डॉ.बाबू श्यामसुंदर दास जन्म14-07-1875 - जयंती-14-07-2025

डॉ.बाबू श्यामसुंदर दास जन्म14-07-1875 - जयंती-14-07-2025
बाबू श्यामसुंदर दास को हिंदी की उच्च शिक्षा के प्रवर्तन और आयोजन का श्रेय है।,ऐसे साहित्यकार जिन्होंने ग्रंथो की ही नहीं ग्रंथकारों की भी रचना की है। “एक मात्र ऐसे हिंदी प्रेमी जिनके नाम का कोई भाषाकाल या साहित्यकाल निर्धारित न हो सका परंतु वे हिंदी जगत के भारतेन्दु व व्दिवेदी जी के समकक्ष थे।” बाबू श्यामसुंदर दास का जन्म काशी में 14 जुलाई 1875 को हुआ था। इनका परिवार लाहौर से आकर काशी में बस गया था और कपड़े का व्यापार करता था। इनके पिता का नाम लाला देवीदास खत्री था। बनारस केक्वींस कालेज से अँग्रेजी में 1897 में बी. ए. किया। जब इंटर के छात्र थे तभी सन् 1893 में मित्रों रामनारायण मिश्र और शिवकुमार सिंह के सहयोग से काशी नागरी प्रचारणी सभा की नींव डाली और 45 वर्षों तक निरंतर उसके संवर्धन में बहुमूल्य योग देते रहे। 1896 में “नागरीप्रचारणी पत्रिका” निकलने पर उसके प्रथम संपादक नियुक्त हुए और बाद में कई बार वर्षों तक उसका संपादन किया। “सरस्वती” के भी आरंभिक तीन वर्षों (1900 -1902) तक संपादक रहे। 1899 में हिंदू स्कूल के अध्यापक नियुक्त हुए और कुछ दिनों बाद हिंदू कालेज में अंग्रेजी के जूनियर प्रोफेसर नियुक्त हुए। 1909 में जम्मू महाराज के स्टेट आफिस में काम करने लगे जहाँ दो वर्ष रहे। 1913 से 1921 तक लखनऊ के कालीचरण हाई स्कूल में हेडमास्टर रहे। इनके उद्योग से विद्यालय की अच्छी उन्नति हुई। 1921 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग खुल जाने पर इन्हें अध्यक्ष के रूप में बुलाया गया। पाठ्यक्रम के निर्धारण से लेकर हिंदी भाषा और साहित्य की विश्वविद्यालय स्तरीय शिक्षा के मार्ग की अनेक बाधाओं को हटाकर योग्यतापूर्वक हिंदी विभाग का संचालन और संवर्धन किया। इस प्रकार इन्हें हिंदी की उच्च शिक्षा के प्रवर्तन और आयोजन का श्रेय है। उस समय विश्वविद्यालय स्तर की पाठ्यपुस्तकों और अलोचना ग्रंथों का अभाव था। इन्होंने स्वयं अपेक्षित ग्रंथों का संपादन किया, समीक्षाग्रंथ लिखे और अपने सुविज्ञ सहयोगियों से लिखवाए। बाबू श्यामसुंदर दास एक अकादमीय साहित्यकार थे। जिस प्रकार भारतेन्दु ने हिंदी गद्य का परिष्कार किया, इसी शैली दीः जिस प्रकार महावीर प्रसाद व्दिवेदी ने भाषा को व्याकरणिक संस्कार दिया, उसी प्रकार श्यामसुंदर दास ने हिंदी साहित्य अनुसंधान, प्राचीन ग्रंतों की खोज, कोष निर्माण, संपादन की ओर उन्मुख किया। श्यामसुंदर दास को व्यापक अर्थ में रामचंद्र शुक्ल और नंददुलारे वाजपेयी के निर्माण का भी श्रेय है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के माध्यम से बाबू श्यामसुन्दर दास ने हिंदी की बहुमुखी सेवा की और ऐसे महत्वपूर्ण कार्यों का सूत्रपात एवं संचालन किया जिनसे हिंदी की अभूतपूर्व उन्नति हुई। न्यायालयों में नागरी के प्रवेश के लिए मालवीय जी आदि की सहायता में उन्होंने सफल उद्योग किया।“ हिंदी वैज्ञानिक कोश” के निर्माण में भी योगदान दिया। हिंदी के लेख तथा लिपि प्रणाली के संस्कार के लिए आरंभिक प्रयत्न (1898) किया। हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों की खोज का काम आरंभ कर इन्होंने उसे नौ वर्षों तक चलाया और उसकी सात रिपोर्टें लिखीं। “”हिंदी शब्दसागर” के ये प्रधान संपादक थे। यह विशाल शब्दकोश इनके अप्रतिम बुद्धिबल और कार्यक्षमता का प्रमाण है। 1907 से 1929 तक अत्यंत निष्ठा से इन्होंने इसका संपादन और कार्यसंचालन किया। इस कोश के प्रकाशन के अवसर पर इनकी सेवाओं को मान्यता देने के निमित्त "कोशोत्सव स्मारक संग्रह" के रूप में इन्हें अभिनंदन ग्रंथ अर्पित किया गया। नागरी प्रचारिणी सभा ने हिंदी भाषा और साहित्य के विकास के लिए एक तरफ हस्तलिपि ग्रंथों का संग्रह, अनुवाद और पुरानी रचनाओं की खोज कर और उन्हें प्रकाशित कराने तथा नई रचनाओं को प्रकाश में लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया तो वहीं दूसरी तरफ नागरी लिपि के विकास के लिए विद्यालय भी खोले गए जिन्हें नागरी पाठशाला कहा गया और साथ ही इस लिपि के विकास के लिए लोगों को आर्थिक मदद देकर लिखने के लिए प्रोत्साहन भी दिया । हिंदी भाषा को अदालतों की भाषा और राजकीय कार्यालय की भाषा बनाने के लिए भी सभा ने गांव-गांव प्रचार प्रसार करने और इसके लिए आंदोलन करने के मुहिम में सदैव आगे रही। साथ ही पुरस्कारों और पदकों के माध्यम से भी हिंदी भाषा और साहित्य का प्रचार-प्रसार करती रही। आज इसकी अवस्था अत्यंत दयनीय हो गई है। ' नागरिक प्रचारिणी सभा' के दावेदारी को लेकर मुकदमेबाजी में संस्था अपनी गतिशीलता को खोता जा रहा है। इसे जल्द से जल्द आर्थिक मदद और मुकम्मल दावेदार की जरूरत है जो इसे सुचारु रूप से आगे ले जा सके। बाबू श्यामसुंदर दास से प्रयासों में ऐसे विवाद का कोई स्थान नहीं था परंतु वर्तमान समय इसे भी देख रहा है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की स्थापना और प्रथम अध्यक्ष बाबू श्यामसुंदर दास,हिंदी विभाग की स्थापना की नींव 1920 मे रखी गई थी,प्रारंभ मे यह विभाग सेंट्रल हिंदू कालेज भवन, वर्तमान मे पुराने स्नात्कोत्तर भवन, कला संकाय के दूसरे तल्ले में चलती थी, इस विभाग के खुल जाने के बाद व पहले से ही श्यामसुंदर दास जी का योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण व सराहनीय रहा। डॉ. बाबू श्याम सुंदर दास ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल को जो काम दिया था, वह बहुत ही सराहनीय व महत्वपूर्ण था उन दोनों के तालमेल से बहुत से ग्रंथों का निर्माण हो सका जो आज भी बहुत उपयोगी है। आचार्य शुक्ल जी सन् 1909-10 ई. के लगभग वे 'हिन्दी शब्द सागर' के सम्पादन में वैतनिक सहायक के रूप में काशी आए। इस कोश के प्रधान संपादक बाबू श्यामसुंदर दास थे। सन् 1927 में इस कोश का कार्य पूरा हुआ जिसकी लंबी भूमिका आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखी। साहित्य जगत के दो महान चित्रकारों की जुगलबंदी (आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी और बाबू श्यामसुंदर दास जी) ने साहित्य के आकाश को विशाल पटल प्रदान करने में काशी हिंदी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के माध्यम से जो महत्वपूर्ण कार्य किया है आज भी उनकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। सहयोग कुछ ऐसा एक ने किताब लिखी दूसरे ने उस किताब का पूरा अध्ययन कर उसकी विस्तृत भूमिका से किताब को जो स्वरूप दिया जिसने पाठको के लिए ,केनवास पर बने रंगों से सुंदर चित्रकला से कम नहीँ । रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में लिखा है बाबू साहब ने बड़ा भारी काम लेखकों के लिए सामग्री प्रस्तुत करने का किया है। हिंदी पुस्तकों की खोज के विधान द्वारा आपने साहित्य का इतिहास, कवियों के चरित और उन पर प्रबंध आदि लिखने का बहुत बड़ा मसाला इकट्ठा करके रख दिया। इसी प्रकार हिंदी के नये-पुराने लेखकों के जीवनवृत्त “हिंदी कोविद रत्नमाला” के दो भागों में संगृहीत किये हैं। शिक्षोपयोगी तीन पुस्तकों, भाषा विज्ञान, हिंदी भाषा और साहित्य तथा साहित्य लोचन, भी आपने लिखी या संकलित की है।" काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापनकार्य के समय उच्च अध्ययन में उपयोग के लिए इन्होंने भाषाविज्ञान, आलोचना शास्त्र और हिंदी विभाग, काशी हिंदी विश्वविद्यालय ।विश्वविद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई के लिए यदि बाबू श्यामसुंदर दास जी ने पुस्तकें तैयार न की होतीं तो शायद हिंदी का अध्ययन-अध्यापन आज सबके लिए इस तरह सुलभ न होता। उनके द्वारा की गयी हिंदी साहित्य की पचास वर्षों तक निरंतर सेवा के कारण कोश, इतिहास, भाषा-विज्ञान, साहित्यालोचन, सम्पादित ग्रंथ, पाठ्य-सामग्री निर्माण आदि से हिंदी-जगत समृद्ध हुआ। उन्हीं के अविस्मरणीय कामों ने हिंदी को उच्चस्तर पर प्रतिष्ठित करते हुए विश्वविद्यालयों में गौरवपूर्वक स्थापित किया।श्यामसुंदर दास का व्यक्तित्व तेजस्वी और जीवन हिंदी की सेवा के लिए अर्पित था। जिस जमाने में उन्होंने कार्य शुरु किया उस समय का वातावरण हिंदी के लिए अत्यंत प्रतिकूल था। सरकारी कामकाज और शिक्षा आदि के क्षेत्रों में वह उपेक्षित थी। हिंदी बोलनेवाला अशिक्षित समझा जाता था। ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में हिंदी के प्रचार प्रसार और संवर्धन के लिए उन्होंने कशी नागरीप्रचारिणी सभा को केंद्र बनाकर जो अभूतपूर्व संघबद्ध प्रयत्न किया उसका ऐतिहासिक महत्व है। ये उच्च कोटि के संगठनकर्ता और व्यवस्थापक थे। समर्थ मित्रों के सहयोग और अपने बुद्धिबल तथा कर्मठता से उन्होंने हिंदी की उन्नति के मार्ग में आनेवाली कठिनाइयों का डटकर सामना किया और सफलता प्राप्त की। उनकी दृष्टि व्यक्तियों की क्षमता पहचानने में अचूक थी। उन्होंने अनेक व्यक्तियों को प्रोत्साहित कर साहित्य के क्षेत्र में ला खड़ा किया। इसीलिए कहा गया है कि उन्होंने "ग्रंथों की ही नहीं, ग्रंथकारों की भी रचना की"।
बाबू श्याम सुन्दर दास ने अनेक ग्रंथों की रचना की। उन्होंने लगभग सौ ग्रंथों का संपादन किया। उन्हें अप्रकाशित पुस्तकों की खोज करके प्रकाशित कराने का शौक था। उनके मौलिक ग्रंथों में साहित्यालोचन, भाषा विज्ञान, हिंदी भाषा का विकास, गोस्वामी तुलसी दास, रूपक रहस्य आदि प्रमुख हैं। इन्होंने परिचयात्मक और आलोचनात्मक ग्रंथ लिखने के साथ ही कई दर्जन पुस्तकों का संपादन किया। पाठ्यपुस्तकों के रूप में इन्होंने कई दर्जन सुसंपादित संग्रह ग्रंथ प्रकाशित कराए। इनकी प्रमुख पुस्तकें हैं - हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1, 2 (1909-1914), साहित्यालोचन (1922), भाषाविज्ञान (1923), हिंदी भाषा और साहित्य (1930) रूपकहस्य (1931), भाषारहस्य भाग 1 (1935), हिंदी के निर्माता भाग 1 और 2 (1940-41), मेरी आत्मकहानी (1941), कबीर ग्रंथावली (1928), साहित्यिक लेख (1945)।
श्याम सुंदर दास ने अपना पूरा जीवन हिंदी-सेवा को समर्पित कर दिया। उनके इस तप-यज्ञ से अनेक पुस्तकें साहित्य को प्राप्त हुईं : जैसे नागरी वर्णमाला (1896), हिंदी कोविद रत्नमाला (भाग 1 और 2) (1900), हिंदी हस्तलिखित ग्रंथों का वार्षिक खोज विवरण (1900-05), हिंदी हस्तलिखित ग्रंथों की खोज (1906-08), साहित्य लोचन (1922), भाषा-विज्ञान (1929), हिंदी भाषा का विकास (1924), हस्तलिखित हिंदी ग्रंथों का संक्षिप्त विवरण (1933), गद्य कुसुमावली (1925), भारतेंदु हरिश्चंद्र (1927), हिंदी भाषा और साहित्य (1930), गोस्वामी तुलसीदास (1931), रूपक रहस्य (1913), भाषा रहस्य (भाग-1, 1935), हिंदी गद्य के निर्माता (भाग 1 और 2) (1940) और आत्मकथा मेरी आत्म कहानी (1941)। श्यामसुंदर दास ने सम्पादन के क्षेत्र में तो अद्भुत, अपूर्व प्रतिभा का परिचय दिया : जैसे, नासिकेतोपाख्यान अर्थावली (1901), छत्रप्रकाश (1903), रामचरितमानस (1904), पृथ्वीराज रासो (1904), हिंदी वैज्ञानिक कोष (1906), वनिता विनोद (1906), इंद्रावती (भाग-1, 1906), हम्मीर रासो (1908), शकुंतला नाटक (1908), प्रथम हिंदी साहित्य सम्मेलन की लेखावली (1911), बाल विनोद (1913), हिंदी शब्द सागर (खण्ड- 1 से 4 तक, 1916), मेघदूत (1920), दीनदयाल गिरि ग्रंथावली (1921), परमाल रासो (1921), अशोक की धर्मलिपियाँ (1923), रानीखेत की कहानी (1925), भारतेंदु नाटकावली (1924), कबीर ग्रंथावली (1928), राधाकृष्ण ग्रंथावली (1930), द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ (1933), रत्नाकर (1933), सतसई सप्तक (1933), बाल शब्द सागर (1935), त्रिधारा (1935), नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1 से 18 तक), मनोरंजन पुस्तक माला (1 से 50 तक), सरस्वती (1900 तक)। बाबू श्यामसुंदर दास ने इतना काम हिंदी साहित्य के लिए किया है कि वे एक व्यक्ति से ज़्यादा संस्था बन गये। उन्होंने मानस सूक्तावली (1920), संक्षिप्त रामायण (1920), हिन्दी निबंधमाला (भाग-1/2, 1922), संक्षिप्त पद्मावली (1927) और हिंदी निबंध रत्नावली (1941) का सम्पादन भी किया। विद्यार्थियों के लिए उन्होंने उच्चस्तरीय पाठ्य पुस्तकें तैयार कीं। इस तरह की पाठ्य पुस्तकों में भाषा सार संग्रह (1902), भाषा पत्रबोध (1902), प्राचीन लेखमाला (1903), हिंदी पत्र-लेखन (1904), आलोक चित्रण (1902), हिंदी प्राइमर (1905), हिंदी की पहली पुस्तक (1905), हिंदी ग्रामर (1906), हिंदी संग्रह (1908), गवर्नमेण्ट ऑफ़ इण्डिया (1908), बालक विनोद (1908), नूतन-संग्रह (1919), अनुलेख माला (1919), हिंदी रीडर (भाग-6/7, 1923), हिंदी संग्रह (भाग-1/2, 1925), हिंदी कुसुम संग्रह (भाग-1/2, 1925), हिंदी कुसुमावली (1927), हिंदी-सुमन (भाग-1 से 4, 1927), हिंदी प्रोज़ सिलेक्शन (1927), गद्य रत्नावली (1931), साहित्य प्रदीप (1932), हिंदी गद्य कुसुमावली (1936), हिंदी प्रवेशिका पद्यावली (1939), हिंदी गद्य संग्रह (1945), साहित्यिक लेख (1945)। समय-समय पर विभिन्न विषयों पर सम्मेलनों में दिये जाने वाले उनके वक्तव्यों की संख्या अनगिनत है। इस समस्त चिंतन पर दृष्टि डालने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे किस तरह हिंदी साहित्य को अनेक विषयों से जोड़कर आगे बढ़ाना चाहते थे। आज भी बाबूजी की बहुत बड़ी देन है पाठ्य-सामग्री की प्रामाणिक रचना तथा अध्ययन के क्षेत्र का विवेक। विद्यार्थियों के लिए ताज़ा सामग्री लाने के उनके हर क्षण के प्रयास का नतीजा यह हुआ कि वे संग्रहकार बनते रहे। आलोचना की जाती है कि इसी कारण उनके लेखन में गहरायी और मौलिकता का अभाव होता गया। लेकिन देखने की बात यह है कि उनकी समन्वयवादी बुद्धि अनेक ज्ञान- क्षेत्रों की सामग्री-संग्रह में निमग्न रही। यहाँ तक कि व्यावहारिक-आलोचना में भी बाबूजी ने सामंजस्यवाद का सौंदर्य स्थापित किया। इसीलिए उनकी आलोचना में तुलना, ऐतिहासिक दृष्टि, व्याख्या, भाष्य आदि का प्रवेश होता गया। इस तरह हिंदी में व्यावहारिक-आलोचना का आरम्भिक मार्ग भी उन्होंने तैयार किया। उनका यह कुशल नेतृत्व आगे चलकर हिंदी-भाषी क्षेत्र के लिए वरदान सिद्ध हुआ। बाबू श्यामसुंदर दास ने विचारात्मक तथा भावात्मक दोनों ही एक प्रकार के निबंध लिखे हैं। उनके निबंधों के विषय में पर्याप्त विविधता है। उन्होंने बहुत से अछूते विषयों पर भी लेखनी चलाई कवियों की खोज तथा इतिहास संबंधी निबंधों में उनकी प्रतिभा के दर्शन होते हैं। बाबू श्याम सुंदर दास की भाषा शुद्ध साहित्यिक हिंदी है, जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है। भाषा के संबंध में उनका विचार था- 'जब हम विदेशी भावों के साथ विदेशी शब्दों को ग्रहण करें तब उन्हें ऐसा बना लें कि उनमें से विदेशीपन निकल जाए और वे अपने होकर हमारे व्याकरण के नियमों से अनुशासित हों।' इसलिए जहाँ कहीं उन्होंने अपनी भाषा में 'उर्दू' के प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया है, वहाँ उनका उर्दूपन निकाल दिया है, कलम, कवायद, कानून आदि शब्दों के नीचे की बिंदी हटाकर और उनके उच्चारण बदल कर उन्होंने उनका प्रयोग लिया है। इसी प्रकार संस्कृत के शब्दों की क्लिष्टता दूर कर के उन्हें हिंदी में सरल ढंग से लिखा है- जैसे- कार्य के स्थान पर कार्य, अञ्जन के स्थान पर अंजन। शब्द चयन के बारे में बाबू श्यामसुंदर दास का मत था- 'सबसे पहला स्थान शुद्ध हिंदी के शब्दों को, उसके पीछे संस्कृत के सुगम और प्रचलित शब्दों को, इसके पीछे फारसी आदि विदेशी भाषाओं के साधारण और प्रचलित शब्दों का और सबसे पीछे संस्कृत के अप्रचलित शब्दों को स्थान दिया जाए। फारसी आदि विदेशी भाषाओं के कठिन शब्दों का प्रयोग कदापि न हो।बाबू श्याम सुंदर दास जी के लेखन व अन्य संग्रहण कार्य का विस्तार इतना अधिक व वैविध्यपूर्ण है कि उनके विषय मे अनेक किताबें भी कम पड़ जाएगी उनके जीवन वृत को समझने व उनके कार्यों के विषय मे इतना कुछ अधिक है अतः इस देश भक्त व हिंदी प्रेमी साहित्यकार पर हम जितना भी लिखे कम ही होगा। उन्हें आचार्य रामचंद्र शुक्ल का सान्निध्य अन्य महान साहित्यकारों के साथ मिला और उनका संपर्क लगातार बना रहा। बाबू श्यामसुंदर दास जी शुक्लयुग के एक महत्वपूर्ण व अग्रणी स्थान रखने वाले साहित्यकार थे। श्याम सुंदर दास जीवन के अंतिम क्षण तक साहित्य-सेवा में सक्रिय रहे। स्वतंत्रता से ठीक पहले और बाद की हिंदी की पूरी पीढ़ी ही बाबूजी के कंधों पर बैठकर ही बढ़ी हुई। हिंदी के चतुर्मुखी विकास के लिए उन्होंने विविध विषयों पर लेखन किया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष के रूप में भी कार्यरत रहे। अंत में सन् 1945 ई॰ को इनकी मृत्यु हो गयी। तिथि कही नही मिल पायी । हिंदी के उन्नयन के विविध आयामों से जो आज भी उपयोगी है से हमारा परिचय कराने वाले साहित्यकार को हमारी विनम्र श्रध्दांजलि।
चिरंजीव
लिंगम चिरंजीव राव
म.न.11-1-21/1, कार्जी मार्ग
इच्छापुरम ,श्रीकाकुलम (आन्ध्रप्रदेश)
पिनः532 312 मो.न.8639945892
स्वतंत्र लेखन (संकलन व लेखन)