‘‘आचार्य दादा धर्माधिकारी की 125 वीं जयंती कार्यक्रम’’!
राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)
‘‘आचार्य दादा धर्माधिकारी की 125 वीं जयंती कार्यक्रम’’!
आजादी के अमृत महोत्सव काल में 18 जून 2023 को ‘‘दादा’’ जिनका पूरा नाम शंकर त्र्यंबक धर्माधिकारी है, की 125 वीं जयंती ‘‘दादा’’ के आचार विचार के अनुरूप अत्यंत ही सादगी पूर्ण तरीके से लेकिन बहुत ही गरिमामय पूर्ण खांटी गांधी वादी गांधी, पीस फाउंडेशन के पूर्व उपाध्यक्ष और एकता परिषद के अध्यक्ष तथा योजना आयोग के पूर्व सदस्य राजगोपाल पीवी के मुख्य आतिथ्य में गणमान्य लोगों की उपस्थिति में भावपूर्ण वातावरण में मुलताई में मनाई गई, जो ‘‘दादा’’ की ‘‘जन्मभूमि’’ है। यद्यपि ’‘‘कर्मभूमि’’ मुलताई ‘‘दादा’’ की कभी नहीं रही, क्योंकि एक तो बचपन में पिताजी टीडी धर्माधिकारी, ब्रिटिश शासन में जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पद पर कार्यरत थे, के जगह-जगह स्थानांतरण होने के कारण विभिन्न जगहों में रहने से य दूसरा उनका व्यक्तित्व बदलते गुजरते समय के साथ इतना विशाल हो गया था कि, उनकी कर्मभूमि मुख्य रूप से वर्धा होकर बाद में धीरे-धीरे आगे जाकर देश की स्वतंत्रता के लिए स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के चलते राष्ट्रव्यापी हो गई। वर्तमान परिदृश्य में मानवता के हित में जहां स्वतंत्र और सार्थक चिंतन जैसे ‘‘गूलर का फूल’’ हो गया है, दादा जैसे उदारमना व्यक्तित्व जाति धर्म, यहां तक कि राष्ट्र की सीमाओं से परे जाकर सत्य को देखते थे और अपने विचार, वाणी एवं कर्म द्वारा जगत को उस सत्य से साक्षात्कार कराते थे। ‘‘परोपकाराय सतां विभूतयरू’’। वस्तुत: उनका दर्शन मानव विकास पर ही पूर्णता केंद्रित था।
दादा’ की जयंती मनाने का विचार मुलताई के कुछ संभ्रांत नागरिकों के मन में आया, तब जयंती मनाने के पूर्व ही उनके बताए पथ पर चलने वाले गांधीवादी, विनोबा भावे के अनुयायियों और परिवार के गणमान्य सदस्यों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि ‘‘दादा’’ इस बात के कभी पक्षधर नहीं रहे हैं कि उनकी जयंती मनाई जाए अथवा उनके निधन पर शोक सभा हो या कोई स्मारक बने। अर्थात वे महिमा मंडित होने के सख्त खिलाफ थे। ‘‘ख़ुशबू को इत्रफरोश की सिफारिश की जरूरत नहीं होती’’। मतलब साफ था! दादा स्वयं के व्यक्तित्व या व्यक्ति के प्रति अंतर्मुखी होकर परंतु ‘‘कार्य’’ ‘‘कर्म’’ के प्रति बह्यमुखी होकर अपने स्वयं के अस्तित्व को अपनी सेवा कार्य आचार-विचार के माध्यम से जनता में समाहित कर स्वयं की पहचान को समाप्त कर देश की पहचान को आत्मसात कर लिया। इसका सबसे बड़ा सबूत यही है कि वे अपने ‘‘मूल’’ नाम से न जाने जाकर लोगों के प्यार से उनको दी गई ‘‘दादा’’ की उपाधि से ही वे अपने प्रशंसकों व आम लोगों के बीच जाने जाते हैं। शायद यही कारण रहा होगा, उनकी सोच का, जयंती न मनाने का।
बावजूद दादा के परिवार वालों व कई स्थानीय प्रशंसकों के मन मे यह विचार आया कि दादा की जन्मस्थली सलल पवित्र नदी मां ताप्ती के उद्गम स्थल मुलतापी (मुलताई) है, जो बैतूल की एक तहसील है। जहां उनके परिवार के अन्य सदस्य पढ़े लिखे और देश में उच्चतम न्यायालय के उच्चतम पद न्यायाधिपति से लेकर विभिन्न उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पदों पर पहुंचे। इस कारण यदि धर्माधिकारी परिवार को ‘न्याय’ का पर्यायवाची ‘‘राजहंस’’ कहा जाय तो गलत नहीं होगा। ‘‘राजहंस बिन को करै नीर क्षीर बिलगाव’’। किसी भी व्यक्ति का जीवन एक पीढ़ी भर का होता है, लेकिन उसके आचार विचार का प्रकाश पीढ़ी दर पीढ़ियों के पथ को आलोकित करता है। परंतु वर्तमान पीढ़ी खासकर नवयुवक ‘‘दादा’’ की जीवनी से प्रायः अनजान ही रही है। प्रश्न दादा की जीवनी का नहीं बल्कि उनके आचार विचार और तदनुसार ‘‘कर्म कांड’’ का है! क्योंकि ‘‘व्यक्ति की पहचान हमेशा उसके द्वारा छोड़ी गयी उपलब्धियों से होती है’’। जो कुछ उन्होंने देश को दिया उसको जानने का अधिकार नव पीढ़ी को भी है।
उनके आचार-विचार को प्रचारित-प्रसारित करने का एक तरीका दादा द्वारा लिखी और उन पर लिखे साहित्य की परिणीती से हुई है। परन्तु इस तरीके से दादा के विचार प्रबुद्ध वर्ग के बीच ही पहुंच पाए, जिस कारण से उनके विचारों को पढ़कर आत्मसात करने का एक अवसर उक्त वर्ग को मिला। तथापि आम जनता, खासकर युवा वर्ग सो कमोवेश उनके विचारों से वंचित रहने को सबसे आसान तरीके से दादा के विचारों की ओर मोड़ा जा सकता है, तो वह एक तरीका जयंती मनाने विचारों में आया। यह अवसर आया, तब यह सोचा गया कि 125 वीं जयंती न तो मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में, न ही देश की राजधानी दिल्ली में बल्कि उनकी जन्मस्थली मुलतापी (मुलताई) में बिना किसी सरकारी सहयोग के मनाई जाकर कम से कम मुलताई की जनता को युवा जनता को इस बाबत जानकारी दे सके। यदि परिवार चाहता तो इस जयंती को सरकारी स्तर पर भी मनाया जा सकता था, जैसा कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने 125 वीं जयंती के अवसर पर ट्वीट कर शुभकामना संदेश दिया। अंततः इन उद्देश्यों को लेकर भावपूर्ण, सादगीपूर्ण उपरोक्त तरीके से महान गांधीवादी विचारक चिंतक राजगोपाल पीवी के मुख्य आतिथ्य वह अन्य ‘‘शिष्ट’’ अतिथियों की उपस्थिति में जयंती मनाई, जो अपने लक्षित उद्देश्यों को पाने में प्रायः सफल रही। इस अवसर पर उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त जस्टिस देवदत्त धर्माधिकारी का यह कथन सबसे महत्वपूर्ण रहा कि गांधी जी की विचारधारा सिर्फ भारत के लिए ही नहीं, बल्कि विश्व के लिए आज भी प्रासंगिक है। और इस गांधीवाद के ‘‘अग्रदूत’’ ही तो ‘‘दादा’’ थे।
वास्तव में यदि ‘‘दादा’’ को 100 वीं जयंती पर मुलतापी में (देश में कुछ जगह मनाई गई थी) ही याद किया जाता तो वर्तमान प्रौढ़ पीढ़ी को युवावस्था में ही उनके बाबत जानकारी मिल जाती। तब वे भी अपने जीवन में भी उन सिद्धांतों को अपनाने का तत्समय प्रयास कर पाते। कहा जाता है’ः ‘‘अविवेकः परमापदां पद्म’’ और ‘‘जब जागो तब सबेरा’। ‘‘दादा’’ के सजीव विचारों को जानते हुए जयंती न मनाने के विचारों की उस हिचक को पार करना इतना आसान भी नहीं था। चूंकि ‘‘विचार कभी मरते नहीं है’’, दादा जैसी विभूतियों के विचार, सिद्धांत आज भी देश की वर्तमान परिस्थिति के लिए उतने ही प्रासंगिक है। जरूरत वर्तमान पीढ़ी को दादा के समीप जाने की है क्योंकि ‘‘प्यासा ही कुएं के पास जाता है’’। अंततः विचारों को जीवंत बनाये रखने के लिए जयंती समारोह, विचारों तथा महिमा मंडित न होने के बीच अद्भुत संतुलन स्थापित कर समस्त भावनाओं का आदर व सम्मान करते हुए बेहद सादगी पूर्ण रूप से समारोह सम्पन्न हुआ। साथ ही उनके नाम से निज निवास तक जाने वाले मार्ग स्थल तथा कॉलेज के हाल का नामकरण किया गया जो छोटी सी बात है।
आचार्य दादा धर्माधिकारी एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कुशल लेखक, गहन विचारक, चिंतक, दार्शनिक और शिक्षक व इन सबसे ऊपर ‘‘सिद्धांत जीवी’’ मानस व्यक्ति थे। ‘‘वक्तव्य कौशल’’ के कारण उन्हें विश्व नागरिक की तरह बोलने वाला भी कहा गया। विनोबा भावे ने उन्हें ‘‘ऋजुता योगी’’ के उपनाम से सराहा। तथापि यदि दादा के आचार- विचार और तदनुसार कर्म को ध्यान में रखा जाए तो दादा को ‘‘जोगी’’ और ‘‘योगी’’ से ज्यादा ‘‘कर्म योगी’’ कहना ज्यादा उचित होगा। यद्यपि दादा के जीवन व विचार के बाबत पर्याप्त साहित्य उपलब्ध है। परन्तु उन सबका पूरा उल्लेख जगह की कमी के कारण संभव नहीं है। हां एक सुझाव जरूर देना चाहता हूं। आजकल राष्ट्रीय पाठ्यक्रमों में कई आमूलचूल परिवर्तन किया जा रहे हैं। तब पाठ्यक्रम में ‘‘दादा’’ के विचारों को शामिल किया जाए, ताकि स्कूल स्तर से ही विद्यार्थियों को दादा के जीवन व आचार-विचारों के संबंध में जानकारी होने पर उनसे प्रेरणा ले सकें।
दादा एक ‘‘दृष्टि पुरुष’’ थे। शायद इसलिए नागपुर के मॉरिस कॉलेज में प्रथम वर्ष में पढ़ते समय ‘‘दादा’’ गांधी जी के आह्वान पर ‘‘असहयोग आंदोलन’’ में शामिल होने के लिए पढ़ाई छोड़ कर आंदोलन में कूद पड़े। फिर कभी वापस पढ़ाई करने नहीं गए। समय-समय पर विभिन्न आंदोलनों में भाग लेते हुए कई बार जेल भी गये। जेपी के ‘‘संपूर्ण क्रांति आंदोलन’’ में भी सक्रिय सहयोग दिया। साथ ही जीवन में कोई भी पद, मानद, उपाधि, मान्यता, सम्मान, अलंकरण, पद्म विभूषण आदि या राजनैतिक पद जैसे मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल आदि को सविनय स्वीकार नहीं किया। यहां तक उन्होंने अपनी संपत्ति तक को त्याग दिया था। यद्यपि वह कांग्रेस के माध्यम से राजनीति में सक्रिय रहे। परंतु राजनीति उनकी स्वभावगत प्रकृति थी ही नहीं। अतः कुछ समय पश्चात वे राजनीति से भी हट गये। गांधी सेवा संस्थान से सम्बद्ध होकर गांधी वाद व विनोबा भावे के भूदान आंदोलन, विचारों को मजबूती प्रदान करने हेतु बीच में पढ़ाई छोड़ने के बावजूद कोई डिग्री न होते हुए भी कई महत्वपूर्ण गद्य (लगभग दो दर्जन) हिन्दी, मराठी, अंग्रेजी, गुजराती, मलयालम आदि भाषाओं में दादा के प्रकाशित हुए। मासिक ‘‘सर्वोदय’’ एवं ‘‘साप्ताहिक’’ भूदान पत्रिका का संपादन भी ‘‘दादा’’ ने किया। वे संस्कृत, मराठी, बंग्ला, गुजराती आदि भाषाओं के भी अच्छे ज्ञानकार थे। उनकी मृत्यु के 9 वर्ष पश्चात वर्ष 1994 में उनकी ‘‘आत्मकथा’’ ‘‘मनीषी की स्नेहगाथा’’ के रूप में प्रकाशित हुई। यह बैतूल जिले की माटी के लिये सौभाग्य की बात है कि गांधी जी के बाद विनोबा भावे के साथ व उनके बाद गांधीवादी चिंतन धारा को प्रस्फुटित एवं पल्लवित करने वाले शख्सियतों में दादा का नाम सर्वोच्च स्तर पर रहा है।
हां लेख समाप्ति पर याद आया कि आज 25 जून है। इस दिन देश में आपातकाल लगा था, जो देश का काला अध्याय था। इसे विनोबा भावे द्वारा अनुशासन पर्व कहकर प्रचारित किया गया था। जिस पर ‘‘दादा’’ ने विनोबा भावे को चिट्ठी लिखकर ‘‘अनुशासन पर्व’’ कहने पर घोर आपत्ति करते हुए या लिखा था, ‘‘यह अनुशासन पर्व नहीं आतंक व दमन पर्व है’’। तथापि बाद में दादा को यह ज्ञात होने पर कि मौन अवस्था में विनोबा भावे लिखे गए एक शब्द का संदर्भ बदलकर दुष्प्रचारित किया गया। इसके साथ ही आज एक अत्यंत सुखद संयोग भी है, दादा की जन्मभूमि मुल्तापी की उद्गम नदी मां ताप्ती का जन्म दिवस है
ऐसे मुलतापी (बैतूल) की माटी के राष्ट्र के कर्म योद्धा ‘‘दादा’’ को कोटिशः नमन।