राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)   

‘‘नुक्ता चीनी’’ करना हमारी आदत व ‘‘पहचान’’ हो गई है?

भूमिका 
    ‘‘संघ लोक सेवा आयोग’’ का 24 मंत्रालयों में 45 पदों के लिए यूनी लेटरली (बिना आम राजनीतिक सहमति बनाए जैसा कि वर्ष 2017 में कार्मिक मंत्री ने कहा था) ‘‘लेटरल एंट्री’’ मतलब सीधी नियुक्ति के द्वारा भर्ती का भारी भरकम अखिल भारतीय विज्ञापन प्रकाशित हुआ। इस पर विपक्ष ने ही नहीं, बल्कि एनडीए के कुछ सहयोगी दलों जैसे, लोजपा, जेडीयू ने भी हंगामा खड़ा कर दिया। विषयांगत आगे बढ़ने के पहले इस बात को समझ लें कि ‘‘लेटरल एंट्री’’ आखिर होती क्या है? 

लेटरल एंट्री का ‘‘अर्थ’’, ‘‘आवश्यकता’’ एवं ‘‘उपयोगिता’’। 

एक लाइन में इसका सामान्य मतलब ‘‘बिना परीक्षा के सीधी भर्ती’’ से है। सामान्यतः उक्त उल्लेखित विज्ञापन में प्रकाशित संयुक्त सचिव, निदेशक और उप सचिव के पद ‘‘संघ लोक सेवा आयोग’’ द्वारा ली गई परीक्षाओं से चयनित होने वाले आईएएस, आईपीएस, आईएफएस से भरे जाते हैं। परंतु भारत सरकार ने ‘‘राष्ट्र निर्माण’’ में योगदान देने के आकांक्षी ‘‘प्रतिभाशाली, प्रेरित’’ (टेलेंटेड़ मौटिवेटेड) भारतीय नागरिकों के लिए 3 साल के लिए, जिसे आगे 2 साल और बढ़ाया जा सकेगा, के अनुबंधन के आधार पर उक्त सीधी भर्ती करने का निर्णय लिया। ताकि विशिष्ट कार्यो के लिए विशेषज्ञ व्यक्तियों की नियुक्ति की जा सके। इसमें संबंधित क्षेत्र से व्यक्ति के विशेष ज्ञान और विशेषज्ञता को ध्यान में रखा जाता है, जिन स्तर पर अधिकारी नीति निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संक्षिप्त में लेटरल एंट्री नई प्रतिभाओं को आर्कषित कर सामने लाने का एक बढ़िया तरीका है, खासकर उन लोगों के लिए जो सामान्य चयन प्रक्रिया से होकर गुजरना नहीं चाहते है या किसी कारणवश संघ की परीक्षा में बैठ नहीं पाये।  

लेटरल एंट्री का इतिहास।

ऐसी भर्तियां वर्ष 2018 से ही की जा रही है, जो अभी तक कुल 63 नियुक्तियां की गई है जिनमें 35 नियुक्ति निजी क्षेत्रों से हुई हैं। यह नियुक्तियां सैम पित्रोदा, मनमोहन सिंह तथा मोंटेक सिंह अहलूवालिया की तरह नहीं है, जैसा कि केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा। उक्त उल्लेखित तीनों नियुक्तियां स्थानांतरण योग्य नहीं थी। जबकि इन लेटरल एंट्री के द्वारा जॉब पाने वाले व्यक्तियों का विभिन्न मंत्रालय में स्थानांतरण किया जा सकता है। दूसरा अंतर यह है कि यह संघ लोक सेवा आयोग द्वारा बिना परीक्षा के सीधी भर्ती की जा रही है, जबकि उपरोक्त तीन नियुक्तियां ‘‘आयोग’’ द्वारा नहीं की गई थी। तथापि यह कांग्रेस सरकार के समय ही की गई थी। यह कांग्रेस की ही सरकार थी, जिसने वर्ष 2005 में अपने अनुभवी नेता कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (एआरसी) का गठन किया था, जिसकी ही सिफारिश को मोदी सरकार ने लागू कर उक्त पद निकाले थे। इस भर्ती विज्ञापन के पूर्व ‘‘लेटरल एंट्री’’ को लेकर कार्मिक मंत्री जितेन्‍द्र सिंह ने वर्ष 2016 में राजनीतिक सहमति की बात की थी। तत्पश्चात सरकार ने वर्ष 2017 में नीति आयोग द्वारा दी गई सिफारिश के आधार पर पिछले 5 सालों में वर्ष 2018, 19, 21 एवं 23 में चार बार लेटरल एंट्री के द्वारा कुल 63 नियुक्तियां कर चुकी है। जिनमें कोई आरक्षण लागू नहीं किया गया था। तब भी राहुल गांधी ने या विपक्ष ने कोई विरोध नहीं जताया था? बल्कि वर्ष 03 अप्रैल 2019 को राहुल गांधी ने टिकट को लेटरल एंट्री का समर्थन किया था। यद्यपि आरजेडी सांसद मनोज झा ने 2018 में जरूर किया था। यही तो राजनीति का परसेप्शन है।

विपक्ष द्वारा सशक्त चौतरफा विरोध।  

वास्तव में लैटरल एंट्री का ‘‘विरोध’’ का कारण लेटरल एंट्री द्वारा पदों की ‘‘भर्ती’’ का होना नहीं है, बल्कि जो 45 पद ‘‘लेटरल एंट्री’’ के द्वारा भरे जाने हैं, उनमे एससी, एसटी और ओबीसी का कोई ‘‘आरक्षण का न होना’’ है। वास्तव में यूपीएससी द्वारा भरी जानी वाली सार्वजनिक नौकरियों में ‘‘13 प्वाइंट रोस्टर’’ के द्वारा संवैधानिक आरक्षण लागू किया जाता है। परंतु जब किसी विभाग या कैडर में मात्र तीन रिक्तियां होती है, तब कोई आरक्षण लागू नहीं होता है। चूंकि ‘‘लेटरल एंट्री’’ के तहत भरे जाने वाला प्रत्येक पद एक ‘‘एकल पद’’ होता है, इसलिए इनमें आरक्षण लागू नहीं होता है। वस्तुतः सरकार द्वारा जरूरतों के अनुरूप उठाया गया ‘‘सही कदम’’ ‘‘गलत समय’’ उठाया गया है। जब सरकार के विरुद्ध ‘‘आरक्षण विरोधी’’ होने का एक गंभीर परसेप्शन का संकट बना हुआ है कि, वह आरक्षण को समाप्त करने पर तुली है। हाल में हुये संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में अबकी बार 400 पार के नारे को कुछ भाजपा नेताओं के बयानों के साथ जोड़कर विपक्ष ने इसे संविधान बदलने की ओर मोड़ दिया। उसके बाद उच्चतम न्यायालय के क्रीमी लेयर पर आये निर्णय ने आरक्षण के ‘‘दधकते विषय पर आग में घी डालने’’ का काम किया। इन परिस्थितियों के चलते सरकार को समझदारी से काम लेकर सही समय का इंतजार करना चाहिए था? क्योंकि राजनीतिक परसेप्शन की लड़ाई का सामना भी उसी तरीके से करना होता है। विपक्ष को प्रक्रिया चालू होने के पहले ही विरोध अंधविरोध ही कहलायेगा। क्योंकि विपक्ष को यह देखना चाहिए कि अंतिम परिणाम में कितने व्यक्ति आरक्षित वर्ग से आये है? तब उनका विरोध की कोई आवाज ज्यादा सार्थक होती। इसके अतिरिक्त विपक्ष के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जिस क्षेत्र के विशेषज्ञ की आवश्यकता मंत्रालय को है यदि वह पावती प्राप्त आरक्षित वर्ग में नहीं मिल पाती है तब मंत्रालय क्या करेगा?

क्या संवैधानिक आरक्षण मूल उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल सिद्ध हो रहा है? 

विशेषज्ञों की इन पदों पर सीधे नियुक्तियों को लेकर ‘‘आरक्षण’’ के आधार पर विरोध से एक ‘‘ध्वनि’’ और निकलती है। क्या आरक्षण समर्थकों ने यह मान लिया था कि 70 वर्षों से चले आ रहे संवैधानिक आरक्षण के बावजूद इन 45 व्यक्तियों में कोई भी व्यक्ति मेरिट के आधार पर आरक्षित वर्ग से नहीं चुना जा पाएगा? क्या आरक्षित वर्ग में प्रतिभाओं का ‘‘अकाल’’ है। और यदि यही वस्तु स्थिति है, तब आरक्षण से गुणवत्ता में बढ़ोतरी होकर आरक्षण से बाहर आकर बराबरी से सर्व समाज में आरक्षित वर्ग मिक्स अप होकर सामाजिक समरसता हो जायेगी तभी सामाजिक उत्पीड़न रूक पायेगा। क्या ऐसा कभी संभव हो पाएगा? तो कब तक? और यदि नहीं तो फिर आरक्षण से फायदा क्या? तब आपको यह सोचना होगा कि पिछड़े, कुचले होने का कारण क्या सिर्फ आर्थिक असमानता होना अथवा समाज की विक्षिप्त सोच। तब फिर वर्तमान आरक्षण की नीति क्या एक राजनीतिक लॉलीपॉप के अलावा कुछ रह गया है? क्या कभी किसी ने सोचा है कि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने सिर्फ प्रारंभिक 10 वर्ष के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था क्यों की थी? 50 साल के लिए क्यों नहीं की गई? क्या डॉक्टर अंबेडकर की दूर दृष्टि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समान नहीं थी? जो 2047 के विकसित भारत की कल्पना की आधारशिला आज रखते हैं स निश्चित रूप से डॉक्टर अंबेडकर दूरदर्शी थे। उनका आकलन था कि 10 वर्षों में दलित, कुचला, पिछड़ा, पीड़ित वर्ग का उत्थान इस आरक्षण से हो जाएगा और जो थोड़ी बहुत कमी वैसी रहेगी, उसके लिए अगले 10 वर्षों का प्रावधान और किया गया। परंतु शायद वे यह नहीं जानते थे कि यह अवधि सीमा एक रूटीन (सामान्य) होकर अनंत काल तक चलते रहेगी? क्या अब समय नहीं आ गया है कि आरक्षण के प्रावधान में आवश्यक गुणात्मक परिवर्तन किए जाएं ताकि आरक्षण के पीछे जो भावना है, वह सही अर्थों में परिणाम मूलक होकर विकसित होकर ‘‘आ’’ ‘‘रक्षित’’ से हटकर ‘‘अ’’ ‘‘रक्षित’’ हो जावे।

‘‘बैक फुट पर सरकार’’। 

राजनीतिक घमासान व उत्पन्न हंगामे को देखते हुए सरकार के विरुद्ध बने आरक्षण विरोधी धारण (परसेप्शन) को रोकने के लिए और शायद आगामी दो राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में इसका कोई विपरीत प्रभाव न पड़े, सरकार ने मात्र तीन दिन बाद ही उक्त भर्ती को रोक दिया है। केंद्रीय कार्मिक मंत्री जितेंद्र सिंह ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कहने पर संघ लोक सेवक आयोग के अध्यक्ष से उक्त अधिसूचना को ‘‘रद्द’’ करने को कहा है। शपथ के मात्र तीन महीनों में ही यह सरकार का चौथा कदम हैं, जहां उसे अपने बढ़ते कदम को पीछे हटाने पड़े हैं। पूंजीगत लाभ को लेकर ‘‘कास्ट इंडेक्सेशन’’ का लाभ वापिस देने से लेकर, वक्फ संशोधन विधेयक’’ को जेपीसी को सौंपा, फिर सोशल मीडिया पर नियंत्रण के लिए लाए जाने वाले ब्रॉडकास्टिंग बिल को फिलहाल ठंडे बस्ते में पटक देना, कुछ लोगों के लिए ये कमजोर कदम मजबूर सरकार के ठहरा सकते हैं। परन्तु वे इस बात को भूल जाते है कि भाजपा को स्पष्ट पूर्ण बहुमत प्राप्त न होने के तथा सहयोगियों की बैसाखी पर टिकी होने के बावजूद, प्रधानमंत्री मोदी ने अपने एजेंडे को लागू करने का प्रयास तो किया? जो समान राजनीतिक परिस्थितियों के होते हुए अटल जी की सरकार ने स्पष्ट रूप से अपने घोषित एजेंड़े से एनडीए सरकार को दूर कर लिया था। इसीलिए तो 56 इंच का सीना कहलाता है। वैसे यह लोकतंत्र के लिए एक सुखद संकेत नहीं है, जहां विपक्ष की आवाज की सुनवाई जनता दरबार में हो रही हो अथवा नहीं लेकिन मोदी सरकार में होने लगी है?