‘‘कानून व्यवस्था’’ व ‘‘न्यायिक निर्णय’’! राजनीतिक अर्थ व परिणाम
‘‘कानून व्यवस्था’’ व ‘‘न्यायिक निर्णय’’! राजनीतिक अर्थ व परिणाम।
न्यायालय के निर्णय व कानून व्यवस्था को लेकर देश में हाल-फिलहाल दो प्रमुख घटनाएं घटित हुई है, जिनकी राजनीतिक प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि यही तो देश की राजनीति का बिंब बन गया है। जहां कानून व न्यायिक प्रक्रिया में भी सियासी सियासत देखी जा सकती है। यह प्रतिक्रिया चुनावी वर्ष में कहां तक जाएगी, यह देखने-समझने की बात होगी।
दो दिन पूर्व ही दिल्ली में ‘‘मोदी हटाओ देश बचाओ’’ नारे लिखे हुए हजारों पोस्टर लगे। दिल्ली पुलिस ने आनन-फानन में कुछ पोस्टर हटाये तो कुछ पोस्टरों की जब्ती भी हुई और 138 से एफआईआर दर्ज हुई। इसमें से 36 एफआईआर पोस्टर में लिखे नारे को प्रधानमंत्री के विरुद्ध मानते हुए दर्ज की गई। 6 लोगों को गिरफ्तार भी किया गया, उन्हें जमानत भी मिल गई। दूसरा मामला सूरत में मुख्य न्यायिक न्यायालय में सूरत के विधायक पूर्णेश मोदी द्वारा दायर ‘‘मानहानि’’ के प्रकरण में राहुल गांधी को 2 साल की अधिकतम सजा मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट एच एच वर्मा ने सुनाई। ‘‘ऊंचे गढ़ों के ऊंचे कंगूरे’’। दोनों ही मामले प्राथमिक व मूल रूप से ‘‘न्याय’’ व ‘‘कानून व्यवस्था’’ से संबंधित मामले हैं, जिन पर सामान्यतः राजनीति नहीं की जानी चाहिए नहीं होनी चाहिए, बल्कि न्यायालीन प्रक्रिया का पालन करके दोषी ठहराए जाने वाले निर्णय का सामना करना चाहिए तथा कानून लागू करने वाली पुलिस की कार्रवाई के हाथ मजबूत करना चाहिए।
भाजपा और पुलिस प्रशासन द्वारा पोस्टर लगाने के मामले में कहा गया कि पोस्टरों में न तो प्रिंटिंग प्रेस का नाम है और न ही प्रकाशक का नाम है। डिफेसमेंट एक्ट और प्रिंटिंग प्रेस एक्ट कानून का यह स्पष्ट उल्लंघन है। इसलिए कानूनी कार्रवाई की गई है। यानी कि ‘‘ऐब हो तो हुनर के साथ, वरना गुनाहे बेइज्जत’’ हो जाता है। प्रत्युत्तर में ‘आप’ सांसद संजय सिंह से लेकर आप पार्टी के नेताओं ने इस बात का खंडन नहीं किया है कि उक्त कानूनी उल्लंघन उक्त पोस्टर छपवाने से लेकर प्रसारित करने में हुआ है। तथापि उनके द्वारा यह अवश्य कहा गया कि यह राजनीतिक लड़ाई है। पर्चे में गलत क्या लिखा है? ‘‘मोदी हटाओ देश बचाओ’’ यह नारा राजनीतिक पार्टी का लोकतांत्रिक अधिकार है। क्या यही लोकतंत्र है? ‘‘आज की कसौटी बीता हुआ कल होता है’’। बताइये, इसके पहले कितनी बार पुलिस ने इस तरह के पोस्टरों को हटाने की ऐसी ही कार्रवाई की। अभी प्रत्युत्तर में जो पोस्टर ‘‘अरविंद केजरीवाल को हटाओ दिल्ली बचाओ’’ के नारे के साथ लगाए हैं, उनको हटाया गया है क्या? संजय सिंह के द्वारा कानून के उल्लंघन के संबंध में कोई स्पष्टीकरण न दिए जाने से यह समझा जा सकता है, माना जा सकता है कि पुलिस ने जो कानून के उल्लंघन के तथ्य का उल्लेख किया है, वह सही हो सकता है। परंतु इस कानूनी उल्लंघन के मौजूद होने के बावजूद एक राजनीतिक प्रश्न कानूनी कार्रवाई पर जरूर उठ सकता है? प्रश्न यह है क्या इस तरह की उल्लंघन में ने पुलिस के पूर्व में इतनी ही त्वरित कार्रवाई की? या कि इसी मामले में ‘‘छींकते ही नाक कटी’’?
मामला सिर्फ प्रिंटिंग प्रेस या प्रकाशक का नाम न होने का नहीं है, अथवा जो पोस्टर में लिखा गया है ‘‘मोदी हटाओ देश बचाओ’’ उस पर आपत्ति होने का है? क्या आपको ऐसा नहीं लगता है पुलिस ने जरूरत से ज्यादा जोश दिखाते हुए होश में न रह कर अपने आकाओं को खुशामदी करने के उद्देश्य से यह तुरंत-फुरंत कार्रवाई की गई है? इसे ही कहते हैं ‘‘टट्टे की ओट से शिकार करना’’। मैं पुनः इस बात को रेखांकित करना चाहूंगा कि पुलिस की कार्रवाई करने के अधिकार अथवा की गई कार्रवाई पर कोई प्रश्नवाचक चिन्ह नहीं है। यह कानूनी प्रक्रिया है जो चल रही है। परंतु परिस्थिति, समय और तीव्रता को देखकर उक्त कार्रवाई से न्याय के उस सर्वमान्य सिद्धांत पर आक्रमण अवश्य होता है, जहां यह कहा जाता है कि ‘‘न्याय होना ही नहीं चाहिए बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए’’।
अब बात दूसरे मामले राहुल गांधी की सजा की कर ले। यह न्यायिक प्रक्रिया है जिससे राहुल गांधी और उनके वकीलों ने भाग लेकर सुनवाई के अवसर का पूरा लाभ लेने के बावजूद न्यायालय ने उक्त सजा सुनाई है, तो निर्णय की राजनीतिक आलोचना करने के बजाए कानूनी प्रक्रिया अपनाकर अपील करके उक्त आदेश को चुनौती दी जाना चाहिए जो कि अभी की भी जाएगी। परंतु राहुल गांधी, उनके साथी व विपक्ष निर्णय पर न्यायालीन आदेश और उत्पन्न तथाकथित राजनीतिक द्वेष को संयुक्त रूप से जोड़कर प्रतिक्रिया व्यक्त करते समय फिर वही ‘‘आ बला गले लग जा’’ वाली गलती कर रहे हैं, जिस कारण से उन्हें अपने कथनों के कारण पुनः मानहानि या अवमानना के मुकदमे का सामना करना पड़ सकता है। ‘‘आजमाए को जो आजमाए, नामाकूल कहलाए’’। ‘‘आज की ठोकर कल गिरने से बचा सकती है’’। न्यायालय के निर्णय से हटकर आपको उसके प्रभाव के राजनीतिक रूप व अर्थ निकालने के और राजनीतिक रूप से आलोचना करने का अधिकार है। परन्तु इसके लिए कृपया आलोचक गण उन दोनों के बीच लक्ष्मण रेखा अवश्य खींचे और न्यायालय के निर्णय का सम्मान करते हुए सिर्फ राजनीतिक दृष्टिकोण से राजनेताओं की चमड़ी उधेडं़े। लेकिन आगे न्याय प्रणाली प्रक्रिया में दिए गए कानून के अधिकारों का प्रयोग कर निचली अदालत के निर्णय पर रोक के आदेश ऊपरी सक्षम न्यायालय से लावे।
मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट एचएच वर्मा की क्या इस बात के लिए प्रशंसा नहीं की जानी चाहिए कि उसने देश के विपक्ष के सबसे बड़े नेता के विरुद्ध किसी भी तरह की ढील (लीनियंसी) न बरतते हुए कानून के प्रावधान के अनुसार ऐसे व्यक्ति जो वरिष्ठ सांसद हंै और अपराध करते समय देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, के द्वारा कानून का उल्लंघन करने पर अधिकतम 2 साल की सजा देकर एक मील का पत्थर उन प्रभावशाली बड़े लोगों के लिए स्थापित किया है, जो ‘‘औरों को नसीहत और खुद मियां फजीहत’’ हैं और जिनके बाबत यह कहा जाता है की कानून की मुट्ठी उनके हाथों में होती है और वे कानून की कोई परवाह नहीं करते हैं। अभी तक के न्यायिक इतिहास में यह शायद यह पहला मामला होगा जहां अवमानना के मामले में अधिकतम सजा 2 वर्ष की दी गई हो। सामान्यतया तो माफी मांग लेने पर प्रकरण समाप्त कर दिया जाता है या फाइन लगाया जाता है। विस्तृत कारण के साथ पारित इस आदेश से आम जनता के मन में इस बात का विश्वास जरूर बैठेगा कि कानून सबके लिए बराबर है जैसा कि कहा जाता है प्रायः लेकिन होता हुआ दिखता नहीं रहा है।
कोर्ट ने उन्हें आपराधिक मानहानि केस में दोषी बताते हुए 2 साल कैद की सजा सुनाई। हालांकि राहुल की सजा को कोर्ट ने 30 दिन के लिए निलंबित रखते हुए जमानत दे दी। उन्हें ऊपरी अदालत में जाने का मौका दिया गया। कोर्ट में दोषी करार दिए जाने के बाद राहुल गांधी से भी जज ने उनकी राय पूछी, जिस पर उन्होंने कहा कि एक नेता के तौर पर उन्होंने अपना काम किया। राहुल गांधी के वकील ने माफी मांगने से इंकार कर दिया। स्पष्ट है जब दोषी पाये जाने के बावजूद राहुल गांधी ने माफी मांगने से इंकार कर दिया तब देश के अपमान के मामले में जहां न तो उनके विरूद्ध कोई प्रकरण दर्ज हुआ है और न ही मुकदमा चलाया जाकर दोषी ठहराया गया है और न ही वह उच्चतम न्यायालय के नजर में ‘‘अपराध’’ है। तब संपूर्ण भाजपा एक स्वर से उनसे माफी मांगने की बात को अभी भी क्यों दोहरा रही है व संसद की कार्रवाई ठप कर रही है। क्या यह मांग कानूनन् है? नहीं तो फिर राजनीतिक लड़ाई को राजनीतिक रूप से राजनीतिक जमीन पर लड़िए, ‘‘संसद राजनीति करने का मंच नहीं है’’? यह बात विपक्ष से ज्यादा सत्ता पक्ष को समझनी होगी।
अभी अभी लोकसभा अध्यक्ष ने राहुल गांधी की संसद की सदस्यता से अयोग्य घोषित कर उनकी सदस्यता समाप्त कर दी है। लेकिन विषय यह है कि ट्रायल कोर्ट द्वारा अपने फैसले को अपील करने के लिए 30 दिन के लिए स्थगित किया जाकर 30 दिन के लिए सजा (दंड सेंटेंस) स्थगित की गई परन्तु दोष सिद्धि (कंवेक्शन) नहीं तब ऐसी स्थिति में स्पीकर का धारा 8 (3) के अंतर्गत आदेश कानूनी रूप से बिल्कुल सही है।
तथापि केरल उच्च न्यायालय का हाल ही का उदाहरण है, जहां लक्षद्वीप के सांसद मोहम्मद फैजल को हत्या के प्रयास के मामले में सजा होने से लोकसभा सचिवालय द्वारा उन्हे अयोग्य घोषित किए जाने के बाद चुनाव आयोग को उपचुनाव की अधिसूचना को केरल हाईकोर्ट ने रोक दिया। क्या उक्त निर्णय को देखते हुए स्पीकर द्वारा अगले कुछ दिन न्यायालयीन प्रक्रिया के अंतरिम निर्णय की राह नहीं देख सकते है? यह कानून से ज्यादा राजनीतिक व नैतिक प्रश्न है।
इस अयोग्यता के आदेश का एक परिणाम यह भी होगा कि अब लोकसभा में राहुल गांधी को न तो माफी मांगनी पड़ेगी और न ही भाजपा की यह मांग रह जायेगी। प्रश्न तब भी यह है कि माफीनामा के इस अध्याय के न रहने पर राजनीतिक फायदा किसको होगा? और अब संसद में अडाणी मुद्दे पर जेपीसी के गठन पर बहस को रोकने के लिए कौन सा पैंतरा अपनाया जाएगा? कुछ समय इसके लिए इंतजार करना होगा।