संविधान हत्या दिवस! औचित्य?
राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)
संविधान हत्या दिवस! औचित्य?
स्वतंत्र भारत का याद न करने वाला काला दिन-अध्याय?
हालांकि वक्त बड़े से बड़े घाव को भर देता है लेकिन ‘‘आपातकाल’’ शब्द का मैं जैसे ही उच्चारण करता हूं, सुनता हूं या सुनाता हूं, शरीर में एक झुनझुनी व सिहरन सी आ जाती है। क्योंकि मैं उस परिवार का सदस्य हूं, जिसने आपातकाल को भुगता है। मेरे स्व. पिताजी श्री जी डी खंडेलवाल मीसा में 18 महीने जेल में बंद रहे थे। जेल में जो थे, वे जेल की ‘‘चार दीवारियों के साथ’’ अपनी जिंदगी को शैनैः शैनैः बसा चुके थे। जेल के बाहर रहकर भी मैंने आपातकाल को भुगता है। जेल के बाहर मीसाबंदी परिवारों के सदस्यों की स्थिति तो यह हो गई थी कि डर व ख़ौफ के वातावरण के कारण उनका सामाजिक मेल मिलाप दुष्कर होकर बहिष्कृत सा हो गया था। ऐसे आपातकाल के बुरे दिनों को कोई क्यो याद करना या रखना चाहेगा? फिर ‘‘हत्या दिवस’’ के रूप में? ‘‘देर आयद दुरुस्त आयद’’ का सहारा लेते हुए यदि सरकार आपातकाल रूपी काले कालखंड को वर्तमान युवा पीढ़ी को काले सपने के रूप में किस स्वरूप में याद दिलाना चाहती है? जिसके औचित्य पर प्रश्न वाचक चिन्ह लगना लाजिमी ही है। सरकार अच्छे अध्याय रचकर ‘‘काले अध्याय को क्यों नहीं प्रतिस्थापित’’ करना चाहती है? क्योंकि भविष्य में ‘‘जब भी शाह ख़ानम की आंखें दुखेंगी, शहर के चिराग गुल कर दिये जाएंगे’’। वर्तमान में जब भी मीडिया की निष्पक्षता और साहस की चर्चा की जाती है, तब आपातकाल के समय की मीडिया की दुर्दशा और साहस से तुलना होती ही है और तब वर्तमान मीडिया बगलें झाँकने लग जाती है। वर्तमान सरकार मूलतः अपने मूल रूप में (जनता पार्टी) आपातकाल की ही तो पैदाइश है? जैसे ‘मीसा भारती’’।
अधिसूचना में उल्लेखित ‘‘श्रद्धांजलि’’ शब्द कितना उचित ?
मीसा बंदी जिन्हें वर्ष 2014 में केंद्रीय सरकार ने लोकतंत्र सेनानी का दर्जा दिया तथा साहसी, संघर्षशील जनता व निडर मीडिया (जैसे इंडियन एक्सप्रेस) जिन्होंने अपने संपादकीय पेज को ‘‘खाली’’ छोड़कर आपातकाल का दृढ़ विरोध प्रदर्शित किया था, ऐसे समस्त संघर्षशील व्यक्तियों को 49 साल बाद ‘‘श्रद्धांजलि’’ देने हेतु केन्द्रीय सरकार ने दिनांक 12 जुलाई 2024 को जारी एक गजट अधिसूचना द्वारा 25 जून को संविधान हत्या दिवस घोषित किया है। केंद्रीय सरकार का उक्त रूप में निर्णय एक पहेली सी लगती है? क्योंकि इस संबंध में जारी अधिसूचना में दी गई प्रस्तावना, नामकरण की शब्दावली न केवल समझ से परे हैं, बल्कि सिर से ऊपर ‘सिरे’ से निकल जाने वाली है? 50वें साल में की गई यह घोषणा कुछ आश्चर्यचकित भी करती है। अभी 25 जून को ही आपातकाल का 49 वां वर्ष गुजरा है। जब किसी दिवस को महत्वपूर्ण बनाना होता है, तब उसे उस दिन या उसके पूर्व अधिसूचित किया जाता है, न कि 15 दिन बाद। अधिसूचना में ‘‘श्रद्धांजलि’’ शब्द का उपयोग बेहद आपत्तिजनक और गैर जिम्मेदारा है। क्योंकि अधिसूचना में ‘‘ताकि आपातकाल के दौरान सत्ता के घोर दुरूपयोग के खिलाफ लड़ने वाले सभी लोगों को श्रद्धांजलि दी जा सके’’। कथन में जीवित एवं स्वर्गवासी सभी को श्रद्धांजलि दी गई। वैसे अधिसूचना में उल्लेखित वाक्य संविधान की हत्या दिवस भी सकारात्मक शब्द नहीं है। सरकार सकारात्मक होती है, तो विपक्ष नकारात्मक होता है। इसकी जगह संविधान रक्षा दिवस, संविधान बलिदान दिवस, संविधान शोक दिवस, संविधान बचाओ दिवस, संविधान संकल्प दिवस, इत्यादि भी हो सकता था। क्योंकि किसी नकारात्मकता को सकारात्मकता के द्वारा ही नकारा जा सकता है। अभी भी देश में हजारों लोकतंत्र सेनानियों में से सैकड़ो लोकतंत्र सेनानी जीवित है। मेरे बैतूल में भी 6 जीवित है। क्या उन्हें भी संविधान हत्या दिवस के दिन याद कर श्रद्धांजलि दी जाएगी? जीवित व्यक्ति की आपातकाल से लड़ने की जीवटता का कार्य क्या ‘‘क्षिति जल पावक गगन समीरा से बनी काया’’ के समान मृत हो गया है? इसलिए श्रद्धांजलि दी जानी चाहिए? क्या सरकार जिंदा व्यक्तियों के साहसी कार्यों को अ-मृत मानकर श्रद्धांजलि देने की नई रेखा खींचने तो नहीं जा रही है? वैसे हमारी संस्कृति में जिंदा व्यक्ति जिनका कोई नहीं होता है, के द्वारा जीवन के दौर में ही स्वयं की श्राद्ध करने की प्रथा है, जैसे साधु-संत। आखिर सरकार में किस तरह की सोच लिए हुए लोग बैठे है, जो मानते हैं कि ‘‘अपना सर सलामत तो पगड़ी हजार’’, चाहे भले ही वो अपनी करतूतों से बार-बार सरकार का सिर (मुकुट) जनता के सामने नीचा कर देते हैं?
अनुच्छेद 352 में और प्रभावी संशोधन किया जाना आवश्यक है।
यदि वास्तव में सरकार लोकतंत्र सेनानियों को श्रद्धांजलि देना ही चाहती है तो उसे अनुच्छेद 352 में ऐसा संशोधन अवश्य करना चाहिए, कि किसी भी स्थिति में राजनीतिक द्वेष के चलते देश में आपातकाल फिर कभी न लगाया जाना संभव हो सके। क्योंकि ‘‘पिंजरा तो सोने का भी बुरा होता है’’। अभी भी वर्ष 1978 में संशोधित अनुच्छेद 352 में जो राज्य के किसी भाग की सुरक्षा के लिए शब्दों का उल्लेख है, का दुरुपयोग आपातकाल लगाने में पुनः संभव है। संविधान के किसी भी अनुच्छेद जैसे 352 के दुरुपयोगों का यह पहला उदाहरण नहीं है। हमारा लोकतांत्रिक गणराज्य देश संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों और संविधान के अधीन बनाए गए विभिन्न कानूनों के दुरुपयोगों से भरा पड़ा है। राज्य की आपात व्यवस्था अनुच्छेद 356 की स्थिति को ही देख लीजिए? किस शासन ने इसका दुरुपयोग कब कहां, नहीं किया है? ‘‘हमाम की लुंगी जिसने चाही बांध ली क्योंकि हमाम में तो सब नंगे हैं’’।
संविधान की हत्या या हत्या का प्रयास? अथवा लोकतंत्र की हत्या।
मध्य प्रदेश सरकार ने 26 जून 2024 को आपातकाल में लागू किये गये आंतरिक सुरक्षा अधिनियम एवं भारत सुरक्षा अधिनियम (डीआरआई) के अंतर्गत निरोधक, निवारक हिरासत (गिरफ्तार) किये गये समस्त लोकतंत्र सेनानी एवं उनके परिवारों का अभिनंदन किया गया है। एक तरफ ‘‘अभिनंदन’’ वहीं दूसरी ओर ‘‘हत्या’’ कुछ कुछ अजीब सा नहीं लगता है? सर्वप्रथम हत्या व हत्या के प्रयास के अंतर को समझ ले। भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (पुराना कानून) (नया कानून भारतीय न्याय संहिता की धारा 103) के अंतर्गत किसी व्यक्ति की जान ले लेना हत्या है, जबकि हत्या का प्रयास करना धारा 307 (नई धारा 109) के अंतर्गत अपराध है। यदि हत्या शब्द को उचित मान भी लिया जाए तब भी क्या 25 जून 1975 को देश की संविधान की हत्या की गई थी? वास्तव में उस दिन संविधान की तो नहीं हो, ‘‘लोकतंत्र की हत्या’’ जरूर की गई थी। लोकतंत्र के चार स्तंभों में से एक प्रमुख मीडिया को सेंसर कर अनुच्छेद 19 में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कैंची चला दी गई, वहीं दूसरी ओर एक नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को तब छीना गया, जब अनुच्छेद 21 के मौलिक अधिकार को किसी भी स्थिति भी निलंबित नहीं किया जा सकता है। 44 वें संविधान संशोधन द्वारा इस स्थिति की ओर भी पुख्ता किया गया। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा है कि स्वतंत्रता का अधिकार ‘‘मानव अधिकार’’, है ‘‘संविधान का उपहार नहीं’’। किसी भी स्थिति में जीवन (अनुच्छेद 20) व व्यक्तिगत स्वतंत्रता (अनुच्छेद 21) के अधिकार को छीना नहीं जा सकता है। तथापि उक्त दोनों असंवैधानिक कार्य भी संविधान में प्रावधित प्रावधान अनुच्छेद 352 जिसमें आंतरिक अशांति शब्द का उल्लेख था, का दुरुपयोग करके किये गया थे। इसीलिए वर्ष 1978 में जनता पार्टी सरकार ने 44वें संविधान संशोधन द्वारा ‘‘आंतरिक अशांति’’ को ‘‘सशक्त विद्रोह’’ शब्द से प्रतिस्थापित कर दिया गया। दूसरे, यदि वस्तुतः संविधान की हत्या हो गई थी, तब 1975 से लेकर आज तक हम किस संविधान के अंतर्गत संचालित है? इस प्रश्न का उत्तर हमे कहां मिलेगा? यह जारी अधिसूचना में स्पष्ट नहीं है। हत्या द्वारा मृत्यु हो जाने के बाद जिस प्रकार व्यक्ति की आत्मा इस सृष्टि में घूमती है, वैसे ही क्या संविधान की आत्मा घूम रही है? जिसमें हम संचालित है?
‘‘सुनहरे भविष्य’’ के लिए ‘‘आपातकाल जैसे प्रतिगामी, आत्मघाती’’ कदम को भूलकर आगे बढ़ना होगा?
140 करोड़ की जनसंख्या वाले इस देश में एक भी वयस्क जिसे आपातकाल के बाबत जानकारी दी गई हो, ऐसा नहीं होगा जो उसके समर्थन की कल्पना भी कर सकता हो? जिन लोगों ने सत्ता बचाने के लिये आपातकाल लगा कर लोकतंत्र को कुचला था, उन समस्त लोगों ने बारी बारी से इस दुष्कृत पर समय-समय पर माफी मांग ली। देश की जनता ने भी मात्र 3 वर्ष से कम समय में ही वर्ष 1980 के आम चुनाव में आपातकाल की दोषी उस कांग्रेस को माफ कर पुनः सत्तासीन कर दिया। हमें मानना होगा कि जनता उसको गलत नहीं मानती है, क्योंकि लोकतंत्र में चुनाव की जीत ही समस्त मुद्दों की जीत व हार तय करती है। इसलिए आपातकाल को यदि हम राजनीति का टूल बनायेगें तो यह द्विधारी तलवार सिद्ध हो सकती है। ‘‘हड्डी खाना आसान लेकिन पचाना मुश्किल’’ है। सिख दंगों के बाद पंजाब में कांग्रेस की सरकार वापस आयी। इसका यह मतलब कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि सिखों के दिल में पहुँची ठेस खत्म हो गई? उसी प्रकार वर्ष 1980 में कांग्रेस की जीत को आपातकाल के विरुद्ध निर्णय ठहरा कर तथा सरकार द्वारा दिया गया सम्मान और सम्मान निधि, लोकतंत्र सेनानियों एवं उनके परिवारों के दिलों से आपातकाल की टींस व दर्द को समाप्त नहीं कर सकती हैं। अतः आपातकाल को एक राजनीतिक टूल न बनाया जाकर देश के लोकतांत्रिक इतिहास का वह काला अध्याय माना जाए, जिसे बार बार याद करने की बजाए एक दुःस्वप्न की भांति भूलने का प्रयास करना चाहिए, जो उतना आसान नहीं होगा, खासकर उन लोगों के लिए जिन्होंने मीसा को भुगता है। वैसे कोई व्यक्ति अपने जीवन के काले अध्याय को कभी भी याद नहीं करना चाहेगा, तब सरकार क्यों इतिहास हो चुके काले अध्याय की याद दिलाना चाहती है?