बालकृष्ण भट्ट जन्म- 03/06/1844 - जयंती-03/06/2025

“बालकृष्ण भट्ट हिंदी आलोचना के प्रथम सशक्त आलोचक है। इन्हें ही आलोचना के आरंभकर्ता माना जाता है ।”
“भारतेंदु युग के प्रतिष्ठित निबंधकार भी थे जिन्हें हिंदी का एडीसन भी कहा जाता है।”बालकृष्ण भट्ट जी आज की गद्य प्रधान कविता के जनक माने जाने वाले, हिंदी गद्य साहित्य के निर्माताओं में उनका नाम प्रमुख है। सफल पत्रकार,उपन्यासकार,नाटककार व निबंधकार थे। पंडित बालकृष्ण भट्ट का जन्म प्रयाग के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। यह कहा जाता है की भट्ट जी पर उनकी माता के कारण साहित्य का प्रभाव पड़ा। उनकी माता जिनका नाम  पार्वती देवी था । उनके पिता की तुलना में अधिक पढ़ी-लिखी और विदुषी थी। पंडित बालकृष्ण भट्ट जी के पिता का नाम पंडित वेणी प्रसाद था वे एक व्यापारी थे परंतु माता एक सुसंस्कृत महिला जिन्होंने बालकृष्ण भट्ट के मन में अध्ययन की रूचि एवं लालसा जगाई। उनकी पत्नी का नाम रमादेवी था। प्रारंभिक शिक्षा मे संस्कृत का अध्ययन,1867 में मिशन स्कूल में एंट्रेस की परीक्षा दी। 1869 से 1875 तक प्रयाग के मिशन स्कूल में अध्यापन। 1885 में प्रयाग के सी.ए.वी. स्कूल में संस्कृत का आध्यापन। 1888 प्रयाग की कायस्थ पाठशाला में कॉलेज मे अध्यापक नियुक्त हुए। भट्ट जी अत्याधिक स्वतंत्र प्रकृति के व्यक्ति थे। कायस्थ पाठशाला में संस्कृत के अध्यापक का काम किया और इस कार्य से भी त्याग-पत्र दे दिया। बालकृष्ण भट्ट जी की शिक्षा 10वीं तक होने के पश्चात उन्होंने घर पर ही संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की इसके अलावा हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान था। भारतेंदु जी से प्रभावित होकर हिंदी-साहित्य की ओर अपना रूख कर लिया। 
       अपने सिध्दान्तों एवं जीवन-मूल्यों के दृढ़ प्रतिपादक होने के कारण कालांतर में अपनी धार्मिक मान्यताओं के काऱण मिशन स्कूल छोड़ दिया। पिता के निधन के पश्चात पैत्रिक व्यापार करते हुए गृह कलह होने से व्यापर और घर भी छोड़ दिया। । घोर आर्थिक संकट का सामना करते हुए हिम्मत से काम लिया । बालकृष्ण भट्ट जी एक सफल पत्रकार थे। हिंदी प्रचार के लिए उन्होंने  प्रयाग में “हिंदीवर्ध्दिनी” नामक सभा की स्थापना की। उनके व्दारा ही संपादित सितंबर1877 में “हिंदी प्रदीप” नामक मासिक पत्रिका का पहला अंक छात्रों से पाँच-पाँच रूपये चंदे के सहारे प्रकाशित हुआ था। एक अंक की कीमत उस समय चार आने थी। इस पत्रिका पर आचार्य महावीरप्रसाद ने 1906 में एक लेख लिखा जो 1906 के अंक में जो “सरस्वती” में इसके माध्यम से उन्होंने ‘हिंदी वर्धनी सभा’ और “हिंदी प्रदीप” का उल्लेख मिलता है। इसके पहले सरस्वती के पहले के संपादक पं. देवीदत्त शुक्ल ने लिखा था कि “पं. बालकृष्ण भट्ट हिदी के स्वाभिमानी लेखक थे। उन्हें स्वदेश और स्व-संस्कृति से अत्याधिक प्रेम था।” भारतेंदु हरिश्चंद्र मे एक पद्य रचना की, जो हिंदी-प्रदीप के मुख्य पृष्ठ पर निरंतर छपती रही “शुभ सुरस देश सनेह पूरित प्रकट व्है आनंद भरे ” बालकृष्ण भट्ट इस पत्रिका को निकालते हुए हिंदी साहित्य की सेवा के 33 बरस गुजारे। इसमें नियमित रूप से सामाजिक-साहित्यिक-नैतिक-राजनीतिक विषयों पर निबंध लिखते रहे। 1881 में वेदों की युक्तिपूर्ण समीक्षा की। 1886 मे लाला श्रीनिवास दास के संयोगिता स्वंयबर की कठोर आलोचना की। इसके अलावा दो-तीन पत्रिकाएं भी निकाले। काशी नागरी प्रचाररिणी सभा व्दारा आयोजित “हिंदी शब्दसागर” के संपादन में भी उन्होंने , बाबू श्यामसुंदर दास तथा शुक्ल जी के साथ कार्य किया जीवन के अंतिम दिनों में हिंदी शब्दकोष के संपादन के लिए श्यामसुंदर दास व्दारा काशी आमंत्रित , किंतु अच्छा व्यवहार न होने पर अलग हो गए।   

रचनाएँ-  भट्ट जी ने निबन्ध, उपन्यास और नाटक लिखे हैं

निबन्ध संग्रह  : साहित्य सुमन,भट्ट निबंधमाला,,आत्मनिर्भरता (1893).,निबन्ध, चंद्रोदय,,संसार महानाट्यशाला,प्रेम के बाग का सैलानी,,माता का स्नेह,,आंसू,,लक्ष्मी,,कालचक्र का चक्कर,,शब्द की आकर्षण शक्ति,,साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है,,प्रतिभा,,माधुर्य,,साहित्य का सभ्यता से घनिष्ठ संबंध है,,आशा,,आत्मगौरव,,रुचि,,भिक्षावृत्ति,,आकाश पिप्पल,,बोध,,एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न।

उपन्यास : नूतन ब्रह्मचारी,, सौ अजान और एक सुजान,(रहस्यकथा),गुप्त वैरी, रसातल यात्रा, उचित दक्षिणा, हमारी घड़ी ,सदभाव का अभाव 

नाटकः मृच्छकटिक, वेणी संहार, पद्मावती, किरातार्जुनीय, दमयन्ती स्वयंवर,,बाल-   विवाह,,चन्द्रसेन,,रेल का विकट खेल, शिशुपाल वध, नल दंमयंती या संमयंती स्वयंवर, सीता  वनवास, पतित पंचम , मेधनाथ वध, कट्टर सूम की एक नकल,रोगी और एक बैध, वृहनला , इंगलैंश्वरी और भारत जननी, भारत वर्ष और कलि, दो दूर देशी आदि।   

प्रहसन- जैसा काम वैसा परिणाम, नई रोशनी का विष, आचार विड़बन आदि

निबंध- 1000 के आस-पास निबंध जिनमें 100 से ऊपर बहुत अधिक महत्वपूर्ण । भट्ट निबंधमाला नाम से दो खंड़ों में एक संग्रह प्रकाशित। गद्य काव्य की रचना भी सर्वप्रथम भट्ट जी ने ही प्रारम्भ की। इनसे पूर्व हिंदी में गद्य काव्य का नितान्त अभाव था । बालकृष्णन भट्ट की प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन साहित्यक अकादमी ने 'बालकृष्ण  भट्ट : रचना संचयन' नाम से प्रकाशित किया है। बालकृष्ण भट्ट रचनावली के चार खंड नवजागरण विचार के आसंग में बालकृष्ण भट्ट के विशिष्ट व्यक्तित्व और पहचान की बानगी का मुकम्मल दस्तावेज हैं । 19वीं शताब्दी के हिंदी नवजागरण की पूरी बहस भारतेंदु–मंडल से शुरू होती है और उसी के आसपास चक्कर काटती है जबकि भारतेंदु–मंडल के भीतर और उसके समानांतर विभिन्न विचार समूहों की संगठित सक्रियता बनी हुई थी । भारतेंदु–मंडल से भिन्न विचार चेतना के श्रेष्ठ और सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रतीक बालकृष्ण भट्ट (1844–1914) हैं । वे 19वीं सदी के नवजागरण में राष्ट्रीयता के सवाल, भारतीय जन–मन की भावनाओं तथा उसके आंतरिक असंतोष के सच्चे प्रतिनिधि हैं । भारतीय जनता पर टैक्सों की मार तथा भारतीय व्यापार पर प्रतिबंध के बाद देश पर लगातार कर्ज बढ़ा, बेरोजगारी बढ़ी, नई जमींदारी व्यवस्था के हाथों किसान तबाह हुए । इन सभी मुद्दों पर बालकृष्ण भट्ट का विश्लेषण, उनके चिंतन के निहितार्थ उन्हें 19वीं सदी के नवजागरण में महत्वपूर्ण बनाते हैं । हिंदी प्रदीप का प्रकाशन कर बालकृष्ण भट्ट ने एक तरफ औपनिवेशिक दमन का विरोध किया तो दूसरी तरफ धर्म सुधार व समाज हितैषिता की लंबी लड़ाई लड़ी । उनके जीवन का एक ही ध्येय था ‘गुलामी से मुक्ति और सांस्कृतिक जागरण का प्रयास’ । कविवचन सुधा से सरस्वती तक जातीय जागरण का प्रयास दिखलाई पड़ता है लेकिन राजनीतिक जागरूकता का जोखिम भरा कार्य किया। हिंदी प्रदीप के व्दारा बालकृष्ण भट्ट ने । वे 32–33 वर्षों तक अनुभव की विश्वसनीयता और अधिकार के साथ ज्ञान के नए आलोक से हिंदी समाज को परिचित कराते रहे साथ ही राष्ट्रीय चेतना, अंग्रेजी राज की आलोचना, सामाजिक दृष्टि, भाषा–साहित्य–संस्कृति के सरोकार और आलोचना–विवेक के व्यापक प्रश्नों के प्रति चौकस रहते हुए नवजागरण के योद्धा के रूप में जिए और मरे ।भट्ट जी की लेखन - शैली को भी दो कोटियों में रखा जा सकता है। प्रथम कोटि की शैली को परिचयात्मक शैली कहा जा सकता है। इस शैली में उन्होंने कहानियाँ और उपन्यास लिखे हैं। व्दितीय कोटि में आने वाली शैली गूढ़ और गंभीर है। इस शैली में भट्ट जी को अधिक नैपुण्य प्राप्त है। आपने "आत्म-निर्भरता" तथा "कल्पना" जैसे गम्भीर विषयों के अतिरिक्त, "आँख", "नाक", तथा "कान", आदि अति सामान्य विषयों पर भी सुन्दर निबंध लिखे हैं। आपके निबंधों में विचारों की गहनता, विषय की विस्तृत विवेचना, गम्भीर चिन्तन के साथ एक अनूठापन भी है। यत्र-तत्र व्यंग्य एवं विनोद उनकी शैली को मनोरंजक बना देता है। उन्होंने हास्य आधारित लेख भी लिखे हैं, जो अत्यन्त शिक्षादायक हैं। भट्ट जी का गद्य जो गद्य न होकर गद्यकाव्य सा प्रतीत होता है। वस्तुतः आधुनिक कविता में पद्यात्मक शैली में गद्य लिखने की परम्परा का सूत्रपात श्री बालकृष्ण भट्ट जी ने ही किया था। उनकी भाषा-शैली के निम्नलिखित रूप मिलते हैं-

(1). वर्णनात्मक शैली- वर्णनात्मक शैली में भट्ट जी ने व्यावहारिक तथा सामाजिक विषयों पर निबंध लिखे हैं। जन साधारण के लिए भट्ट जी ने इसी शैली को अपनाया। उनके उपन्यास की शैली भी यही है, किंतु इसे उनकी प्रतिनिधि शैली नहीं कहा जा सकता। इस शैली की भाषा सरल और मुहावरेदार है। वाक्य कहीं छोटे और कहीं बड़े हैं।
(2). विचारात्मक शैली- भट्ट जी द्वारा गंभीर विषयों पर लिखे गए निबंध इसी शैली के अंतर्गत आते हैं। तर्क और विश्वास, ज्ञान और भक्ति, संभाषण आदि निबंध विचारात्मक शैली के उदाहरण हैं। इस शैली की भाषा में संस्कृत के शब्दों की अधिकता है।
(3). भावात्मक शैली- इस शैली का प्रयोग भट्ट जी ने साहित्यिक निबंधों में किया है। इसे भट्ट जी की प्रतिनिधि शैली कहा जा सकता है। इस शैली में शुद्ध हिंदी का प्रयोग हुआ है। भाषा प्रवाहमयी, संयत और भावानुकूल है। इस शैली में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग भी हुआ है। अलंकारों के प्रयोग से भाषा में विशेष सौंदर्य आ गया है। भावों और विचार के साथ कल्पना का भी सुंदर समन्वय हुआ। इसमें गद्य काव्य जैसा आनंद होता है। चंद्रोदय निबंध का एक अंश देखिए-
(यह गोल-गोल प्रकाश का पिंड देख भाँति-भाँति की कल्पनाएँ मन में उदय होती है कि क्या यह निशा अभिसारिका के मुख देखने की आरसी है या उसके कान का कुंडल अथवा फूल है यह रजनी रमणी के ललाट पर दुक्के का सफ़ेद तिलक है।)
(4). व्यंग्यात्मक शैली- इस शैली में हास्य और व्यंग्य की प्रधानता है। विषय के अनुसार कहीं व्यंग्य अत्यंत मार्मिक और तीखा हो गया है। इस शैली की भाषा में उर्दू शब्दों की अधिकता है और वाक्य छोटे-छोटे हैं।“”डॉक्टर वार्ष्णेय”” पंडित बालकृष्ण भट्ट को हिंदी का सर्वप्रथम निबंध–लेखक स्वीकार करते हैं। अपने निबंधों द्वारा हिन्दी की सेवा करने के लिए उनका नाम सदैव अग्रगण्य रहेगा। उनके निबंध अधिकतर हिन्दी प्रदीप में प्रकाशित होते थे। उनके निबंध सदा मौलिक और भावना पूर्ण होते थे। वह इतने व्यस्त रहते थे कि उन्हें पुस्तकें लिखने के लिए अवकाश ही नहीं मिलता था। अत्यन्त व्यस्त समय होते हुए भी उन्होंने "सौ अजान एक सुजान", "रेल का विकट खेल", "नूतन ब्रह्मचारी", "बाल विवाह" तथा "भाग्य की परख" आदि छोटी-मोटी दस-बारह पुस्तकें लिखीं। वैसे आपने निबंधों के अतिरिक्त कुछ नाटक, कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे हैं। भाषा की दृष्टि से अपने समय के लेखकों में भट्ट जी का स्थान बहुत ऊँचा है। उन्होंने अपनी रचनाओं में यथाशक्ति शुद्ध हिंदी का प्रयोग किया। भावों के अनुकूल शब्दों का चुनाव करने में भट्ट जी बड़े कुशल थे। कहावतों और मुहावरों का प्रयोग भी उन्होंने सुंदर ढंग से किया है। भट्ट जी की भाषा में जहाँ तहाँ पूर्वीपन की झलक मिलती है। जैसे- समझा-बुझा के स्थान पर समझाय-बुझाय लिखा गया है। बालकृष्ण भट्ट की भाषा को दो कोटियों में रखा जा सकता है। प्रथम कोटि की भाषा तत्सम शब्दों से युक्त है। व्दितीय कोटि में आने वाली भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ-साथ तत्कालीन उर्दू, अरबी, फारसी तथा  अंग्रेजी भाषीय शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। वह हिन्दी की परिधि का विस्तार करना चाहते थे,  इसलिए उन्होंने भाषा को विषय एवं प्रसंग के अनुसार प्रचलित हिन्दीतर शब्दों से भी समन्वित किया है। आपकी भाषा जीवंत तथा चित्ताकर्षक है। भाषा अत्यन्त रोचक और प्रवाहमयी रही है। भट्ट जी ने जहाँ आँख, कान, नाक, बातचीत जैसे साधारण विषयों पर लेख लिखे हैं, वहाँ आत्मनिर्भरता, चारु चरित्र जैसे गंभीर विषयों पर भी लेखनी चलाई है। साहित्यिक और सामाजिक विषय भी भट्ट जी से अछूते नहीं बचे। 'चंद्रोदय' उनके साहित्यिक निबंधों में से है। समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए उन्होंने सामाजिक निबंधों की रचना की। भट्ट जी के निबंधों में सुरुचि-संपन्नता, कल्पना, बहुवर्णन शीलता के साथ-साथ हास्य व्यंग्य के भी दर्शन होते हैं। भारतेंदु काल के निबंध-लेखकों में भट्ट जी का सर्वोच्च स्थान है। वे हिंदी के प्रारंभिक युग के प्रमुख और महान पत्रकार, निबंधकार तथा हिंदी की आधुनिक आलोचना के प्रवर्तकों मे अग्रगण्य है। उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य को अपने प्रतिभाशाली जनधर्मी व्यक्तित्व और अपने लेखन से एक अनोखा व नवीन धरातल, नवीन दिशा और नया रूप-रंग और मानस दिया। साहित्य केवल सल्पना-विलास की वस्तु नहीं है अपितु वह “जन समूह के चित्त के विकास का सांहक ” और जन संस्कृति के विकास प्रवाह का मूर्त वाङमय उपादान है  यह बोधपूर्ण प्रधान मान्यता भारतेन्दु युग के साहित्य से बनती है और इसके द्रष्टाओं में पं. बालकृष्ण भट्ट प्रमुख है। निश्चित ही इस अतिविशिष्ट कार्य में वे अकेले नहीं अपितु , स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमघन, राधाचरण गोस्वामी जैसे अनेक महान साहित्यकार उनके साथ थे। किंतु सर्वसम्मति से स्थापित मान्यता इनके पक्ष में ही थी कि वे अपने युग के सर्वाधिक सक्रिय, मुखर और लंबे समय तक अपनी गहरी निष्ठा के साथ साहित्य सेवा करते रहने वाले समर्पित साहित्यकार थे। यही से व्दिवेदी युग का मूलाधार भी निर्मित हुआ। उन्होंने पत्र, नाटक, काव्य, निबंध, लेखक, उपन्यासकार अनुवादक विभिन्न रूपों में हिंदी की सेवा की और उसे धनी बनाया। साहित्य की दृष्टि से भट्ट जी के निबंध  अत्यन्त उच्चकोटि के हैं। इस दिशा में उनकी तुलना अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध निबंधकार चार्ल्स लैंब से की जा सकती है। इसी क्रम में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निबंधकार के रूप में उन्हें अंग्रेजी साहित्य के एड़ीसन व स्टील की श्रेणी मे रखा है । भट्ट जी ने तो भावनात्मक, वर्णनात्मक, कथानक तथा विचारात्मक सभी प्रकार के निबंध लिखे है, किन्तु उनके विचारात्मक निबंध अधिक महत्वपूर्ण है। इस कारण उन्हें 17वीं शताब्दी के पश्चिमी निबंधकार “जोसेफ एडीसन”(जो बुध्दिप्रधान निबंध लिखने के लिए प्रसिध्द थे। ) इनके नाम से उन्हें “‘हिंदी का एडीसन” भी कहा जाता है। अन्य बहुत सी खूबियों के साथ उनकी पकड़ आलोचना के क्षेत्र में भी सराहनीय रही इनका योगदान अविस्मरणीय है, भारतेंदु ने ‘नाटक’ नामक निबंध व्दारा सैध्दांतिक आलोचना की शुरूआत की थी । तो भट्ट जी ने हिंदी प्रदीप मे लाला श्रीनिवासदास के नाटक ‘’संयोगिता स्वयंवर’’ की ‘’सच्ची समालोचना’’ नाम से व्यवहारिक आलोचना की जिसे हिंदी साहित्य की पहली व्यवहारिक आलोचना माना जाता है। उनकी भाषा संबंधी दृष्टिकोण मे उनके विचार से भाषायी शुध्दता के समर्थक नहीं थे। उनका मानना था कि भाषा का विकास विभिन्न भाषाओं के शब्दों के आदान-प्रदान से ही होता है। उनका प्रसिध्द कथन –“बहुत से लोगो का मत है कि हम लिखने-पढ़ने की भाषा से अन्य देशों की भाषा के शब्दों को बीन-बीनकर अलग करते रहे। कोलकत्ता और मुंबई के कुछ पत्र ऐसा करने का कुछ यत्न भी कर रहे है, किंतु ऐसा करने से हमारी हिंदी बढ़ेगी नहीं वरन दिन-दिन संकुचित होती जाएगी। भाषा के विस्तार का सदा यह क्रम रहा है कि किसी भी देश के शब्दों को हम अपनी भाषा में मिलाते जाएँ और उसे अपना करते रहेँ ।  बालकृष्ण भट्ट जी के बारे में -रामविलास शर्मा- कथनानुसार “ उनकी वास्तविक प्रतिभा एक अध्ययनशील विव्दवान और तीक्ष्ण बुध्दि आलोचक की है। उन्हें आधुनिक हिंदी आलोचना का जन्मदाता कहना अनुचित न होगा । धर्म और दर्शन को सामाजिक विकास की कसौटी पर कसकर बालकृष्ण भट्ट ने प्रगतिशील आलोचना की नींव डाली थी ।” 

उनके जीवन का एक व्यक्तिगत प्रसंग , हजारीप्रसाद व्दिवेदी व्दारा लिखी बालकृष्ण भट्ट की आत्मकथा मे उल्लेख मिलता है “मेरे पिता ग्यारह भाई थे। मैंने उनमें से सबको नहीं देखा था। मेरे एक चचेरे भाई का नाम उडुपति था। वे उम्र में मुझसे बहुत बड़े थे, पर मेरे साथ उनका व्यवहार समवयस्कों के समान ही था। वे उस युग के प्रसिध्द तार्किक थे। उन्होंने ही वसुभूति नामक बौध्द भिक्षु को शास्त्रार्थ मे पराजित किया था। उनकी विव्दता और चारित्र्य का महाराजाधिराज हर्षवर्धन पर बड़ा प्रभाव था, और वे एकाएक वैदिक संत की ओर प्रवृत हो गए थे, और भाई उडुपति भट्ट मेरे ऊपर जितना स्नेह रखते थे उतना मेरे परिवार मे कोई नहीं रखता था और यह भी की माता-पिताजी के निधन के पश्चात भाई उडुपति जी ने उन्हें माता-पिता की तरह से स्नेह भी दिया था । बालकृष्ण भट्ट ने 'हिंदी प्रदीप' पत्रिका निकालते समय आजादी के लिए लड़ रहे सभी क्रांतिकारी व देश भक्त लोगों के हित मे लिखते हुए उनका मनोबल बढ़ाते रहे। परंतु उसको  उन्हें इसलिए बंद करना पड़ा क्योंकि 1909 में एक कविता माधव शुक्ल की एक कविता 'बम क्या है' प्रकाशित किया था। जो पत्रिका के अप्रैल के अंक में, उसके प्रकाशन के कारण ब्रिटिश सरकार नाराज हो गई जिनको यह कविता पसंद नहीं आई, और उन्होंने पत्रिका पर 3,000 रुपये का जुर्माना लगा दिया.  बालकृष्ण भट्ट के पास इतनी बड़ी राशि का भुगतान करने के लिए पैसे नहीं थे, और वे जमानत भरने के लिए भी असमर्थ थे इसलिए उन्हें पत्रिका बंद करनी पड़ी । मातृभाषा हिंदी के प्रति इसे अनुराग ही कहेंगे कि पं. बालकृष्ण भट्ट ने इसके लिए जीवन न्यौछावर कर दिया था। स्वयं का जीवन तंगहाली में गुजरा, मित्रों से आर्थिक सहयोग भी लेना पड़ता था लेकिन हिंदी प्रदीप जैसी कालजयी पत्रिका को उनके प्रयास से अमरता मिली। उनके जीवनकाल में हिंदी का परचम लहराने वालों का साथ मिलता था। प्रयागराज-भारती भवन पुस्तकालय से भी पं. बालकृष्ण भट्ट को काफी लगाव था। पं. बालकृष्ण भट्ट के बारे में विद्वान कहते है कि हिंदी प्रदीप मासिक पत्रिका में उनकी जान बसती थी। आर्थिक स्थिति हमेशा ठीक नहीं रहती थी। जब पत्रिका की प्रतियां बिक जाती थी तो उससे मिले पैसों से ड़ाई सौ ग्राम देशी घी खरीद कर गर ले जाते थे। इसके पीछे प्रतियां बिकने की उनकी खुशी भी होती थी। पत्रिका “हिंदी प्रदीप” में वह स्थानीय लोगों को जोड़ने का हर संभव प्रयास करते थे। किसी भी मोहल्ले या अन्य रिहायशी क्षेत्र का नाम जरूर देते थे। अपने लेख कोई भी इस पत्रिका में छपवा सकता था लेकिन शर्त थी कि उसमें हिंदी को प्राथमिकता हो। उनके कुछ निबंध पढ़ने का सौभाग्य मिला उनका लिखा एक निबंध “बातचीत” और “ आदि मध्य अवसान ” व्यक्तिगत तौर पर मुझे  ये निबंध मुझे बहुत पंसद है। जिसमें बातचीत निबंध व्यक्तित्व और निबंधकला के साथ-साथ भाषा-शैली का भी प्रतिनिधित्व करता है। दूसरा निबंध वेदांत दर्शन के सिध्दांत पर आधारित जीवन के तीन अवस्था पर उनका यह निबंध अत्यंत ही रोचक व आज की स्थिति को पूरे विस्तार से वर्णित करते हुए वर्तमान में हो रहे हमारे सामाजिक जीवन मे सभ्यता का अवसान एक चिंतन का विषय है। निबंध को कला के अर्थ में लेकर विचार किया जाए तो प्रतीक होगा कि भट्ट जी हिंदी के पहले निबंधकार है जिनके निबंधों में आत्मपरकता, व्यक्तित्व प्रधानता एवं कलात्मक शैली का प्रयोग हुआ है। युगीन अन्य साहित्यकारो की तरह उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक एवं साहित्यिक सबी विषयों पर कलम चलाई है । जहां राजनीतिक नुबंधों मे अत्याधिक आक्रोश व्यंजित है, तो साहित्यिक निबंधों मे भावना का लालित विलास। सामाजिक निबंधों ने समाज मे प्रचलित बुराईयों के प्रति आकर्षित किया है एवं नये समाज के आदर्श भी स्थापित करना चाहा है। बहुआयामी व्यक्तित्व के साहित्यकार बालकृष्ण भट्ट जी का निधन 20 जुलाई 1914 को हुआ था. उनके निधन के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है कि क्या यह किसी बीमारी के कारण हुआ था या नहीं. पर यह भी कहा जाता है की वे अस्वस्थ थे । 
हमारी विनम्र श्रध्दांजलि । 

चिरंजीव (स्वतंत्र लेखन)
संकलन एवं लेखन
लिंगम चिरंजीव राव
म.न. 11-1-21/1 ,कार्जी मार्ग
इच्चापुरम , श्रीकाकुलम (आन्ध्र प्रदेश)
पिन-532 312 मो.न. 863994