‘मध्य प्रदेश! अजब-गजब प्रदेश का अजीबोगरीब शपथ ग्रहण!’
राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)
‘मध्य प्रदेश! अजब-गजब प्रदेश का अजीबोगरीब शपथ ग्रहण!’
‘‘लोकतांत्रिक अजूबा।’’
वर्ष 1990 से विजयपुर से छह बार कांग्रेस पार्टी से बने विधायक और दो बार लोकसभा तथा दो बार विधानसभा का चुनाव लड़कर हार चुके ग्वालियर-चंबल संभाग के कांग्रेस के कद्दावर नेता राम निवास रावत मध्य प्रदेश के ही नहीं, बल्कि देश की लोकतांत्रिक राजनीति के ‘‘ऐतिहासिक महापुरुष’’ बन गये हैं। हर व्यक्ति के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में कुछ भी अजूबा होने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है। शायद इसीलिए ‘‘अजूबा’’ होने के बाद भी ‘‘आश्चर्य’’ नहीं कहलाता है, क्योंकि हमारा मन, बुद्धि उस अजूबे के प्रति कुछ न कुछ तैयार अवश्य रहता है, इस सोच के साथ कि ‘‘अजब तेरी कुदरत अजब तेरे खेल’’ यानी अपवाद इस सृष्टि का एक अभिन्न अंग है। लोकतंत्र में भी अपवाद होते हैं, परन्तु ये अपवाद भी संवैधानिक मान्यताओं व प्रथा, परिपाटियों व रिवाजों के अधीन ही होते हैं। लेकिन रामनिवास रावत को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव की भाजपा सरकार में मंत्री पद की शपथ दिला कर मंत्रिमंडल में शामिल कर निश्चित रूप से एक ऐसा अजूबा हुआ है, जो ‘‘न तो भूतो न भविष्यति है’’ और न ही ऐसी कल्पना भी दूर-दूर तक की जा सकती है।
दोबारा शपथ: अभूतपूर्व।
दूसरी पार्टीयों से विधायक तोड़कर इस्तीफा दिलाकर अपनी पार्टी में शामिल कराना और फिर शपथ दिला कर मंत्रीमंडल में शामिल करना एक असमान्य व नैतिक रूप से अलोकतांत्रिक होते भी हमारे देश की यह एक ’‘सामान्य प्रक्रिया’’ बनते जा रही है। फिर चाहे मंत्रिमंडल ‘‘शिवजी की बारात’’ ही क्यों न बन जाये, परन्तु राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त पार्टी मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस का सदस्य होते हुए पार्टी और विधायकि से इस्तीफा दिये बिना शपथ दिलाना निश्चित रूप से अभूतपूर्व होकर अकल्पनीय है और इस अभूतपूर्व पर ‘‘सोने पे सुहागा’’ तब और हो गया जब ’‘माननीय’’ को मात्र 15 मिनट के पश्चात फिर दूसरी बार शपथ लेनी पडी। सुबह 09.03 मिनट पर रामनिवास रावत ने त्रुटि वश हुई मानवीय भूल के कारण ‘‘राज्यमंत्री’’ की शपथ ली और तत्पश्चात भूल सुधारते हुए 9.18 बजे ‘‘केबिनेट मंत्री’’ की शपथ ली। इस प्रकार रामनिवास रावत का कांग्रेस विधायक के रूप में भाजपा सरकार में शपथ वह भी दो बार, स्वतंत्र भारत की पहली अजूबी घटना होकर मध्य प्रदेश को ‘‘अजब-गजब’’ की श्रेणी में रखने का एक पुख्ता कदम है।
विधायिकी से शपथ पूर्व इस्तीफा क्यों नहीं?
प्रश्न व जिज्ञासा की बात यह है कि इसी बीच क्या रामनिवास रावत ने राज्य मंत्री पद से इस्तीफा दिया था? इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं है। राज्यपाल ने त्रुटि संज्ञान में आने के बाद उक्त शपथ को अवैध घोषित किया? यदि ऐसा नहीं तो फिर 9.03 बजे शपथ दिलाने के बाद क्या माननीय मुख्यमंत्री ने महामहिम राज्यपाल से यह लिखित अनुरोध किया कि रामनिवास रावत को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है, इसलिए उन्हें उक्त पद की शपथ दिलाई जाये? यह बात भी फिलहाल भविष्य के गर्भ में ही है, जब तक इसका स्पष्टीकरण ‘‘राजभवन’’ या मुख्यमंत्री से नहीं आ जाता है। मंत्री पद की शपथ लेने के बाद रामनिवास रावत ने विधायक पद से इस्तीफा दे दिया है। बल्कि कुछ क्षेत्रों से यह खबर भी चलवाई जा रही है कि रामनिवास रावत ने इस्तीफा शपथ ग्रहण करने के पूर्व ही दे दिया था? इसका भी खुलासा माननीय स्पीकर की कार्रवाई से ही स्पष्ट होगा।
अनुभव का फायदा।
राजनीति में अनुभव का बहुत महत्व होता है, जो कई बार वक्त पर काम आता है। रामनिवास रावत के छह बार विधायक चुने जाने की तुलना में तीन बार के चुने गए छिंदवाड़ा जिले की अमरवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के कांग्रेस के विधायक कमलेश शाह के लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस और विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल होना रामनिवास रावत की तुलना में उनकी अनुभवहीनता को ही दिखलाता है। इसीलिए अभी हो रहे उपचुनाव में वे भाजपा के उम्मीदवार बनकर चुनाव लड़ रहे हैं, बावजूद इसके शायद आचार संहिता के चलते उन्हें मंत्री नहीं बनाया जा सका। जबकि कमलेश शाह को भी रामनिवास रावत के साथ मंत्री बनाए जाने की खबरें थी। इस प्रकार ‘अनुभव’ का फायदा उठाते 68 दिन पूर्व भाजपा ज्वाइन करते समय इस्तीफा न देकर रावत ’कांग्रेसी’ होकर भी मंत्री पद पा गए। यदि कमलेश शाह रामनिवास रावत सामान विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने की जल्दबाजी नहीं करते, तो शायद वे भी मंत्री पद पा लेते?
1967 की ‘‘संयुक्त विधायक दल’’ (एस.वी.डी.) सरकार की पुनरावृति?
हालांकि ‘‘खलक का हलक’’ बंद नहीं किया जा सकता, लेकिन आश्चर्य इस बात का होता है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी ने इस शपथ का तीखा विरोध क्यों किया? जब वे स्वयं यह कह रहे हों कि ‘‘कांग्रेस विधायक’’’ को मंत्री पद की शपथ दिला दी। तो वे यह क्यों नहीं मान लेते है कि भाजपा की सरकार 1967 की संयुक्त विधायक दल की सरकार के समान परिवर्तित हो गई है। तब अंतर सिर्फ इतना ही था कि ‘‘कांग्रेस’’ की जगह वहां ‘‘दल बदलू कांग्रेसी’’ ‘‘जनसंघ’’ के साथ सरकार में शामिल थे। अब सरकार में भाजपा व कांग्रेस (तकनीकी रूप से शपथ ग्रहण करने के समय तक रामनिवास रावत कांग्रेस के विधायक ही थे) दोनों शामिल है, जिसे जीतू पटवारी देश में राष्ट्रीय आम सहमति बनाने के लिए एक उठाया गया अनोखा कदम क्यों नहीं ठहरा देते हैं? इसलिए जीतू पटवारी को इस बात पर मुख्यमंत्री को धन्यवाद देना व बधाई देनी चाहिए कि बिना उनके अनुरोध व अनुनय-विनय के कांग्रेसी रावत को मंत्रिमंडल में शामिल किया। जबकि केंद्र में कांग्रेस की लोकसभा उपाध्यक्ष पद की मांग लगातार आवाज उठाने के बावजूद मानी नहीं गई। क्या जीतू पटवारी की नाराजगी और ‘‘अंगारों पर लोटने’’ का कारण यह तो नहीं है कि उनको मंत्री नहीं बनाया गया?
पटवारी के विधानसभा अध्यक्ष पर आरोप गलत?
पटवारी का यह कथन भी गलत है कि विधानसभा अध्यक्ष व राज्यपाल ने ‘‘कर्तव्य पालन’’ और ‘‘लोकतंत्र की परंपराओं’’ का पालन नहीं किया है। जीतू पटवारी कृपया यह बतलाने का कष्ट करें कि 30 अप्रैल को रामनिवास रावत के कांग्रेस का ’हाथ’ छोड़कर भाजपा के ’राम’ होने के बाद उनकी सदन की सदस्यता से समाप्त करने के लिए विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष याचिका कब दायर की गई? पटवारी जी, अयोग्यता की कार्रवाई करने में दूसरे पक्ष को भी सुनना अनिवार्य है, जिसके लिए नोटिस जारी किया जाता है। यह कोई ‘‘आधी रोटी में दाल झेलना नहीं है’’। इस संपूर्ण पूरी कार्रवाई में कुछ समय अवश्य लगता है। महाराष्ट्र का उदाहरण आपके सामने है, जहां 1 साल से भी ज्यादा समय स्पीकर को सुनवाई में लगा। इसलिए अध्यक्ष पर लगाया गया आरोप समय पूर्व (प्रीमेच्योर) है।
व्हिप का उल्लंघन नहीं?
एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि विधानसभा के इस मानसून सत्र में रामनिवास रावत ने भाग नहीं लिया, जिससे यह पता लग जाता कि सदन में उनके बैठने की व्यवस्था अध्यक्ष ने कहां निर्धारित की है? इसके अतिरिक्त जब तक व्हिप का उल्लंघन न हो, विधायक की सदस्यता समाप्त नहीं होती है और प्रस्तुत प्रकरण में रामनिवास रावत द्वारा कोई भी व्हिप का उल्लंघन का नहीं किया गया है, क्योंकि वास्तव में कोई व्हिप अभी तक जारी ही नहीं किया गया है। स्वयं कांग्रेस के विधायक और विपक्ष के उपनेता हेमंत कटारे ने यह कथन किया है की विधानसभा अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर ने अभी तक नियमों के विपरीत जाकर कोई काम नहीं किया है और इसलिए स्पीकर की कुर्सी पर आरोप लगाना अच्छी परंपरा नहीं है।