राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार) 

संसद की गरिमा ‘‘तार-तार’’ बारम्बार! ‘‘गर्राएं’’ सांसदों द्वारा

शर्मनाक ‘‘शर्मशार’’ करने वाली घटना

संसद परिसर में ‘‘मकड़ द्वार’’ पर धक्का-मुक्की होकर, नारेबाजी, गाली गलौज, अश्लील शब्दों से आगे बढ़कर तीन सांसदों (दो भाजपा, एक कांग्रेस) को शारीरिक चोट पहुंची, वह वास्तव में लोकतंत्र की ‘‘आत्मा पर चोट’’ है। इस देश में ‘‘विधायिका’’ के सदनों व परिसरों में उनकी गरिमा, अस्मिता पहली बार तार-तार नहीं हुई है, बल्कि यह सिलसिला काफी समय से चला आ रहा है। परन्तु अभी जो कुछ जिस तरीके से संसद की गरिमा व अस्मिता खंड-खंड हुई, शायद यह पूर्व की शर्मनाक घटनाओं से अलग-थलग होकर निम्नतर है। कुछ बुद्धिजीवी, प्रबुद्ध वर्ग, मीडिया का एक वर्ग, जो अपने को ‘‘आलोचक’’ कहलाने में गर्व महसूस करता है, और आम जनता की एक बहुत ही अल्प संख्या, संसद की गरिमा तार-तार होते देख चिंतित होकर चिंता व्यक्त कर रही है। अन्यथा आम जनता पर इस घटना का अथवा इस तरह की पूर्व में हुई घटना का कोई प्रभाव उनके मन-मस्ष्कि में पड़ता हो, पड़ा हो, ऐसा लगता नहीं है। अन्यथा जनता के क्रोध व दबाव होने पर इस तरह की घटना बारम्बार नहीं होती। क्या देश में इस तरह की घटनाओं के आधिक्य के कारण उन घटनाओं के प्रति-क्रिया ‘शून्य’ हो गई है या इन घटनाओं के हम इतने आदी हो गया है कि, हमारे दिल-दिमाग की तरंगों की घटनाओं की तरंगों से गहरा मेल मिलाप हो जाने के कारण ‘प्रतिक्रिया’ उत्पन्न ही नहीं होती है? यह एक बड़ा प्रश्न है।

पक्ष-विपक्ष कौन जिम्मेदार?

प्रश्न यह नहीं है कि उक्त घटना से संसद की गरिमा को तार-तार करने वाला पक्ष है अथवा विपक्ष है। मुद्दा यह भी नहीं है कि अस्मिता तार-तार हुई है। बल्कि मुद्दा यह है कि जो अस्मिता तार तार हुई, उसको ‘‘महसूस कौन’’ कर रहा है? उसके लिए पश्चाताप कौन कर रहा है, शर्मिदा कौन है? चाहे गलती या घटना को अंजाम किसी ने भी दिया हो? तर्क के लिए हम मान भी ले दोनों पक्षों के आरोप-प्रत्यारोप उनकी दृष्टि में 100 प्रतिशत सही है। तब, क्या किसी भी दल ने संसद की अस्मिता के साथ खिलवाड़ करने से दुखी होकर पश्चाताप के रूप में व सामने वाले को सबक सिखाने के उद्देश्य से राजघाट या डॉ. अंबेडकर की मूर्ति के सामने दिन भर उपवास कर, चिंतन कर प्रायश्चित किया? जैसा कि पूर्व में कई बार इस तरह की घटनाओं के घटित होने पर राजनीतिक दृष्टि से अरविंद केजरीवाल सहित कई नेताओं ने पश्चाताप (या नाटक?) किया है। मतलब साफ है, दोनों पक्ष उक्त दुर्भाग्यपूर्ण घटना के लिए जिम्मेदार है। कोई कम कोई ज्यादा। हां यदि लोकसभा स्पीकर चाहते तो इस घटना को रोका जा सकता था। अब स्पीकर सख्त निर्देश जारी कर यह कह रहे है कि किसी को भी संसद को किसी भी गेट पर प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी जायेगी। पिछले कुछ दिनों से कांग्रेस इस गेट पर प्रदर्शन कर रही थी, तभी स्पीकर ने उक्त निर्देश क्यों नहीं दिए? स्पीकर तुरंत उस घटना का वीडियो फुटेज सार्वजनिक क्यों नहीं कर देते, जिससे ‘‘दूध का दूध पानी का पानी’’ हो जाता। शायद इसलिए कि स्पीकर जानते हैं कि इस घटना के लिए आरोपित पक्ष जिम्मेदार नहीं है? जांच के लिए वीडियो तो रिलीज करना ही पड़ेगा। स्पीकर की लिखित अनुमति के बिना प्राथमिकी दर्ज की गई है। संसद परिसर क्षेत्र में हुई घटना की कोई प्राथमिकी तब तक दर्ज नहीं हो सकती है, जब तक लोकसभा सचिववालय से लिखित शिकायत संसद मार्ग थाने में न भेजी जाये। 

’सड़क से संसद तक’

अभी तक नारा दिया जाता रहा, ‘‘संसद से सड़क’’ तक मुद्दों की लड़ाई लड़ेंगे। परन्तु इस धक्का मुक्की की घटना ने इस नारे को अब पलट दिया है। अब सड़क से संसद तक धक्का-मुक्की हो रही है। आप जानते हैं जिस प्रकार सड़क पर दो पक्षों में विवाद होकर झगड़ा-फसाद, गाली-गलौज, धक्का-मुक्की और मुक्का-लाठी तक चल जाती है, तब पीटने वाला पक्ष अपने बचाव में सामने वाले पक्ष के खिलाफ भी रिपोर्ट लिखा देता है। कुछ इस तरह की स्थिति संसद की इस धक्का मुक्की की घटना में हुई है, जहां कांग्रेस ने अपने वृद्ध बुजुर्ग राज्यसभा के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को भाजपा के उड़ीसा के बुजुर्ग सांसद प्रताप सिंह सारंगी के गिरने से हुई चोट के जवाब में तुरंत-फरंत सोची गई नीति के तहत बचाव में आगे कर दिया।

एक पक्षीय रूप से प्राथमिकी दर्ज

ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि शिकायत पीड़ि़त सांसदों या उनके परिवार की तरफ से न होकर दूसरे भाजपा सांसदों की तरफ से की गई। प्रश्न यह भी है उठता है कि भाजपा की शिकायत पर प्राथमिकी दर्ज कर ली गई। परन्तु कांग्रेस की शिकायत पर अभी जांच किए जाने व कानूनी राय लिये जाने की बात कही जा रही है। क्या भाजपा की प्राथमिकी दर्ज करते समय जांच पूरी हो गई थी? क्या मेडिकल रिपोर्ट आ गई थी, जिसमें जान पर खतरा होने की रिपोर्ट आई? जिस कारण से गंभीर अपराध हत्या के प्रयास की धारा 109 के साथ धारा 115, 117, 125, 131 और 351 लगाई गई। जब बिना कैमरा फुटेज के घटना की एक पक्ष की शिकायत पर प्राथमिकी दर्ज की गई थी, तब उसी आधार पर दूसरे पक्ष की भी प्राथमिकी भी दर्ज कर ली जाती, तो जांच प्रक्रिया की निष्पक्षता पर प्रश्न नहीं उठता। 

अपराध की गंभीरता कितनी?

घटना पर दर्ज धाराओं के अपराधों पर गौर कीजिए! और फिर इसकी तुलना सड़क हादसा में हुई मृत्यु से कीजिए! जहां सामान्य रूप से एक हुई दुर्घटना मानकर पुरानी धारा 304ए के अंतर्गत अपराध माना जाता है, लेकिन वही मृत्यु यदि हत्या करने के उद्देश्य से एक्सीडेंट के द्वारा की गई है, तब वह धारा 302 का अपराध हो जाता है। भीड़-भाड़ में रास्ता बनाने के उद्देश्य से धक्का मुक्की की स्थिति के चलते तथाकथित रूप से राहुल गांधी के द्वारा किसी सांसद को धक्का देने से उस सांसद का दूसरे सांसद के ऊपर गिरने से उसे चोट लगने से क्या राहुल गांधी की सांसद साथी की ‘‘अप्रत्यक्ष रूप’’ से हत्या करने की मंशा हो सकती है? या यह महज एक दुर्घटना है? क्या राहुल गांधी को मालूम था कि जिस सांसद को वह धक्का मार रहे है, वह सारंगी के ऊपर ही गिरेगा? यह राजनीति की गिरावट का निम्नतर स्तर है। वस्तुतः जिसकी कल्पना कम से कम संसद भवन या संसद परिसर में नहीं की सकती है।

जरूरत से ज्यादा सतर्कता बरतने की जरूरत

धक्का मुक्की की इस घटना के दौरान नागालैंड की पहली महिला राज्यसभा सदस्य (भाजपा) एसटी एस फांगनोन कोन्याक द्वारा राहुल गांधी के विरूद्ध सभापति को शिकायत की गई कि राहुल गांधी ने अन्य पार्टी सदस्यों के साथ मेरे सामने आकर उंची आवाज में मेरे साथ दुर्व्यवहार किया और मेरे काफी करीब आ गए जिससे में बेहद असहज हो गई। तथापि इसकी पुलिस थाने में शिकायत दर्ज नहीं कराई गई, जैसे दूसरे सांसद सारंगी के मामले में हुई है। इस घटना ने संभ्रांत नागरिकों को भी एक सीख दी है। यदि कोई संभ्रांत नागरिक किसी महिला के साथ खडा है, परिचित अथवा अपरिचित, तब उस पर असहजता (डिसर्क्फट) का आरोप लगा दिया जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं है। भीड़-भाड़ मंे महिला पुरूष का साथ खड़े रहना एक स्वभाविक प्रक्रिया है। संसद में महिला-पुरूष सांसद साथ-साथ जाते है, खड़े होते है नारे बाजी करते हैं। प्रश्न यह क्यों न खड़ा किया जाए कि क्या रामरहीम-आशाराम के समान व्यक्ति उक्त सांसद महिला के बाजू में खड़े होने का प्रयास कर महिला को असहज कर रहे थे? क्या राहुल गांधी इस श्रेणी में आते है? ‘‘तिल का ताड़’’ तो सुना है, परन्तु यहां तो ‘तिल’ का ही पता नहीं है।   

उपसंहार

जब सदन में स्वस्थ्य बहस कर मुद्दों की राजनीति नहीं हो पाती है, तब सदन व परिसर को ही ‘‘सड़क’’ बनाकर प्रदर्शन कर, सड़क छाप राजनीति की जा रही है। इस देश के लोकतंत्र का यह ‘‘क्रूरतम सच’’ है। खासकर तब संसद में जब संविधान के ‘‘75 वर्षो की गौरवशाली यात्रा’’ पर चर्चा चल रही थी।