‘‘सशर्त’’ मुख्यमंत्री का चुनाव! क्या संवैधानिक व्यवस्था को ‘‘ठेंगा’’ नहीं दिखाएगा?
राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)
‘‘सशर्त’’ मुख्यमंत्री का चुनाव! क्या संवैधानिक व्यवस्था को ‘‘ठेंगा’’ नहीं दिखाएगा?
केजरीवाल का दोहरा व्यक्तित्व चालू आहे।
‘‘भ्रष्ट’’ चुनावी राजनीतिक व्यवस्था से ‘‘ईमानदारी’’ का प्रमाण पत्र?
भारतीय राजनीति में ‘‘धूमकेतु’’ के समान अचानक उभरे, चमके अरविंद केजरीवाल ने लोकतांत्रिक व्यवस्था की दुहाई देते हुए ‘‘नैतिकता’’ के ‘‘भूले बिसरे पाठ’’ को याद करते हुए ‘‘ईमानदारी’’ के प्रमाण पत्र की आवश्यकता महसूस की। परंतु इसके लिए बनाई गई संवैधानिक व्यवस्था ‘‘न्यायालय’’ की शरण में जाकर कानूनी प्रक्रिया को अपना कर न्यायालय से ‘‘ईमानदारी’’ का प्रमाण पत्र प्राप्त करने की बजाय जनता की अदालत (जैसे रजत शर्मा की ‘‘आप की अदालत’’ हो) में जाकर स्वयं को ‘‘दोष मुक्त’’ सिद्ध करने के लिये दो दिन पूर्व की गई घोषणा अनुसार इस्तीफा दे दिया। ‘‘जेल’’ में रहकर मुख्यमंत्री के रूप में पहले से ही ‘लंगड़े’ (केन्द्र द्वारा) शासन को और ‘लगडांकर’, चलाकर देश में ही नहीं, बल्कि विश्व में रिकॉर्ड बनाकर सत्ता लोलुप, अनैतिकता व हंसी का पात्र बने केजरीवाल ने देश के अन्य मुख्यमंत्रियों के समान गिरफ्तार होने के पूर्व इस्तीफा देकर नैतिकता, सुचिता का परिचय नहीं दिया, जिसके झंडाबरदार होने का दावा वह जोर शोर से करते रहे हैं।
‘‘चतुर’’ केजरीवाल का ‘‘चातुर्य-पूर्ण चाल’’। ‘‘ट्रंप कार्ड’’।
इसी बीच लोकसभा के हुए चुनाव में केजरीवाल ने दिल्ली की जनता से कहा था कि ‘‘यदि वह उन्हें जेल में देखना चाहते हैं, तो भाजपा को वोट दें और बाहर देखना चाहते हैं तो आम आदमी पार्टी को वोट दें’’। केजरीवाल के इस तरह स्पष्ट रूप से जनादेश मांगे जाने के बावजूद ‘‘आप’’ पार्टी दिल्ली में पूरी तरह बुरी तरह से हार गई। तब आपके ही तर्को (या कुतर्कों) के सहारे इस जनादेश के द्वारा जनता ने संवैधानिक व्यवस्था के तहत आपके विरुद्ध चल रही कानूनी प्रक्रिया पर मोहर लगा दी, ऐसा क्यों न माना जाए? ‘‘शातिर दिमाग’’ वाले राजनीतिक पैंतरेबाजी के उस्ताद केजरीवाल ने इस्तीफा देकर दिल्ली विधानसभा के होने वाले, अगले आम चुनाव तक मंत्री आतिशी सिंह को मुख्यमंत्री बनाने का विधायक दल के द्वारा निर्णय करवा कर अपनी एक अलग राजनीतिक ‘‘केजरीवाल शैली’’ (प्रसिद्ध गुजरात मॉडल समान) का परिचय दिया है। 5 महीने के भीतर होने वाले विधानसभा के चुनावी संग्राम में मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में आतिशी सिंह को रखकर परंतु ‘‘मत’’ (वोट) केजरीवाल को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन करने के लिए मांग कर, ‘‘आम आदमी पार्टी’’ के चुनाव जीतने पर पुनः अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद पर चुनेगी। केजरीवाल के इस ‘‘नव प्रयोग’’ की ‘‘मूल बात’’ को मुख्यमंत्री के रूप में चुने जाने पर स्वयं आतिशी ने स्पष्ट कर दिया है। स्पष्ट रूप में यह संवैधानिक व्यवस्था का दुरुपयोग है। जैसा कि उनका स्वयं का कथन है कि पूर्व में मैंने ‘‘संविधान व गणतंत्र’’ को बचाने के लिए इस्तीफा नहीं दिया। ‘‘जनादेश’’ का प्रावधान ‘‘शासन चलाने के लिए है’’, न की ‘‘नेता’’ के दागी व्यक्तित्व को ‘‘धोने’’ के लिए? बड़ा प्रश्न यहां यह है कि पहली बार लगभग 6 महीने पूर्व जब केजरीवाल जेल जा रहे थे, तभी उन्होंने विधानसभा भंग कर करने की सिफारिश कर जनादेश द्वारा अपने ‘‘निष्कलंक’’ होने की दावेदारी क्यों नहीं की? तब भी वे कार्यवाहक मुख्यमंत्री के रूप में बने रह सकते थे। लेकिन तब शायद फिर ‘‘आतिशी’’ का मोहरे के रुप में उपयोग कर ‘‘त्याग तपस्या और बलिदान’’ भाजपा के नारे से ‘‘त्याग’’ को चुरा कर ‘‘शीश महल’’ पर 45 करोड़ से अधिक नवीनीकरण (रिनोवेशन) पर खर्च कर रहवासी बंगले को खाली कर ‘‘त्याग’’ दिखाने का मौका कहां मिल पाता? क्या इन 6 महीने में केजरीवाल को यह विश्वास था कि ‘‘न्यायिक प्रक्रिया’’ जो ही ‘‘उचित प्रक्रिया’’ थी, के द्वारा वह आरोप से उन्मुक्त (डिस्चार्ज) कर दिए जाते? जो प्रार्थना न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दी गई।
दोहरे व्यक्तित्व, चरित्र के खेवनहार ! केजरीवाल।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोकपाल के गठन व वापस बुलाने के अधिकार की मांग के लिए जंतर मंतर में हुए लोकप्रिय अन्ना आंदोलन से निकले पढ़े-लिखे नौकरशाह से राजनेता बने केजरीवाल राजनीति में निपुण होते-होते उसी की चाल रंग-ढंग में समाहित होकर अपने मूल व्यक्तित्व को ही भूल गए। जेल से बाहर आने पर केजरीवाल ने यह कहा कि मैं ‘‘अग्नि परीक्षा’’ देना चाहता हूं और मैं ‘‘मुख्यमंत्री’’ और मनीष सिसोदिया ‘‘उपमुख्यमंत्री’’ तभी बनेंगे, जब ‘‘लोग (जनता) हमें ईमानदारी का प्रमाण पत्र देंगे’’। ‘‘महाभारत’’ की ‘‘अग्नि परीक्षा’’, ‘‘रामचरित मानस’’ की ‘‘खटाऊ राज’’ और ‘‘शहीद भगत सिंह’’ का बलिदान, कथनों के उच्चारण मात्र से ‘‘वैसा’’ व्यक्तित्व नहीं बन जाता है, बल्कि उसके लिए ‘‘वैसा ही कट्टर आचरण’’ अपनाना भी होता है। इसीलिए वर्तमान राजनीति के अनुरूप बने दोहरे व्यक्तित्व के धनी सिर्फ ईमानदार नहीं, बल्कि कट्टर ईमानदार केजरीवाल को यह आत्म चिंतन करने की गहरी आवश्यकता है कि उन्हें ‘‘ईमानदारी का प्रमाण पत्र’’ लेने की आवश्यकता ही क्यों पड़ रही है? ‘‘साथी ‘‘अन्ना’’ को तो नहीं पड़ी’’?
संविधान का शब्दशः ही नहीं बल्कि अंतर्निहित भावनाओं का भी पालन होना चाहिए।
बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या आप अपनी विशुद्ध राजनीतिक स्वार्थ व छुद्र उद्देश्यों की पूर्ति हेतु संविधान का कानूनी रूप से दुरुपयोग कर सकते हैं? संविधान सिर्फ उतना ही नहीं है, जो शब्दों द्धारा लिखित है, बल्कि उससे भी बढ़कर संविधान वह है, जिसमें लिखे शब्दों के पीछे निहित भावना है, जिसका सम्मान किया जाना ही वास्तव में संविधान का पालन करना माना जाएगा। निश्चित रूप से केजरीवाल की इस्तीफा देने की घोषणा से लेकर आतिशी का विधायक दल का नेता चुने जाने तक की संपूर्ण प्रक्रिया तकनीकि रूप से तो संवैधानिक है। परंतु क्या वह संवैधानिक भावनाओं के अनुकूल भी है? जिनको अंतर्निहित करते हुए संविधान में उक्त व्यवस्था की गई है। संविधान इस बात की अनुमति नहीं देता है कि आप किसी प्रकरण में आरोपी हो और पद से इस्तीफा देकर जनता के बीच जाकर चुनाव लड़कर जीतकर वापस आकर यह दावा कर ले कि अब मैं आरोपो से मुक्त हो गया हूं और भ्रष्टाचारी न होकर ‘‘कट्टर ईमानदार’’ सिद्ध हो गया हूं? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद देश में एक मात्र कोई दूसरा व्यक्ति है, जो देश की राजनीति की नब्ज को समझ कर जनता के नब्ज से सफलतापूर्व जोड़ने का हुनर जानता है, तो वह केजरीवाल हैं, जिनके पास शायद नरेन्द्र मोदी से भी ज्यादा दूरदर्शी राजनीतिक समझ है। चुनाव जीतकर यदि आप आरोप मुक्त या दोष मुक्त हो जाते हैं तो, फूलन देवी चुनाव जीत गई थी, जेल में रहकर कई अपराधी विधायक व सांसद का चुनाव जीत चुके हैं, उनके बाबत तब फिर अरविंद केजरीवाल क्या कहेंगे? वास्तव में भारतीय लोकतंत्र पर अरविंद केजरीवाल का यह बहुत ही खतरनाक दांव है, जो संविधान द्वारा स्थापित की गई देश की न्यायिक व्यवस्था पर भी एक गंभीर चोट लगाता है। क्योंकि हमारे देश में अपराधियों, बाहुबलियों से डर कर आम जनता चुनावों में ऐसे सजायाफ्ता भ्रष्ट अपराधियों को भी विजय दिलाती रही है।
चुनावी प्रणाली ‘‘वाशिंग मशीन’’ नहीं?
लोकतंत्र में जनादेश का अर्थ लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्थाओं को ‘‘मजबूत’’ करना है न कि ‘‘मजबूर कर कमजोर’’ करना है। केजरीवाल शायद यही करना चाहते हैं। वे चुनाव जीतकर ‘‘परसेप्शन’’ (धारणा) द्वारा संवैधानिक व्यवस्था को ‘‘ठेंगा’’ दिखाना चाहते हैं। अन्ना आंदोलन के समय, अन्ना का नहीं बल्कि केजरीवाल का यह विचार अत्यधिक वायरल होकर जनता के बीच पसंद किया गया था कि तत्कालीन संसद के आधे से भी ज्यादा (251) सांसद दागी है। समस्त ‘‘दागी सांसद’’ इस्तीफा देकर, न्यायिक प्रक्रिया द्वारा दोष मुक्त होकर, और फिर चुनाव लड़कर, जीत कर, संसद में आए। परंतु केजरीवाल अपने उक्त कथनों को ‘‘पूर्ण रूप’’ से नहीं, बल्कि ‘‘अर्द्ध रूप’’ में ही लागू करना चाहते हैं। अर्थात सिर्फ चुनाव में जाना चाहते हैं, परंतु न्यायिक प्रक्रिया में से होकर नहीं गुजरना चाहते? क्योंकि इसके आगे शायद उनका राजनीतिक स्वार्थ ‘‘आड़े’’ आ जाता है। केजरीवाल शायद इस बात को भूल गए हैं कि उन्होंने अपनी गिरफ्तारी की वैधता को न्यायालय में चुनौती दी थी, जिसे न्यायालय ने ईडी व ‘‘तोता सीबीआई’’ के विरुद्ध की गई गंभीर टिप्पणियों के बावजूद स्वीकार नहीं किया। वह अभी मात्र जमानत पर हैं, आरोपो से उन्मुक्त (डिस्चार्ज) नहीं हुए हैं। जैसा कि वे गलत कथन करते है कि यह कानून की अदालत से इंसाफ मिला। इसलिए न्यायालयों की टिप्पणियों का सहारा लेकर वे अपने को बेदाग नहीं कह सकते हैं। जनता की अदालत ‘‘राजनैतिक इंसाफ’’ देगी ‘‘आपराधिक इंसाफ’’ नहीं? यदि उन्हें प्रकरण में 2 साल से ऊपर की सजा हो जाती है, तब फिर केजरीवाल क्या करेंगे? (क्योंकि तब सदस्यता समाप्त होकर वे 6 साल के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो जायेगें।) तब फिर जनादेश मानेंगे या न्यायादेश? आरोपी अपराधी दलबदलुओं को भाजपा में शामिल करने को लेकर केजरीवाल सहित संपूर्ण विपक्ष भाजपा को वाशिंग मशीन बताने वाले केजरीवाल अब संवैधानिक व्यवस्था चुनाव को अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए ‘‘वाशिंग मशीन’’ बनाने में ही तुल (लग) गए हैं। इसलिए राजनीति का ‘‘नॉरेटिव’’ तय करने में व ‘‘परसेप्शन’’ बनाने में केजरीवाल नरेन्द्र मोदी से एक कदम आगे ही हैं।
उपसंहार।
केजरीवाल सशर्त जमानत पर है। जिन शर्तों ने केजरीवाल को एक ‘‘लूला-लंगड़ा’’ मुख्यमंत्री बना दिया है। ‘‘जनादेश’’ मिल जाने के बावजूद मुख्यमंत्री पद का ‘‘लंगड़ापन’’ दूर नहीं हो जाएगा। वह तो मुकदमे में न्यायालय द्वारा बाईज्जत दोष मुक्त होने से ही होगा। केजरीवाल की राजनीति में कदम रखने के पूर्व अति उत्साह में की गई घोषणाएं, वचन, कथन समस्त राजनीतिक दलों और स्वयं केजरीवाल सहित समस्त नेताओं के लिए एक आत्म चिंतन का विषय है, कि परस्पर आरोपों-प्रत्यारोपों की बौछार लगाने के पूर्व ‘‘बुद्धि’’ का प्रयोग अवश्य करें, अन्यथा ‘‘आप बीती’’ होने पर जनता के सामने आपको स्वयं के आरोपों के कथनों के लिए शर्मिंदा होना पड़ेगा। या फिर केजरीवाल समान बेशर्म होकर दोहरा व्यक्तित्व बनना पड़ेगा। क्योंकि केजरीवाल ने आज तक अन्ना आंदोलन के समय मंच से कहे गए सुविचारों को गलत बताकर क्षमा नहीं मांगी है और न ही आज उसका पालन कर रहे हैं? वैसे राजनीति में हया-शर्म, नैतिकता, आदर्श रह कहां गया है?