मंत्रीमंडल विस्तार या लोकतांत्रिक भ्रष्टाचार
परमेश्वर राव, प्रधान संपादक
मंत्रीमंडल विस्तार या लोकतांत्रिक भ्रष्टाचार
भोपाल । तो शिवराज ने चुनाव के एक महीने पहले तीन मंत्री बना ही दिये। बनाने वाला जितना बेशर्म था, बनने वाले भी उतने ही ढीट। मंत्री पद अब सेवा और विकास के लिए नहीं बल्कि कमीशन, घोटाले और भ्रष्टाचार के लिये दिये जाता है। करोड़ों में विधायक ख़रीदे जाते हैं, फिर घोटाले करके विधायक ख़रीदी की लागत वसूली जाती है। संविधान निर्माता आज जीवित होते, तो शिवराज और सिंधिया जैसे कुर्सीखोरों के नाम सुसाइड नोट लिखकर आत्महत्या कर लेते। देश की आज़ादी के नायक आज जीवित होते, तो अंग्रेजों को पत्र लिखकर पुन: देश चलाने के लिये बुला लेते, क्योंकि हम देश चलाने की जगह देश और संविधान को निगलने वालों के चंगुल में फँस गये हैं। आखिर किसके बाप के पैसों पर ये मंत्री 1000 घंटे तक अपनी सत्ताहवस मिटायेंगे? इन सत्ता के दु:शासनों को यह भी शर्म नहीं आ रही है कि अब तो पूरा चीर ही ख़त्म हो चुका है, अब क्या हरण करने आ रहे हो ?
धृतराष्ट्र दिल्ली में बैठे या हस्तिनापुर मे, जनता को द्रोपदी ही बनना है। जनता को टैक्स देना है, ताकि विधायक ख़रीदकर कुछ लोग कुर्सीखोरी कर सकें। जनता को इलाज के अभाव में तड़प तड़पकर मर जाना है, ताकि सरकार के दोमुँहे चेहरे रिपोर्ट कार्ड का ढकोसला परोस सकें। जनता को तो ताली ही बचाना है, ताक़ि तालियों की गड़गड़ाहट में बेटियों की चीख और सिसकी दब सके। ये तीनों मंत्री आज जब अपने घर जायेंगे तो चेहरे पर बेशर्मी के साथ दिखने वाला चीरहरण सा फक्र और मलाई की आख़री उतरन चाटने के हिस्सेदार होने का गर्व इन्हें इस बेगैरत सरकार के वस्त्रहीन भागीदारों की श्रेणी में कुसज्जित कर देगा।
हे ! शर्म, तुम घर जाओ…बेशर्मी का कुनबा आज फिर बड़ा हो गया है।