राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)  

‘न्यूनतम सर्वानुमति’’? देश की वर्तमान आवश्यकता।
    ‘‘भूमिका’:-

हमारे देश की राजनीति में कुछ समान, विभिन्न व विपरीत विचारधाराओं के राजनैतिक दल हैं। अतः उनकी कार्य पद्धति और कार्यों (एक्शन) में अंतर होना स्वाभाविक ही है। सिवाय देश हित के मूल महत्वपूर्ण मुद्दों पर जहां समस्त दलों का यह संवैधानिक नैतिक दायित्व बन जाता है कि वे ‘‘एक स्वर’’ ‘‘एक धारा’’ और ‘‘एक आवाज’’ में ‘‘देश हित’’ के मुद्दों पर अपनी बात बुलंदी के साथ जनता के सामने न केवल रखें; बल्कि उनके अनुरूप धरातल पर वास्तविक कार्य करते हुए दिखें भी। ताकि विश्व पटल पर यह दर्शित प्रदर्शित होकर सुनिश्चित हो सके कि ‘‘अनेकता में एकता’’ लिए हुए ‘‘कश्मीर से कन्याकुमारी’’ तक भारत देश ‘‘एक’’ है।

‘‘मणिपुर घटना’’

देश की राजनीति में पहले से ही चिंताजनक रूप से मौजूद उक्त ज्वलंत प्रश्न पर मणिपुर की उक्त घटना ने गंभीर रूप से सिर झुकाए तुरत-फुरत सोचने, विचारने व विवेचना के लिए विवश किया है। मणिपुर की घटना ने देश ही नहीं, विश्व को अचंभित, क्षुब्ध व आक्रोशित कर दिया है, जहां हमारा सिर पहली बार विश्व पटल पर महिलाओं के मान-सम्मान को लेकर इस तरह से नीचा हुआ है। मणिपुर में 3 मई को हिंसा प्रारंभ होने के तुरंत बाद उक्त घटना 4 मई की बतलाई जा रही है। जबकि वीडियो अभी दो दिन पूर्व अर्थात 18 जुलाई को ‘वायरल’ होने के कारण देश शर्मसार हो गया है। लगभग इसी समय छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी शर्मसार करने वाली घटनाएं अवश्य हुई है। परन्तु किसी भी घटना को मणिपुर की दो महिलाओं के मान-सम्मान, सार्वजनिक रूप से यौन उत्पीड़न, परेड, पीडिता के भाई के सामने उसका बलात्कार, फिर भाई व पहले पिता की हत्या जो महिलाओं की अस्मिता को तार-तार कर देने वाली घटनाओं के साथ जोड़ना, दुर्भाग्यपूर्ण होकर निश्चित रूप से मणिपुर घटना की वीभत्सता को अनदेखा कर अथवा कम कर राजनैतिक सहूलियत की दृष्टि से उठाया गया कदम ही कहा जा सकता है।

‘‘प्रतिक्रिया की सर्वानुमति क्यों नहीं?’’
   

 क्या इस देश में सहमति, सर्वानुमति के लिए कोई मुद्दा शेष रह ही नहीं गया हैं? यह बात क्या अंतिम रूप से मान ली जाए? निश्चित रूप से देश के विभिन्न राज्यों में विभिन्न पार्टियों की परस्पर विरोधी विचार धाराओं की सरकारें हैं। जब भी किसी राज्य में कोई हिंसा, दंगा, हत्या, बलात्कार, लूटमार, आतंकवाद जैसे गंभीर अपराधों की घटनाएं घटती रहती है, तब राज्य का शासन, प्रशासन, मुख्यमंत्री, गृह मंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी के नेता, प्रवक्ता घटनाओं पर प्रतिक्रिया में रटारटाया जवाब दे देते हैं कि घटना बहुत ही, दुर्भाग्यपूर्ण है, निंदनीय है और कानून अपना काम करेगा। दोषियों को छोड़ा नहीं जायेगा। अपराधियों को तुरंत गिरफ्तार कर अधिकतम सजा दिलाए जाने का प्रयास किया जाएगा। ज्यादा चिल्लाहट होने पर जांच आयोग बैठालने की घोषणा कर दी जाती है। साथ ही मलहम लगाने की दृष्टि से कम, राजनैतिक विरोध को कम करने की दृष्टि से नगद, नौकरी इत्यादि मुआवजे की घोषणा भी हो जाती है। विपरीत इसके विपक्ष को सरकार को कटघरे में खड़ा कर उनकी आलोचना करने में शब्द ही कम पड़ जाते हैं। कानून व्यवस्था चरमरा गई, ध्वस्त हो गई, से लेकर मंत्री और मुख्यमंत्री से इस्तीफे की मांग के अलावा कभी-कभी तो राज्यपाल शासन की भी तक मांग कर दी जाती है। साथ ही लाव-लश्कर के साथ मीडिया के कैमरों के साथ घटना-स्थल पहुंचने का अपना नैतिक, संवैधानिक व राजनैतिक दायित्व विपक्ष मानता है, तो वहीं दूसरी ओर सरकार विपक्ष के इस कदम को फौरी गंदी राजनीति करने का आरोप लगाते हुए उनके उक्त कदम को घटना के बाद की परिस्थितियों के सामान्य करने की दृष्टि में उठाए गए अथवा उठाये जाने वाले कदमों में बड़ी रुकावट मानती है।

‘‘प्रतिक्रिया का रेसिप्रोकल आदान-प्रदान’’

बेशर्मी की हद तो तब होती है, जब जिस राज्य में ऐसे आपराधिक घटनाएं घटित होती है, तो ऐसे राज्य के ‘‘विपक्षी दल की सत्ता वाले राज्यों’’ में भी इसी प्रकार की ऐसी ही (सेम) घटनाएं जब होती है, तब ‘‘रेसिप्रोकल’’ होकर दोनों दल (पक्ष-विपक्ष) परस्पर प्रतिक्रियाओं को बंद लिफाफों के द्वारा सुविधाजनक रूप से अदला-बदली कर अपने दायित्व से मुक्त होने का अहसास कर लेते हैं। जिस प्रकार लान टेनिस या बैडमिंटन के खेल के मध्यांतर के बाद ग्राउंड के छोर पर परस्पर बदल लिये जाते हैं। पक्ष-विपक्ष ‘‘इतिहास के झरोखे में’’ अपने-अपने विरोधियों को बिना किसी झिझक व हिचक के अपनी-अपनी बारी आने पर ले जाते हैं। तब लाचार जनता अपने को ‘‘ठगा हुआ सा’’ महसूस करती है। आज की भारतीय राजनीति का यह एक ‘कटु’ परंतु बेवकूफी व शर्मिंदा युक्त सत्य है, जिससे छुटकारा पाने की बेहद आवश्यकता है।

‘‘सर्वानुमति की आवश्यकता‘‘
   

क्या राजनेताओं को इस बात की समझ नहीं रह गई है कि पुलिसिया तंत्र दिन प्रतिदिन नए कानून बनने के बावजूद इतना लाचार और कमजोर हो चुका है, जहां अपराधियों को तो शायद रोका नहीं जा सकता है, तथापि अपराधियों के विरुद्ध तंत्र में कुछ जरूरी सुधार कर कार्रवाई अवश्य की जा सकती है। तब फिर एक राज्य में हुई घटना पर एक दल वैसी प्रतिक्रिया देता क्यों है, जब दूसरा दल उसे उसके राज्य में उसी तरह की घटित अपराधों का पुलिंदा दिखाकर उसे ‘‘आइना’’ दिखाता है। तब तो घिग्घी बंद होकर आप निरुत्तर हो जाते हैं। लेकिन बेशर्मी की राजनीति में किसी भी दल को ‘‘शर्म’’ महसूस नहीं होती है। ऐसी स्थिति में पक्ष-विपक्ष दोनों के लिये घटना पर दुख प्रकट करते हुए घटना से सबक लेकर भविष्य में ऐसी घटना न घटे का सबक लेते हुए भविष्य में उपरोक्त तरह की एक दूसरे की कड़ी आलोचनात्मक प्रतिक्रियाएँ न देकर रचनात्मक सुझाव देने का संकल्प क्यों नहीं लेते हैं? तभी शासन शांत चित्त होकर घटना के बाद की स्थितियों से निपटने के लिए सभी उचित प्रबंध व कार्रवाई कर सकेगें। ‘‘शर्म’’ और ‘‘राजनीति’’ का कोई संबंध अब रह गया है क्या? जो आप हम पर थोप रहे हैं? अवश्य कुछ लोग यह भी कह सकते है।

मणिपुर समस्या है क्या-

संक्षिप्त में मणिपुर की वर्तमान की मुख्य समस्या मणिपुर के तीन प्रमुख समुदाय मैतेई, नगा व कुकी दो समुदाय कुकी व मैतेई के बीच जातीय संघर्ष को बतलाया जाता है। जो अब दोनों समुदायों के बीच खाई इतनी बढ़ गई है या कहे कि बढ़ा दी गई है कि स्थिति पर फिलहाल काबू करना किसी के बस की बात नहीं रह गई हैं। सिर्फ जैसा कि कहा जाता है ‘‘समय ही घावों को भरता’’ है। आप एक लाइन से समझिये कि देश के कुछ स्थान जहां मुस्लिम बहुसंख्यक है, वहां लड़ाई हिंदू-मुस्लिम के बीच कुछ उग्रवादी तत्व दंगा भड़का देते है। इससे भी ज्यादा बदतर कुकी-मैतेई जनजाति समाज के बीच की हो गई है। जहां वैपन्स (हथियारों) के साथ महिलाओं को भी इस जातीय संघर्ष में एक ‘‘हथियार’’ बना लिया गया है। 60 विधायकों में से 40 विधायक मैतेई व 20 विधायक नगा-कुकी जनजाति के है और मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ‘‘मैतेई’’ जाति के है, स्वयं जिन पर मुख्य रूप से समस्या पैदा करने का आरोप लगाया जा रहा है। मणिपुर की जटिल समस्या का विस्तृत विवरण अलग से किसी दूसरे लेख में किया जायेगा।

बर्बरतापूर्ण घटना का घटनाक्रमः-

मणिपुर के उच्च न्यायालय का दिनांक 19 अप्रैल को यह निर्णय आया कि ‘‘मैतेई’’ समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल किया जाये। 60 में से 40 विधायक मैतेई जाति के होने के कारण व शेष 20 नगा-कुकी जो ईसाई धर्म को मानते है, के दिलों-दिमाग में उच्च न्यायालय के उक्त निर्णय से यह आशंका पैदा हुई कि ‘‘मैतेई’’ को आरक्षण मिलने से उनके अधिकारों का और बंटवारा होगा। परिणाम स्वरूप 3 मई को हिंसा की जो वारदात प्रारंभ हुई, वह आज तक रूक नहीं पायी है और उक्त जातिवादी हिंसा में अभी तक 142 व्यक्ति मारे गये है व 300 से ज्यादा घायल हुए हैं।
3 मई से हिंसा का तांडव प्रारंभ होने के बाद अगले दिन 4 तारीख को ‘थोबल’ में दरिंदगी व दिल दहला देने वाली मानवता व महिला सम्मान की समस्त सीमाओं को भेद कर उक्त अकल्पनीय घटना घटित हो जाती है, जिसकी जानकारी विश्व सहित पूरे देश को 19 जुलाई को उक्त घटना का ‘‘वीडियो वायरल’’ होने से ही मिली। 18 तारीख को ‘‘जीरो’’ पर थाने में गांव के मुखिया द्वारा शिकायत की जाती है। 1 महीने बाद 21 जून को उक्त शिकायत को क्षेत्राधिकार वाले थाने में हस्तांतरित किया जाता है। तब जाकर 49 दिन बाद प्राथमिकी दर्ज होती है। राष्ट्रीय महिला आयोग को दिनांक 12 जून को शिकायत दर्ज होती है, परन्तु कोई कार्रवाई नहीं होती हैं। घटना के बाद वीडियो वायरल होने के बीच कई बार पीडिता की चर्चा सोशल मीडिया में आयी। लेकिन ज्यादा वायरल न होने के कारण शायद इस पर किसी का ध्यान नहीं गया।
केन्द्रीय सरकार ने मणिपुर में उत्पन्न उक्त आंतरिक अशांति या रक्षा करने के लिए अनुच्छेद 355 लागू किया है। वैसे शायद यह पहली बार हुआ है, जब केन्द्र की सरकार ने अपनी ही पार्टी की राज्य सरकार के विरुद्ध अनुच्छेद 356 का उपयोग किया है जो केंद्र सरकार की मनसा का घोतक है। अनुच्छेद 355 का उपयोग कर स्थिति सुधारने की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। तब ही अनुच्छेद 356 का उपयोग किया जाना उचित होग। वैसे यहां पर उल्लेख करना सामयिक होगा कि पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में 8 लोगों को घर में जिंदा जलाया गया था, तब कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने पश्चिम बंगाल में अनुच्छेद 355 की मांग की थी। इस पर ममता बनर्जी की विरोधी पार्टी बीजेपी के केंद्र में सरकार होने के बावजूद उक्त मांग नहीं मानी गई थी।