पिता पुन्नालाल बख्शी जो खैरागढ़ के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। माता का नाम मनोरमा देवी और बाबा श्री उमराव बख्शी साहित्य-प्रेमी और कवि थे। माता जी भी साहित्य में बहुत अधिक रूचि रखती थी। पूरा परिवार साहित्यमय था जिसका प्रभाव इन पर बाल्यकाल से ही पढ़ने लगा था। खैरागढ़ वही स्थान है, जहां एशिया का पहला संगीत व कला विश्वविद्यालय स्थापित है परंतु  इस विश्वविद्यालय की स्थापना व ख्याति से पहले ही बख्शी जी के कारण खैरागढ़ विश्व में प्रसिध्द हो गया था। साहित्य के सूर्य की तरह प्रकाश बिखरने वाले हमारे स्वर्गीय डॉ पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी की 27/05/2025 को उनकी 131वीं जयंती है । इनकी शिक्षा के दौरान जब वे खैरागढ़ में प्रायमरी की शिक्षा।1911 में य़ह मैट्रिकुलेशन की परीक्षा मे बैठे पर असफल रहे अगले वर्ष1912 में उन्हें सफलता मिली। 1911 में मैट्रिकुलेशन परीक्षा के आवेदन के समय उस स्कूल के हेड़मास्टर एन.ए.गुलामअली के निर्देशन से उनके नाम के आगे पिता का नाम पुन्नालाल को साथ जोड़ा गया फिर तो यह आज भी उसी नाम से जाने जाने लगे। उन्होंने किशोरावस्था से ही अपना जीवन साहित्य की सेवा में लगा दिया था। आधुनिक हिंदी साहित्य व साहित्यिक पत्रकारिता की उपासना में वे कुछ इस कदर डूबते चले गये परिणाम स्वरूप अपनी शिक्षा जो वे एल एल बी करने की इच्छा रखते थी पूर्ण न हो सकी केवल बी ए(1916 मे पूर्ण कर सके) उससे संतोष करना पड़ा जो उन्होंनें बनारस के सेंट्रल कालेज में पूर्ण की। इसी बीच उनका विवाह 1913 में लक्ष्मी देवी जी से हो गया। साहित्य की अथक साधना व समयाभाव ने उन्हें अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी नहीं करने दी। हम सभी साहित्य प्रेमियों के लिए ऋषितुल्य साहित्यकार डॉ पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की 131वीं जयंती पर उन्हें कोटि-कोटि नमन है। उनके शिक्षण के दौरान का एक प्रसंग उनको गुरू के रूप में मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री रहे पंड़ित रविशंकर शुक्ल का उन्हें गुरू के रूप में सानिध्य भी मिला पर एक बार 1903 के समय था पारिवारिक साहित्यिक वातावरण से प्रभावित होकर मायालोक से परिचित हुए। देवकीनंदन खत्री जी के चर्चीत उपन्यास चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति के प्रति विशेष आसक्ति के कारण बख्शी जी अपने विद्यालय से भाग गए थे। तब उनके हेड़मास्टर रहे पंड़ित रविशंकर शुक्ल के हाथों बेत की मार का स्वाद चखना पड़ा जमकर पिटाई का भी आनंद मिला। प्रारंभ से ही प्रखर पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी की प्रतिभा को खैरागढ़ के ही इतिहासकार लाल प्रद्युम्न सिंह जी ने समझा एवं बख्शी जी को साहित्य सृजन के लिए प्रोत्साहित किया और यहीं से साहित्य की अविरल धारा बह निकली। 1911 मे जबलपुर की “हितकारिणी” मे बख्शी की प्रशम कहानी “तारिणी” प्रकाशित हुई। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी ने अध्यापन से लेकर संपादन तक के क्षेत्र में उनकी लंबी यात्रा का हर कदम उल्लेखनीय रहा हैं। उन्होंने कविता, कहानी, निबंध, उपन्यास, आलोचना, यात्रा संस्मरण सभी विधाओं पर लिखा है। किंतु उनके निबंधों ने उन्हें विशेष ख्याति दिलाई है। पर ये भी सत्य है कि उनके साहित्य के अनुरागी इनकी हर विधा के प्रशंसक रहे हैं। यही कारण है कि बख्शी जी का साहित्य आज भी उतना ही लोकप्रिय है। उनका पहला निबंध ‘सरस्वती में सोना निकालने वाली चींटियां’ नाम से प्रकाशित हुआ था। बीए पास करने के बाद उन्होंने राजनांदगांव में 1916 से संस्कृत शिक्षक के रूप में सेवाएं दीं। वर्ष 1919 तक वे यहीं नियुक्त रहे। फिर वर्ष 1929 से 1949 तक खैरागढ विक्टोरिया हाईस्कूल में अंग्रेजी शिक्षक के रूप में पढ़ाया। कुछ समय तक वे कांकेर जिले में भी अध्यापन करते रहे। वर्ष 1920 में वे सरस्वती के सहायक संपादक बने और एक वर्ष के भीतर ही 1921 में वे सरस्वती के प्रधान संपादक बना दिए गए। 1925 में उन्होंने स्वेच्छ से अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। 1952 से 1956 तक उन्होंने महाकौशल के रविवारीय अंक का संपादन किया। 1955 से 1956 तक खैरागढ में ही रहकर सरस्वती का संपादन कार्य भी किया। 10 अगस्त 1959 को दिग्विजय कॉलेज राजनांदगांव में हिंदी के प्रोफेसर बने और जीवनपर्यंत यहीं कार्य करते रहे। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने अपने साहित्यिक जीवन का शुभारम्भ कवि के रूप में किया था। 1916 से 1925 तक इनकी स्वच्छन्दतावादी प्रकृति की कविताएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। बाद में 'शतदल' नाम से इनका एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को वास्तविक ख्याति आलोचक तथा निबन्धकार के रूप में मिली। कुछ वर्षों तक 'छाया' (इलाहाबाद ) के भी सम्पादक रहे।
 

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की प्रमुख रचनाएँ -

बख्शीजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। ये महान्‌ आलोचक, उपन्यासकार, कुशल कहानीकार और श्रेष्ठ निबन्धकार थे।

उनकी कृतियाँ निम्नलिखित हैं-

(1) निबन्ध-संग्रह: ‘प्रबन्ध पारिजात’, ‘पंचपात्र’, ‘पद्मवन’, ‘मकरन्द बिन्दु’, ‘कुछ बिखरे पन्ने’, ‘मेरा देश’ आदि।
(2) कहानी-संग्रह: ‘झलमला’, ‘अज्जलि’।
(3) आलोचना: ‘विश्व साहित्य’, ‘हिन्दी साहित्य विमर्श’, ‘साहित्य शिक्षा’, ‘हिन्दी उपन्यास साहित्य’, ‘हिन्दी कहानी साहित्य’, ‘विश्व साहित्य’, ‘प्रदीप’ (प्राचीन तथा अर्वाचीन कविताओं का आलोचनात्मक अध्ययन), ‘समस्या’, ‘समस्या और समाधान’, ‘पंचपात्र’, ‘पंचरात्र’, ‘नवरात्र’, ‘यदि मैं लिखता’।
(4) नाटक: ‘अन्नपूर्णा का अनुवाद’ (मौरिस मैटरलिंक के नाटक ‘सिस्टर बीट्रि’ का अनुवाद), ‘उन्मुक्ति का बंधन’ (मौरिस मैटरलिंक के नाटक ‘दी यूजलेस डेलिवरेन्स’ का अनुवाद)।
(5) काव्य-संग्रह: ‘शतदल’, ‘अश्रुदल’, ‘पंच-पात्र’।
(6) उपन्यास: ‘कथाचक्र’, ‘भोला’ (बाल उपन्यास), ‘वे दिन’ (बाल उपन्यास)।
(7) आत्मकथा-संस्मरण: ‘मेरी अपनी कथा’, ‘जिन्हें नहीं भूलूँगा’, ‘अंतिम अध्याय’।
(8) साहित्य समग्र: ‘बख्शी ग्रन्थावली’ (आठ खण्डों में)। इनका संक्षिप्त विवरणः- बख्शी को समझना इतना आसान भी नहीं है, लेकिन हमने उस धरोहर को एक पुस्तक की शक्ल में प्रस्तुत किया है ।

बख्शी ग्रन्थावली-1(कविताएँ,नाटक/एकांकी, उपन्यास) : साहित्य जगत में 'साहित्यवाचस्पति पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी' का प्रवेश सर्वप्रथम कवि के रूप में हुआ था । कहा जाता है कवि का व्यक्तित्व जितना सर्वोपरि होगा साहित्य के लिए उतना ही महत्वपूर्ण भी । बख्शी जी इस कसौटी पर खरे उतरते हैं ।  उनकी रचनाओं में उनका व्यक्तित्व स्पष्ट परिलक्षित होता है ।  बख्शी जी मनसा, वाचा, और कर्मणा से विशुद्ध साहित्यकार थे । मान प्रतिष्ठा पद या कीर्ति की लालसा से कोसों दूर निष्काम कर्मयोगी की भाँति पूरी ईमानदारी और पवित्रता से निश्छल भावों की अभिव्यक्ति को साकार रूप देने की कोशिश में निरन्तर साहित्य सृजन करते रहे । उपन्यास के प्रेमी पाठक होने पर भी अपने को असफल कहते । लेकिन इनके उपन्यासों को पढ़ कर कोई यह नहीं कह सकता कि बख्शी जी असफल उपन्यासकार हैं । इस खण्ड में पाठकों के समक्ष उनकी  कविताएँ, नाटक/एकांकी, उपन्यास और कुछ अनूदित रचनाएँ प्रस्तुत की गयी हैं । बख्शी ग्रन्थावली-2(कथा साहित्य-बाल कथाएँ):  इस खण्ड में बख्शी जी का कथा साहित्य और बाल कथाएँ संकलित हैं बख्शी जी की 'बालकथा माला' में छोटी-छोटी कहानियाँ हैं  वे कहानियाँ अध्ययन की परिपक्वता एवं लोक कथाओं पर आधारित जीवन को सही दिशा दिखाने में सक्षम कथा-साहित्य संग्रह हैं । 1916 में बख्शी जी की पहली मौलिक कहानी 'झलमला' सरस्वती में प्रकाशित हुई थी । बख्शी जी के कथा-साहित्य में छत्तीसगढ़ की संस्कृति रची-बसी है। त्योहारों की झलक बख्शी जी के कथा-साहित्य में सर्वत्र दिखाई देती है । छत्तीसगढ़ में 'अखती' (अक्षय तृतीय) का त्योहार मनाया जाता है । बख्शी जी की 'गुड़िया' कहानी में उसका जीवन्त रूप दिखाई देता है । 'एक कहानी की रचना' में बख्शी जी रोबिंसन क्रूसो की तुलना करते हुए छत्तीसगढ़ की महानदी एवं यहाँ काल्पनिक वातावरण और 'हलचली' (कमरछठ) त्योहार की चर्चा करते हुए विषम परिस्थिति में उसकी उपयोगिता को सिद्ध करते हैं । बख्शी जी की लेखनी ही ऐसा विशिष्ट कौशल कर सकती है । कथा-साहित्य और बाल कथाओं के माध्यम से बख्शी जी ने जीवन को सत्य की छाँव में रखने का प्रयास किया है ।

बख्शी ग्रन्थावली-3(समीक्षात्मक निबन्ध): शोध और समीक्षा सर्जनात्मक विधा है । और साहित्य का विशिष्ट अंग है और आलोचना के सिद्धान्तों की परिधि में ही रहकर साहित्यिक कृतियों की समीक्षा की जाती है । बख्शी जी ने 'यदि मैं लिखता' शीर्षक से हिन्दी की कुछ प्रमुख रचनाओं पर रचनात्मक ढंग से अपनी समीक्षाएँ प्रस्तुत की हैं । बख्शी जी ने समीक्षा के आधार पर कृति के उद्देश्यों की रक्षा करते हुए एक नवीन कृति प्रस्तुत करना बख्शी जी के साहित्य की प्रमुख विशेषता है । सृजनात्मक समीक्षा की पद्धति हिन्दी के अन्य समीक्षकों में लगभग नगण्य है, पुन: सृजन की यह विशेषता बख्शी जी के निबन्ध और साहित्य में अन्त तक बनी रही । बख्शी जी साहित्यकार के रचनात्मक धर्म के लिए उसी समीक्षा को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं जिसमें तुलना के माध्यम से किसी घटना वस्तुस्थिति या पात्र के चरित्र का वैशिष्ट्य निरुपित किया जा सके । इस प्रसंग में बख्शी जी ने विश्व कथा-साहित्य और काव्य के सैकड़ों सन्दर्भ प्रस्तुत किये हैं। किसी कृति की कमियों की ओर संकेत करते समय बख्शी जी अपूर्व तर्क और मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय देते हैं । उनकी सहमति से असहमति नहीं प्रगट की जा सकती । इन सारी विशेषताओं के कारण बख्शी जी के ये निबन्ध हिन्दी साहित्य में अलग अस्तित्व रखते हैं । समीक्षा में बख्शी जी ने और पाश्चात्य साहित्य समीक्षा के सैद्धान्तिक पक्ष का आडम्बर  न दिखाते हुए सुन्दर तुलनात्मक समीक्षा का रूप उपस्थित किया है । तुलनात्मक समीक्षक के जनक के रूप में उन्हें देखा जाये तो गलत न होगा ।
बख्शी ग्रन्थावली-4(साहित्यिक निबन्ध):  बख्शी लिखते हैं, 'यह सौभाग्य की बात है कि साहित्य के क्षेत्र में एकमात्र अर्थ सिद्धि के उद्देश्य से साहित्य का काम नहीं चल सकता । साहित्य में असन्तोष के लिए स्थान नहीं है । साहित्य आनन्द की सृष्टि है ।' साहित्य वही श्रेष्ठ है जिसमें रचनाकार के जीवन दर्शन सम्बन्धी अटूट आत्मविश्वास की अप्रतिम धारा प्रवाहित है । ऐसे साहित्य की रचना अविराम साधक में होती है । जहाँ शब्दों का मूल्य नहीं होता बल्कि उन शब्दों के भीतर छिपे हुए अर्थपूर्ण व्यक्तित्त्व का मूल्य सर्वोपरि है । बख्शी के साहित्यिक निबन्धों को पढ़ने से पाठकों का सहजता से विश्व-साहित्य से परिचय हो जाता है । कारण बख्शी जी साहित्यिक निबन्धों में अनेक विश्व प्रसिद्ध कथा, कविता एवं निबन्धों का सार तत्व प्रस्तुत करते हैं । साहित्यिक गतिविधियों के तुलनात्मक अध्ययन में बख्शी एक असाधारण प्रतिभा स्तभ्म हैं। बख्शी जी की लेखनी साहित्य की सभी विधाओं पर चली परन्तु यह मूलत: वरिष्ठ निबन्धकार के रूप में साहित्य जगत में प्रसिद्ध हैं । इनके निबन्धों में कथा रस व कथाओं में निबन्धात्मक तत्त्व नज़र आते हैं । यही कारण है कि इनके निबन्ध आत्मकथात्मक निबन्ध कहलाते हैं । 'स्मृति' नामक निबन्ध में बख्शी जी शैशवकालीन बातों का स्मरण करते हुए तत्कालीन सामाजिक, साहित्यिक, राजनैतिक परिवेश की झाँकी प्रस्तुत करते हैं । बख्शी जी का अधिकांश निबन्ध साहित्य आत्मप्रकाशन की पृष्ठभूमि पर स्थित है । इस खण्ड में उनके साहित्यिक निबन्ध को प्रस्तुत किया गया है ।
बख्शी ग्रन्थावली-5(साहित्यिक, सांस्कृतिक निबन्ध) : 1903 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती का सम्पादकीय कार्य प्रारम्भ किया था। हिन्दी साहित्य के नन्दनवन को बनाने में भारतेन्तु हरिश्चंद्र, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और अन्य प्रबुद्ध विद्वानों का अवदान व परिश्रम तथा जागरूक बुद्धिमत्ता का ही प्रतिफल है । उसी साहित्यिक नन्दनवन में द्विवेदी जी के स्नेह संरक्षण व कुशल मार्ग निर्देशन में बख्शी रूपी कल्पतरु का भी विकास हुआ जिनकी रचनाओं के सौरभ से हिन्दी साहित्य की मंजूषा सुरभित हुए बिना न रह सकी । यही कारण है कि बख्शी जी आचार्य द्विवेदी जी के उत्तराधिकारी माने जाते हैं । बख्शी जी ने अपनी साहित्यिक कृतियों का संस्थापन किया है ।  'विश्व-साहित्य', 'हिन्दी साहित्य विमर्श', 'हिन्दी कथा-साहित्य','पचतंत्र','नवरात्र', 'समस्या और समाधान' , 'प्रदीप' आदि में इनके  साहित्यिक निबन्धों की विशिष्ट मीमांसा है । बख्शी जी के निबन्धों में जीवन की छोटी-बड़ी अनेक घटनाओं के प्रसंग अतीत की स्मृति का सरस लेखा-जोखा करते हैं। इनके निबन्धों में विधवा-समस्या, गृह-जीवन में असंतोष आदि निबन्ध जीवन की सच्चाइयों को सरलता से प्रतिबिम्बित करते हैं । 'समाज सेवा' इनका प्रसिद्ध निबन्ध है । इस खंड में इनके साहित्यिक, सांस्कृतिक निबन्ध कालजयी हैं । हिन्दी साहित्य में इन विषयों पर इसी प्रकार की ऊर्जा व आत्मीयता से युक्त रचनाएँ देखने को नहीं मिलतीं ।
बख्शी ग्रन्थावली-6(संस्मरणात्मक निबन्ध): बख्शी जी ने अपने संस्मरणात्मक निबन्धों में बाल्यकाल से लेकर अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों के संस्मरण लिखे हैं। बख्शी जी के संस्मरणपरक निबन्धों की विशेषता यह है कि यह विशेष व्यक्तियों पर सीमित न होकर लोकजीवन के अतिशय सामान्य व्यक्तियों तक फैले हुए हैं ।  अतएव इनमें वैचारिक विविधता है ही साथ ही साथ जीवन के विविध पक्षों का लोकार्पण भी सम्भव हो सका है । मानवीय जीवन की ऐसी ताजी स्मृतियाँ हिन्दी के अन्य संस्मरणमूलक निबन्धों में नहीं मिलती हैं । बख्शी ने जीवित व्यक्तियों के सम्बन्ध  में भी अपनी प्रतिक्रियाएँ लिखकर अपने निबन्धों को और प्रामाणिक बनाया है । बख्शी की रचनाओं में कहीं भी न तो किसी व्यक्ति की आलोचना मिलती है और न जीवन के प्रति निराशा का भाव । इस दृष्टिकोण के कारण इनके  संस्मरणमूलक निबन्ध पाठकों के लिए प्रेरणास्रोत्र एवं मार्गदर्शक का काम करते हैं । हिन्दी साहित्य में इस प्रकार के निबन्धों का सर्वथा अभाव है । बख्शी के संस्मरणात्मक निबन्ध हर दृष्टि से हिन्दी साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । बख्शी ग्रन्थावली-7(अन्य निबन्ध) :  बख्शी जी निबन्ध कला के सौन्दर्यीकरण के लिए एक ही निबन्ध को अनेक शैलियों में अनेक बार लिखते थे । बख्शी के निबन्धों में स्टीवेंसन, सोमरसेट मॉम, ए.जी. गार्डनर और मातेन शैली का विशेष प्रभाव है । बख्शी जी के निबन्धों की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि इन निबन्धों को पढ़ने से पाठकों के हृदय को एक आत्मीयता ऊर्जा मिलती है, लिखने की ललक का अंकुरण होता है । बख्शी जी निबन्ध साहित्य का जीवन पर सरल स्वाभाविक प्रभाव मानते थे । उसे दैनिक चर्चाओं का अंग भी कहते थे । जिस प्रकार हमारे दैनिक जीवन में किसी एक ही वस्तु के भाव-विचार, घटना आदि की प्रमुखता नहीं रहती वरन वह सबकुछ मिला-जुला रूप होता है । उसी तरह बख्शी जी के निबन्ध भी उनके अपने जीवन के विशेषकर अध्यापकीय जीवन के अंग रहे हैं । उनमें जीवन की सच्ची कथाएँ ताजी प्रतिक्रियाएँ व एक विशिष्ट नैतिकता विद्यमान है। बख्शी के निबन्ध सम-सामयिक होते हुए भी उससे सर्वथा पृथक हैं । वे राष्ट्रीय काव्य-धारा और राष्ट्रीय आन्दोलनों के प्रति अपना उदार दृष्टिकोण रखते हैं । बख्शी ग्रन्थावली-8(अन्य निबन्ध, सम्पादकीय, डायरी): बख्शी जी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के उत्तराधिकारी माने जाते हैं । बख्शी जी के व्यक्तित्व में सम्पादक, अध्यापक तथा निबंधकार समान रूप से ही सशक्त रहे हैं । सरस्वती पत्रिका के सम्पादक के रूप में बख्शी जी ने सर्वाधिक ख्याति और प्रतिष्ठा अर्जित की । मूलत: बख्शी जी का साहित्यकार का स्थापन सम्पादकीय कार्य से प्रारम्भ हुआ ।सरस्वती के सम्पादक के रूप में जहाँ एक ओर इन्होंने श्री सुमित्रानन्दन पन्त की कविताएँ प्रकाशित कर द्विवेदी युगीन इतिवृत्तात्मक काव्य को छायावादी काव्य का परिधान पहनाया वहीं दूसरी ओर प्रेमचन्द, इलाचन्द्र जोशी व सुदर्शन आदि की कहानियाँ प्रकाशित करने में अपना योगदान दिया । इनका सम्पादकीय लेखन केवल साहित्यिक विषयों तक ही सीमित न होकर जीवन की सामयिक महत्ता के सभी प्रसंगों से भी सम्बन्धित रहा है । बख्शी जी की डायरी में हम उन तारीखों से गुजरते हुए उनके रोजमर्रा की जिन्दगी की धड़कनों को महसूस करते हैं । इनकी डायरियाँ बख्शी के साहित्य के प्रति समर्पण को रेखांकित करती हैं ।  उनका सम्पूर्ण जीवन डायरी में परिलक्षित होता है बख्शी की डायरी साहित्य का अमूल्य दस्तावेज है । इन्होंने साहित्य, संस्कृति, धर्म, समाज और जीवन जैसे विषयों पर उच्चकोटि के निबन्ध लिखे हैं। कहीं शिष्टता तो कहीं हस्यात्मक व्यंग्य के कारण इनके निबन्ध और अधिक रुचिकर हो जाते हैं। बख्शीजी ने 1920 ई0 से 1927 ई0 तक बड़ी कुशलता से “सरस्वती” पत्रिका का सम्पादन किया। कुछ वर्षों तक इन्होंने “छाया” नामक मासिक पत्रिका का भी सम्पादन बड़ी कुशलता से किया। इन्होंने स्वतन्त्रतावादी काव्य एवं समीक्षात्मक कृतियों का भी रचना किया। इनके द्वारा सृजित निबन्धों, अनुवादों, कहानियों, कविताओं, और आलोचनाओं में इनके व्यापक दृष्टिकोण और गहन अध्ययन की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है। इन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा 1949 ईस्वी में साहित्य वाचस्पति की उपाधि से अलंकृत किया गया। बख्शीजी की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है। भाषा में संस्कृत शब्दावली का अधिक प्रयोग मिलता है। और साथ ही उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इनकी भाषा में विशेष प्रकार की स्वच्छन्द गति के दर्शन होते हैं। इनकी शैली गम्भीर, प्रभावोत्पादक, स्वाभाविक और स्पष्ट है। इन्होंने अपने लेखन में समीक्षात्मक, भावात्मक, विवेचनात्मक, व्यंग्यात्मक शैली को अपनाया है।
हिन्दी साहित्य का इतिहास बहुत पुराना नहीं है । 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा 'सरस्वती' पत्रिका का प्रकाशन किया गया।  धीरे-धीरे यही पत्रिका हिन्दी साहित्य की मेरुदंड बनी । आखिर वह क्या रहस्य था कि छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गाँव खैरागढ़ में 27 मई 1894  को जन्म लेकर 'साहित्यवाचस्पति पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी' ने हिन्दी साहित्याकाश में एक ज्योतिर्मय अलौकिक नक्षत्र का स्थान ग्रहण किया । बख्शी जी की ज्ञान जिज्ञासा, अदम्य लालसा और साहित्यिक अभिरुचि ने उन्हें साहित्य जगत का कीर्ति स्तम्भ बनाया है । सन 1900 में देवकीनन्दन खत्री के 'चन्द्रकान्ता' और 'चन्द्रकान्ता संतति' से परिचित होकर साहित्य जगत में डुबकी लगाने के लिए व्याकुल हो गये  थे। यही व्याकुलता उन्हें साहित्य जगत में विचरण करने के लिए प्रेरित करती रही । जीवन भर बख्शी जी कथा-साहित्य का मन्थन कर रसिकों को अमृतमयी साहित्य का मर्म समझाते रहे । असीम आनन्द की प्राप्ति ही प्रत्येक मनुष्य की अदम्य लालसा होती है । हमें यह ज्ञान होना चाहिए कि आनन्द की भावना हमारे मन में ही समायी रहती है । उसे खोजने के लिए हमें कहीं नहीं जाना पड़ता है । हमारी बुद्धि की सक्रियता आनन्द की सोच ही हमारे अन्तर्मन में एक अलौकिक मस्ती का भाव ला देती है । बख्शी एक सफल सम्पादक, भावुक कवि, कुशल कहानीकार, स्वस्थ आलोचक व समीक्षक, वैयक्तिक निबन्धकार, मौलिक चिन्तक और आदर्श शिक्षक थे । निर्माण भाव इतना उच्च कि उनके उपन्यास के कई प्रशंसक पाठक होने के बाद भी वे स्वयं को उपन्यास के क्षेत्र में असफल मानते रहे। आरम्भ में बख्शी जी की दो आलोचनात्मक कृतियाँ हिंदी साहित्य विमर्श (1924) व विश्व साहित्य (1924) भी प्रकाशित हुईं। इन कृतियों में भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्य सिद्धांत के सामंजस्य एवं विवेचन की चेष्टा की गयी है। 'विश्व साहित्य' में यूरोपीय साहित्य तथा पाश्चात्य काव्य मत पर कुछ फुटकर निबन्ध भी दिये गये हैं। इन पुस्तकों के अतिरिक्त बख्शी की दो अन्य आलोचनात्मक कृतियाँ बाद में प्रकाशित हुईं- 'हिन्दी कहानी साहित्य' और 'हिन्दी उपन्यास साहित्य'। निबन्ध कहानी साहित्य' और 'हिन्दी उपन्यास साहित्य'। निबन्ध लेखन के क्षेत्र में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी एक विशिष्ट शैलीकार के रूप में सामने आते हैं। इन्होंने जीवन, समाज, धर्म, संस्कृति और साहित्य आदि विभिन्न विषयों पर उच्च कोटि के ललित निबन्ध लिखे हैं। इनके निबन्धों में नाटक की सी रमणीयता और कहानी जैसी रंजकता पायी जाती है। यत्र-तत्र शिष्ट तथा गम्भीर व्यंग्य-विनोद की अवतारणा करते चलना इनके शैलीकार की एक प्रमुख विशेषता है। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी ने 1929 से वर्ष 1934 तक अनेक महत्त्वपूर्ण पाठ्यपुस्तकों यथा- पंचपात्र, विश्वसाहित्य, प्रदीप की रचना की। साहित्य वाचस्पति उपाधि मिलने के ठीक एक साल बाद बख्शी जी मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी निर्वाचित हुए। वर्ष 1949 से 1957 के मध्य मास्टरजी की महत्त्वपूर्ण संग्रह- कुछ, और कुछ, यात्री, हिन्दी कथा साहित्य, हिन्दी साहित्य विमर्श, बिखरे पन्ने, तुम्हारे लिए, कथानक आदि प्रकाशित हो चुके थे। वर्ष 1968 में उनकी प्रमुख और प्रसिद्ध निबंध संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें हम-मेरी अपनी कथा, मेरा देश, मेरे प्रिय निबंध, वे दिन, समस्या और समाधान, नवरात्र, जिन्हें नहीं भूलूंगा, हिन्दी साहित्य एक ऐतिहासिक समीक्षा, अंतिम अध्याय को गिना सकते हैं । बख्शी जी की एक पुस्तक 'यात्री' नाम से प्रकाशित हुई है। यह एक यात्रा वृत्तान्त है और इसमें 'अनन्त पथ की यात्रा' का रोचक वर्णन प्रस्तुत किया गया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की सेवाएँ उल्लेखनीय हैं। बख्शी जी के निबन्धों की विशिष्ट मीमांसा है। बख्शी जी के निबन्धों में जीवन की छोटी-बड़ी अनेक घटनाओं के प्रसंग अतीत की स्मृति का सरस लेखा-जोखा करते हैं। इनके निबन्धों में विधवा-समस्या, गृह-जीवन में असंतोष आदि निबन्ध जीवन की सच्चाइयों को सरलता से प्रतिबिम्बित करते हैं। 'समाज सेवा' इनका प्रसिद्ध निबन्ध है। बख्शी जी ने अपने जीवन में सम्मान भी खूब अर्जित किए। वर्ष 1969 में मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र द्वारा डी-लिट् की उपाधि से विभूषित किया गया। वर्ष 1949 में उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मलेन द्वारा 'साहित्य वाचस्पति' से विभूषित किया गया। एसे महान साहित्यकार का उस समय वे जब दिग्विजय महाविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर थे अचानक स्वास्थ्य खराब होने के कारण 28 दिसंबर 1971 को मध्यप्रदेश(वर्तमान छतीसगढ़) की राजधानी रायपुर के डीके अस्पताल में अंतिम सांसे ली । महान साहित्यकार,संपादक,ललित निबंधकार को हमारी विनम्र श्रध्दांजलि।

चिरंजीव
संकलन व लेखन
लिंगम चिरंजीव राव
म.न.11-1-21/1, कार्जी मार्ग
इच्छापुरम ,श्रीकाकुलम (आन्ध्रप्रदेश)
पिनः532 312 मो.न.8639945892