‘‘पहचान’’ बतलाने के लिए नाम लिखने के आदेश। अर्थहीन!
राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)
‘‘पहचान’’ बतलाने के लिए नाम लिखने के आदेश। अर्थहीन!
उतना ही ‘निरर्थक’ उच्चतम न्यायालय का अंतरिम रोक का आदेश।
भूमिका
यूनानी दार्शनिक ‘‘प्लेटो’’ के कथन से बनी अंग्रेजी कहावत ‘‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है’’ यहां पर पूर्णतः झुठला दी गई है। जिस पर आगे विस्तृत रूप से चर्चा की गई है। ‘‘भगवान शिव’’ के भक्त पवित्र गंगाजल लेकर कावड़ के रूप मे लेकर शिव मंदिर जाते है, जो लाखों शिव भक्त के लिए एक तीर्थ यात्रा है। किन्ही भी धार्मिक यात्रियों के समान, श्रावण ‘‘कावड़ियों’’ की शांतिपूर्वक, सुरक्षित व सुचारू यात्रा की व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार की है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता है। एक अनुमान के अनुसार सालाना लगभग 4 करोड़ से अधिक काँवडियां भाग लेते हैं। अतः सुरक्षित यात्रा के लिए ‘‘आवश्यक’’ कदम जरूर अवश्य उठाए जाना ही चाहिये। परन्तु ‘‘अनावश्यक’’ बिल्कुल नहीं?
‘‘प्रशासन’’- ‘‘शासन’’ के एक के बाद एक ‘पहचान’ बतलाने वाले आदेश।
शायद उपरोक्त उद्देश्य को लेकर तथा पूर्व के ‘‘खट्ठे’’ अनुभवों को लेकर उत्तर प्रदेश पुलिस प्रशासन के मुजफ्फरनगर के पुलिस अधीक्षक अभिषेक सिंह का मुजफ्फरनगर जनपद के लिए आदेश के पश्चात सहारनपुर उप महानिदेशक अजय साहनी ने सहारनपुर मंडल के लिए वैसा ही आदेश जारी किया। यद्यपि यह व्यवस्था पूर्व में भी प्रचलित रही है, ऐसा भी कहा गया है। तथापि बाद में ‘‘यू टर्न’’ लेते हुए मुजफ्फरनगर पुलिस प्रशासन ने अपने दिनांक 17 जुलाई के आदेश वाला ट्वीट ही डिलीट कर दिया। फिर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ही पूरे प्रदेश में यात्रा की समाप्ति (22 जुलाई से 6 अगस्त) तक काँवड़ यात्रा के रूट (रास्ते) पर संचालित होने वाली दुकानें, होटल, ढाबे व फल बेचने वाले ठेलों का मालिक व काम करने वालों के नाम व पहचान ‘‘स्वेच्छा’’ से प्रदर्शित करने के ‘‘अनुरोध’’ के आदेश जारी किए गए। उत्तर प्रदेश सरकार का अनुसरण करते हुए उत्तराखंड के हरिद्वार व मध्य प्रदेश के उज्जैन में भी इसी प्रकार के आदेश जारी किये गए। ‘‘अंधे अंधा ठेलिया सबरे कूप पड़ंत’’। इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने उक्त आदेश पर रोक लगाते हुए उत्तर प्रदेश के साथ उत्तराखंड व मध्य प्रदेश सरकार को नोटिस जारी किए हैं। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उक्त प्रशासनिक आदेश क्या उक्त उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं? अथवा सिर्फ राजनैतिक ‘‘शगल’’ होते हुए इनकी आवश्यकता ही नहीं है?
’आदेश जारी करने के कारण/आधार।
सर्वप्रथम तो ‘‘आ बला गले लग जा’’ की सीरत वाले उक्त आदेश व उसके कारणों को पहले पढ़ ले, जिसके कारण इतना बवाल उठा हुआ है, या उठाया गया है?
उपरोक्त प्रशासकीय तथा शासनादेश में निम्न प्रमुख कारण, आधार बतलाए गए हैं।
अ. काँवड़िये खानपान में ‘‘कुछ’’ खाद्य सामग्री से ‘‘परहेज’’ करते हैं।
ब. पूर्व में ऐसे दृष्टांत प्रकाश में आए हैं, जहाँ कुछ दुकानदारों द्वारा अपनी दुकानों का नाम इस प्रकार से रखे गए, जिससे कांवड़ियों में ‘‘भ्रम’’ की स्थिति उत्पन्न होकर कानून व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हुई।
स. इस आदेश का आशय किसी प्रकार का धार्मिक विभेद न होकर पारदर्शिता सुनिश्चित करना तथा श्रद्धालुओं की सुविधा एवं कानून व्यवस्था की स्थिति को बचाना है। वैसे आपको यह बता दें कि कावड़ यात्रा रूट पर शराब व मीट की दुकाने बंद रहती हैं।
सरकार का ‘पहचान’ बतलाने का आदेश कितना संवैधानिक है?
आखिर सरकार पहचान बताने में निर्देश से क्या दिखाना चाहती है? यदि ‘‘खान भोजनालय’’ का मालिक ‘‘राजकुमार सिंह’’ है अथवा ‘‘श्री राम भोजनालय’’ का मालिक ‘‘अहमद खान’’ है तो इसमें क्या सरकार का पहचान बतलाने के लिए मालिक का नाम लिख देने से उद्देश्य की पूर्ति हो जाती है? क्या धर्म के आधार पर खानपान की व्यवस्था को नियंत्रित किया जा सकता है? यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)जी में दिये गये कोर्ड की व्यापार करने के कुछ प्रतिबंधों के साथ मूलभूत अधिकार को अतिक्रमित करता है। खाना शाकाहारी हो अथवा मांसाहारी उसे दुकान मालिक के नाम से पहचान चिन्हित करना न तो उचित है और न ही संभव। बल्कि यह भ्रम पैदा करने वाली स्थिति भी हो सकती है। यदि सिर्फ सरकार के आदेश पर निर्भर रहा जाए। क्योंकि यदि उपभोक्ता सावधानी बरतकर राजकुमार सिंह के श्री राम भोजनालय में जाने पर यह नहीं देखे-पूछे कि यह शुद्ध शाकाहारी भोजनालय है कि नहीं तथा बिना लहसुन-प्याज का भोजन मिलता है कि नहीं? तब उसकी भोजन की शुद्धता भंग हो सकती है।
उक्त आदेश पूर्णतः गैर जरूरी व अनावश्यक है।
निम्न तथ्यों से आप बिलकुल समझ जायेगें कि उक्त आदेश बिलकुल गैर-जरूरी है। समस्त ‘‘तंत्र’’ कितने ‘‘फुर्सत’’ में बैठें हैं कि या तो ‘‘अक्ल का अजीरण’’ हो गया है अथवा आदेश पर विचार करते समय बुद्धि ‘छुट्ठी’ पर चली गई है, जहां इस तरह के बेसिर-पैर के आदेश शायद सिर्फ इसलिए जारी हो जाते हैं कि किसी एक वर्ग की आंखों में चढ़ा जा सके, अथवा किसी को चिढा़या जा सके? जिससे साम्प्रदायिक सौहार्द खराब होने का मौका कुछ शरारती तत्वों को मिल सकता है? पूर्व केन्द्रीय मंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी ‘‘एक्स’’ पर लिखा यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है ‘‘कुछ अति-उत्साही अधिकारियों के आदेश हड़बड़ी में गडबड़ी वाली अस्पृश्यता की बीमारी को बढ़ावा दे सकते हैं।
आस्था का सम्मान होना ही चाहिए, पर अस्पृश्यता का संरक्षण नहीं होना चाहिए’’।
‘‘लहसुन-प्याज’’ की पहचान के लिए नेम प्लेट लगाना आवश्यक है, यह तर्क ही बेहद लचीला गुमराह करने वाला व तथ्यों परक नहीं है। इस पर जब उच्चतम न्यायालय इस तरह के निर्देश देता है कि ‘‘खाने की पहचान बनाई जाए’’ तब निश्चित रूप से यह महसूस होता है कि सामान्य जानकारी का भी अभाव है। क्या आप-हम इस सब से वाकिफ नहीं हैं कि अपने प्रतिदिन के जीवन में प्रत्येक व्यक्ति का यह अनुभव होता है कि जब वह किसी होटल, ढाबे में खाने में जाता हैं, तब वहां पर दुकान के नाम का बोर्ड लगा होता है? हां मालिक का नाम जरूर प्रायः सब जगह नहीं होता है, जिसके लिए ‘‘स्वेच्छा पूर्वक-जोर दिया’’ जा रहा है। साथ ही दुकान के बोर्ड पर यह भी लिखा होता है, शाकाहारी-मांसाहारी भोजनालय या शुद्ध शाकाहारी भोजनालय। इसके बाद जब हम अंदर टेबल पर जाकर बैठते हैं, तब सामने ‘‘रेट लिस्ट’’ टंगी होती है, जिसमें विभिन्न प्रकार के व्यंजनों के नाम और रेट लिखे होते हैं। इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि यह भोजनालय शाकाहारी है, अथवा मांसाहारी। ‘‘मीनू कार्ड’’ भी टेबल पर रखे रहते हैं, जिसको पढ़ने से भी खाने की प्रकार की जानकारी सुनिश्चित हो जाती हैं।
लहसुन-प्याज ‘‘तामसी’’ होने के बावजूद शाकाहारी है या मांसाहारी?
कावड़ियां या अन्य कोई भी व्यक्ति जो शुद्ध शाकाहारी है तथा शाकाहारी होने के बावजूद वह लहसुन-प्याज से परहेज करता है, तब हिंदू की शाकाहारी होटल होने के बावजूद भी वह उस दुकान वाले से जरूर पूछता है कि यहां पर बगैर लहसुन-प्याज का खाना अथवा ‘‘जैन-थाली’’ मिलेगी? क्योंकि जैन स्वालबिंयों को छोड़कर अन्य किसी धर्म में लहसुन-प्याज पर प्रतिबंध नहीं है। उपरोक्त उल्लेखित आदेशों सहित उच्चतम न्यायालय ने जो अंतरिम आदेश जारी किये हैं, उनमें किसी में भी यह कहीं उल्लेख नहीं है कि होटल में खाने के साथ ‘‘लहसुन-प्याज’’ का उपयोग होता है, यह भी लिखा जावें। लहसुन-प्याज तामसिक खाना जरूर होता है, तथापि वह मांसाहारी नहीं होता है, जबकि ‘‘तामसिक खाना मांसाहारी’’ होता है। बिना लहसुन-प्याज के खाने को ‘सात्विक खाना’ कहते हैं। जिसके लिखने का निर्देश किसी तंत्र ने नहीं दिये? अतः अब प्याज व लहसुन शाकाहारी है अथवा मांसाहारी, इसकी परिभाषा की खोज करना आवश्यक हो गया है?
व्यक्तिगत सावधानी के बिना ‘‘शुद्ध खाने’’ की ‘‘पहचान’’ संभव नहीं!
वस्तुतः खाने की शुद्धता पहचान या परहेज को बनाए रखने की जिम्मेदारी, सावधानी व्यक्ति स्वयं पूर्ण रूप से करता है। किसी आदेश की आवश्यकता नहीं है। यह तो वही बात हुई कि ‘‘अंडा सिखावे बच्चे को, कि चीं चीं न कर’’। तो फिर क्यों ऐसे आदेश जारी करके व्यर्थ की चर्चा में देश के महत्वपूर्ण समय रूपी धन को बर्बाद किया जा रहा है? अनावश्यक विषय पर अर्थहीन बहस से क्या देश की महत्वपूर्ण पूंजी ‘‘समय धन’’ की बर्बादी नहीं?
उक्त बहस में न केवल देश के बुद्धिजीवी, धर्मावलमबी, मीडिया बल्कि उच्चतम न्यायालय भी
‘‘अशर्फियां छोड़ कोयलों पर मुहर लगाने’’ अर्थात समय की बर्बादी करने में उलझ गया है। हमारे राष्ट्रीय स्वास्थ्य व भोजन के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण समय को हम इस फालतू की बहस में गुजार दे रहे हैं, क्या यह जरूरी है? अंतहीन बहस के चलते परिस्थितियों की संगत का असर पड़ने के कारण मैं भी इस फालतू बहस में अपने महत्वपूर्ण समय को इतना अधिक समय देकर विषय की वस्तु स्थिति और वस्तु ज्ञान से आपको अवगत कराने का प्रयास कर रहा हूं कि लेख लम्बा होने के कारण दो भागों में करना पड़ रहा है।
क्रमशः अगले अंक में..........।