“जपुजी”
लेखक एक सफल‘’नेत्र विशेषज्ञ’’ चिकित्सक डॉ.पी.एस.बिंद्रा मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के माता-नेत्रालय के संस्थापक चिकित्सक डॉ.पी.एस.बिंद्रा जी इस क्षेत्र के अनेक सम्मानों से अलंकृत व्यक्ति समाज के प्रति अपने हर दायित्व का सकारात्मकता से निर्वाह करते हुए अपने क्षेत्र की विशिष्ठता के साथ लेखन व पठन-पाठन के क्षेत्र मे इनकी दखल सराहनीय मूलतःइतिहास, चिक्त्सा,धार्मिकक्षेत्र और सामाजिक सरोकार के विषय प्रमुख है। इनके दारा लिखित इस कृति के प्रति उनके धार्मिक-लगाव के विषय में तो मुझे लिखने की जरूरत नहीं गुरूनानक जी के उपदेशों को जपुजी के रूप में हम हिंदी पाठको के लिए एक अनोखा उपहार है यह कृति ही इसका प्रमाण है। जिसमें इन्होंने अपने शब्दों मे यह कहां है की ‘’तेरा तुझको अर्पण ‘’इनकी रूचि धर्म,दर्शन ,इतिहास-मूलतः सिक्ख .गुरूवाणी,विचार आपके अध्य़यन के विषय है ।
अपनी प्रस्तावना मे इन्होंने लिखा है ‘’जो स्त्रष्टा है वह सृष्टि है’’ सिक्ख धर्म के बारे मे लिखते हुए इनके विचार सिक्ख धर्म की विशेषता यह है कि नानक ने गृहस्थ और सन्यासी को अलग नहीं किया।नानक कहते है,..कि कुछ छोड कर भागना नहीं ।जहाँ तुम हो वो वहीं छुपा है। जो गृहस्थ होते हुए सन्यासी हो और सन्यासी होते हुए गृहस्थ हो इस तरह भी हम अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकते है।श्री गुरूनानक जी की शिक्षा के विभिन्न स्वरूपों मे गुरूग्रंथ के महत्वपूर्ण बातों में प्रमुख जपुजी को हिंदी पाठको के लिए जिस शिद्दत के साथ इस कृति के माध्यम से इस किताब को हम पाठको के लिए लेखक ने हर महत्वपूर्ण भक्ति के मार्ग की ओर ले जा रही है। हर तरह से उन बातों को अपने बीच हमारे संतों के विचारों के विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करते हुए इस कृति की सार्थकता को एक अति सुंदर दिशा दी है । गुरूग्रंथ साहिब का आरंभ ही जपुजी से होता है।यह मान्यता है की गुरूनानक जी के जीवनभर के सारे उपदेशों का सार जपुजी मे समेकित हो गया है।इनके अनुसार भक्ति के मार्ग में चलते हुए परमात्मा या मोक्ष की प्राप्ती के हर रास्ते अपने अलग हो सकते है।परंतु गुरूनानक जी का रास्ता गायन(कीर्तन) का मार्ग ही उनका मार्ग है।इस माध्यम से इन्हे प्रभु के दर्शन और साक्षात्कार हुआ। जिसके कारण इनके ग्रंथ अनेक गीतों से भरे हुए है ।इसकी विशेषता है कि,इन्होंने न योग किया,न तप किया ,न ध्यान किया सिर्फ गायन पध्दति ही इनके मार्ग का योग,तप और ध्यान बना ।इनका मानना है कि, जो भी भक्त सम्रग प्राण से किसी कृत्य को करता है वही उसके मोक्ष या परमात्मा से मिलने का मार्ग बनता है। सत्यनिष्ठा से इसका पालन ही इस मार्ग का मूलमंत्र है।  
अहंकार विहिन जीवन ही निराकर प्रभु के करीब होता है।गुरूनानक जी के समकालीन संतों की वाणी के बहुत से महत्वपूर्ण बातों को इन्होंने अपने अपने उपदेशों का हिस्सा बनाया है जिसमें प्रमुख कबीरदास सबसे प्रभावशाली संत रहे । इसके साथ सिकंदर लोधी,बाबर,हुमायुं के काल के अन्य संत भी रहे ।उनके जीवनकाल में चार उदासियों(भ्रमण) का असर पडा यह समय था 1554 से 1576 तक इस दौरान वे पूरे भारत,बगदाद,मुल्तान,चीन,मिश्र,बंगाल में भ्रमण ने इनको अनेकानेक संस्कृति से परिचय हुआ। साथ ही इनके खुद के बचपन बहुत अधिक कौतुक भरे रहे। इनके अनुभव के ये सभी इनके कीर्तन के माध्यम से हम तक आये।
गुरू की व्याख्या में कबीरदास व तुलसीदास आदि के अलावा सिक्ख-धर्म की बुनियाद है। गुरूभक्ति,गुरूसेवा,गुरूपरसादि-सबको राह दिखाने वाले गुरू संत के रूप मे हो या ग्रंथ के रूप में हमारे बीच है ।सिक्खों के अंतिम गुरू गुरू श्री गुरू गोविंद सिहँ जी ने गुरू परम्परा को समाप्त करते हुए भक्ति के मार्ग में सिक्खों को आगे से आदि श्री गुरूग्रंथ साहिब ही सबके गुरू रहेंगे।गुरू की व्याख्या कौन है गुरू? इन सारी बातों का इसमे समावेश है जो जीवन की कई अनसुलझे पर्ते खोलती है। 
यह सर्वविदित है की प्रेम ही भक्ति की पराकाष्ठा है,जहाँ प्रेम है वहीं परमात्मा भी होंगे प्रेम के ढाई अक्षर इनको दर्शाते है।परमात्मा जीवन है,जो तुम्हें सिर्फ तुम्हारे अंदर ही मिलेगा जो आदमी भीतर और बाहर सर्वत्र उसका जीवन पवित्र हुए बीना नहीं रह पाऐगा । 
इस सुक्ति को सभी ध्यान मे रखें और अपने जीवन का निर्वाह करें 
‘’मनसा वाचा कर्मणा’’,,पवित्र जीवन
गुरूनानक के आदेश सत्य वचनों के अनुसार प्रत्येक को 3 बातों का पालन जीवन भर करना चाहिएः-
1-नाम जपो-गुरू-परमात्मा की शिक्षा को स्मरण करो
2-किरत करो-पुरूषार्थ मेहनत की कमाई करो
3-वम्ड छको-ईमानदारी की कमाई मिल-बाँट कर खाओं
कथा-कीर्तन,नामजप,सिमरन,वेदपाठ,ग्रंथपाठ..इन सभी के करने के पीछे मुल मंत्र है इससे हृदयशुध्द होता है,मन के मैल मिटते है,जीवन मे सत्य,प्रेम-करूणा का विकास होता है जिसके कारण मानव जन्म की सार्थकता होती है अन्यथा सब कुछ व्यर्थ ।
वाणी गुरू,गुरू है वाणी,वीच वाणी अम्रित सारे
गुरू वाणी कहे सेवक जनमाने,प्रत्यक्षगुरू निसतारे।
इस किताब में लेखक ने गुरूनानक जी के उपदेशों को उनकी व्याख्या के साथ हिंदी के पाठको के लिए सरल भाषा में एक विशेष अवसर प्रदान किया है जो मेरे अनुसार बहुत ही उपयोगी व सार्थक भी रहा है।इसमें लेखक ने 38 पाउडियों के माध्यम से गुरूनानक जी की वाणी को व्यव्स्थित करते हुए उनके वर्णन का संक्षेप में विस्तार कुछ

इस तरह हैः-
प्रथम सात(7) पाउडियों में ईश्वर के अस्तित्व सत्य और बेअंत एवं बेपरवाह होले की बात समझाई गई है।इसी की पाउडी-3-
कथना कथी न आवै तोरि
कथि कथी कोटि,कोटि,कोटि।
परमात्मा की अनेकों कथाएँ है,जिनका कथन नहीं हो सकता। जब से सृष्टि की रचना हुई है । तब से ब्रम्हा ने चार वेदों की रचना करके तथा अन्य अनन्त ऋषि मुनियों ने अनेको ग्रंथों (शास्त्र,पुराण आदि की रचना करके)उसका नेति नेति(बार-बार) कथन करते आ रहे है परंतु उस सर्वशक्तिमान का संपूर्ण कथन करने में असमर्थ ही रहे (तू बेअंत है) करोडों बार कहने पर भी वह अनकहा ही रह जाता है।
अगली बारह(12)पाउडियों को मिलाकर इसका पूर्वार्ध समाप्त हो जाता है इसमें चार चार पाउडियों के तीन परिच्छेद है जो क्रमशः हमे सुनने (श्रवण), मानने (मनन) और निदिध्यासन के वारे में बताया गया है।
पाउडी 8 से 11 में श्रवण की महिमा को बताया गया है। पाउडी 11 के अंत में –कहते है         नानक भगता सदा विगासु।।
सुणिऐ दुख पाप का नासु ।।
(नाम सुनने से भक्तों को सदैव प्रसन्नता का आभास रहता है उनके सभी दुखों व पापों का विनाश हो जाता है)
पाउडी 12 से 16 में मनन की महिमा का वर्णन मिलता है।इसके मूल मे विश्वास बहुत महत्वपूर्ण तत्व निहित रहता है और इसमें आत्मिक अवस्था का वर्णन कठिन है। इस क्रम के अंतिम पाउडी में जो बात कही है यह प्रायःसभी के लिए अत्यंत ही लाभकारी है ।
इसके 16 पाउडी के प्रथम में हीः-
पंच परवान पंच परधानु मुमुक्षु
(मोक्ष की कामना करने वाले)जो श्रवण,मनन कर अपने जीवन को श्वास-श्वास चिंतन में लीन रहते है उन्हें पंच कहा गया है ।वही जीवों का उध्दार करने वाले शिरोमणी कहलाते है।पंच अर्थात पाँच दोश (काम,क्रोध,लोभ,मोह और अहंकार) का त्याग करने वाले और परवान गुण कहे अर्थात 
(शुभ गुणों—सत्,संतोख,धीरज,धर्म और विचार) को ग्रहण किया हो।इन्हें पंच या पूर्ण संत कहा गया है। 
इसी तरह पाउडी 17 से 19 में भगवान की लीला का विस्तार बताया गया है और इसकी विशेषता यह है की साधक के सामने असंख्य मार्ग है सत्य की प्राप्ति के लिए ।साधक की यही उपलब्धि अगत सत्य मार्ग की पहचान मिल जाए तो साधक को समझना चाहिए की उसे ज्ञान की और घ्यान की पहली सीढी है।
पाउडी 19 का एक अंश 
विणु नावै नाही को थाउ ।।
उसके नाम के बिना कोई स्थान नहीं है, सर्वव्यापक है।जितना प्रपंच परमात्मा ने रचा है ,उतना सब नाम है।नाम के बिना कोई स्थान नहीं है।प्रत्येक जड-चेतन में प्रभु रम रहा है ,जैसे सोने के आभूषण में सोना नाम है ।प्रत्येक कपडे में सूत नाम है ।इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु में उसकी सत्ता उसका नाम है।नाम के विना कोई भी वस्तु नहीं है। सृष्टि का प्रत्येक कण में उसका नाम है ।

जो संसार पाँच गुणों(अंशों) के संबंध से हैः-

1-नाम 2-रूप 3-अस्ति 4-भांति 5-प्रेम
नाम व रूप का गुण (सृष्टि) है,जो नश्वर व मिथ्या है।जो सत्यचित्त और आनंद है 
इसलिए जीव को सदैव इस प्रकार प्रर्थना करनी चाहिए।
शास्त्रों मे पाप को न करने की युक्ति में’’पंचयम” सम्मलित किए है ये है अहिंसा, सत्य,अस्तेत,ब्रम्हचर्य,परिग्रह।इनका विरोध करना पाप कहलाएगा जैसे हिंसा, असत्य,चोरी,(अस्तेत के विरोध में),व्यभिचार,परिग्रह। इसे बौधौ ने ‘पंचशील’ कहा है। उपनिषदों एंव गीता में आहार शुध्दि और सात्विक भोजन पर जोर दिया है । क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ‘’जैसा अन्न वैसा तन,जैसा तन वैसा मन।“इसी तरह योग शास्त्र,भक्ति मार्ग और जैन धर्म में आहार शुध्दि सर्वोपरि है। 
अभी तक हमने जिस तरह गुरूनानक जी के उपदेशों के माध्यम से हम सभी ने ईश्वर के अस्तित्व ,ब्रम्हा जी के चार वेदों और अन्य ऋषि-मुनियों के अनेकानेक ग्रंथों मे निहित मोक्ष के मार्गो के माध्यम से सत्य तक पहुचनें की कोशिश में हमारे अपनाए गये रास्तो पर बहुत सी बातें आयी ।जिसमें पंचयम व पंचशील बौध्द और जैन धर्मों के विचारों के समावेश इनके    
इसके पश्चात शेष बची (19) पाउडियों में 20 से 38 तक सृष्टि की रचना कर्मखण्ड,ज्ञानखण्ड और सचखण्ड के बारे मे विस्तार से समझाया गया है । इसके विस्तार में उनकी कुछ पाउडियों को मैं अपनी इस समीक्षा मे जोड रहा हूँ जिसमें हमें सृष्टि की रचना से जुडे कर्मखण्ड,ज्ञानखण्ड और सचखण्ड से परिचय मिलता है।
आजकल जो धारणा व्याप्त है कि भक्तिका अर्थ है मंदिर,चर्च या गुरूव्दारे जाना ।
रटे-रटाए मंत्रों को पढ लेना। मन अगर घृणा और पाप से भरा हो तो ये सब बेकार है ।जब नाम के साथ प्रेम का रंग लग जाए तो अकेले मे भी ऐसा आभास होता है कि परमात्मा चारों तरफ व्याप्त है।
मेरे सत्गुरू मेरे नाल है(साथ है)पाउडी20-नानक जे को आपौ जाणै
अगै मइया न सोहे ...(पाउडी 21)
यदि कोई अपने आप को जानता है कि मैं बहुत अकलमंद व बडा हूँ,तो वह आगे परलोक में आदर नहीं पाता है।अहंकार और निरंकार का मेल संभव नहीं है।तुम्हारे किसी कृत्य या आडम्बर या तीर्थ स्नान आदि से तिल भर भी मान अभिमान या अंहकार नहीं आना चाहिए।ऐसी भाव दशा बनी रहनी चाहिए कि मेरा सत्गुरू मेरे नाल है जब परमात्मा का सानिध्य होगा तो तीर्थ,दान और त्याग का अहंकार नहीं आ नहीं सकेगा ।।
ओडक ओडक भालि थके वेद कहिन इक वात ।।(पाउडी-22)
वेदों (सबसे प्रचीन सनातन ग्रंथ)वर्णित है कि इनको ढूंढने के लिए सभी कोशिश करके थक गये।यही पाया कि ये बेअंत है।
सालाही सालाहि एती सुरति न पाईआ ।(पउडी-23)
नदीआ अतै वाह पवाहि समुंदि न जाणीअहि।।
हम परमात्मा की प्रशंसा करते है,लेकिन हमारी समझ से परे है कि वह कितना महान है(सलाही-सराहने योग्य परमात्मा)।जैसे नदियाँ और नाले(वाह) समुद मे मिल जाते है और अथाह सागर में लीन हो जाते है और समुद्र की थाह नहीं प्राप्त कर सकते ।
पाउडी 24 में गुरूनानक जी ने परमात्मा के गुणों एंव महिमा को बेअंत कहा हैऔर इससे संबंधित कुछ बातों से समझाया भी हैः-
अंतु न सिफती कहिणि न अंतु।।
अंतु न करणै देणि न अंतु ।।
उस अकाल पुरूष (परमात्मा) के गुणों का कोई अंत नहीं है,और कहने भर से अंत नहीं पाया जा सकता।अर्थात उसकी तारीफ भी अनंत है और उसका कथन करना भी अनंत है।इसी तरह इनके कार्यों का कोई अंत नहीं है,उसकी दी सौगात(भेंट)जीवों को देने से भी समाप्त नहीं होती(करणै-बनायी हुई कुदरत या रचना)अर्थात वाहे गुरू की रचनाएँ भी अनंत है और बख्शिशें भी अनंत है।ईश्वर की प्राप्ति के लिए निष्कर्ष,प्रेम और समर्पण पहली और अंतिम पायदान(सीढी) है।गुरू नानक कहते है,कि भगवान की कृपा होती है,और उदारता होती है,तब वह देन मिलेगी ।। 
इस तरह इसमें इस तरह बहुत सी उपयोगी बातों का समावेश किया गया है जो गुरूनानक जी के उपदेशों की सार्थकता भक्ति मार्ग के सहारे हमारे जीवन को हमेशा सही रास्ता बताती है और हमें एक संयमित जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है।
पाउडी 25 –(बडा दाता तिलु न तमाइ)---
परमात्मा सबसे बडा दाता(देवनहार) है उसको जरा भी(तिलमात्र) लालच(तमाइ) नहीं है ।
इस प्रकार गुरूनानक जी अहंकार की सारी जडें काट देते है ,और जहाँ अहंकार नहीं, वहीं उसका व्दार खुला है।जहाँ अहंकार नहीं,वहां ओंकार का नाद अनायास शुरू हो जाता है ।अहंकार के मिटने से ही निरंकार का आगमन संभव होता है ।
पाउडी 26- इस पाऊडी में गुरूजी ने परमात्मा के गुणों और महिमा का बखान किया है जिसके अनुसरण से अमूल्य महिमा का पता चल सकता है ।(अमुल भाइ अमुला समाहि)----
वे अनमोल है जो प्रभु के प्रेम मे भीग कर जीवन निर्वाह करते है (भाइ—भाउ मे,प्रेम में) 
गुरू नानक ने परमात्मा को गा-गा कर पाया ।जैसे एक मदहोशी या खुमारी(नाम की) चढी हुई हो ।
दानव,और देव दोनों उसका वर्णन करते है ।दानवों को भगवान के वर्णन का मौका इसलिए मिलता है ,कि भगवान उनका निग्रह करते है ।देवता उनका वर्णन इसलिए करते है कि भगवान देवों पर अनुग्रह करते है ।इस तरह भगवान (परमात्मा) निग्रहकारी और अनुग्रहकारी है ।
पाउडी 27- इस पाऊडी में परमात्मा से प्रश्न यह है कि वह कौन से और किस घर मे बैठकर जगत का संचालन करते है –ऊत्तर व समाधन भी इसी पाऊडी की श्रेष्ठता है ।इस पूरी पाऊडी का अध्ययन इस किताब के महत्व को समझाते हुए बहुत सारी बातों से अवगत कराता है।
यह पाऊडी अलग प्रकार की है इसे प्रातःकाल जपुजी में शाम को (सांयकालीन)रहरासि साहब मे पढा जाता है।
यहाँ एक स्वभाविक प्रश्न हे परमेश्वर तुम्हारा दरबार और घर कैसा है ,जहाँ से दुनिया संचालित होती है ।यहाँ परमात्मा के दरबार मे बज रहे असंख्य नाद है,बजाने वाले भी असंख्य भांति-भाति प्रकार के लोग है।यहाँ नाद का अर्थ अन्तर्नाद से है।यहाँ गाने वाले वायु,जल,अग्नि,इन्द्र,धर्मराज और चित्रगुप्त भी है ।गायन या गुनगुनाना एक स्वाभाविक कृत्य है ।पक्षी,वृक्ष,झरने,वायु इन सबका एक अपना नाद अथवा गायन होता है ।गुरू नानक जी ने गायन को ही अपनी साधना का मार्ग बनाया है ।इनके अनुसार जब तुम हृदय की गहराई से गाते हो,स्तुति करते हो तो एक मस्ती ,एक नशा आने लगता है ।अस्तित्व की घ्वनि(नाद) ओंकार निरंतर गुंजायमान है ।
पाउडी 28-  योगियों का भेष धारण करने की सलाह दी गई-पर मना कर दिया गुरूनानक जी ने और कहने लगे हम वो सभी कुछ धारण किए हुए है।इस पाऊडी की विशेषता है की एक सामान्य मानव हर तरह से भक्ति मे लीन हो सकता है उसे किसी दिखावे अर्थात भभूत लगाने की और योगी का स्वांग रचने की ।
पाउडी 29- संसार के संचालन में संयोग –मिलाप कर्म या वियोग –विछोडा कर्म ये दोनो कर्म चलते है और इन सब के मूल मे परमात्मा है ।परमात्मा स्वयं मालिक है इनके बस में सारी दुनिया की ऋध्दियाँ और सिध्दियाँ है।इससे बडकर नाम का स्वाद है ।सिध्दियों की हम बात करें तो ये आठः- अणिमा,लधिमा,पाप्ति,प्राकाम्यं,महिमा,ईशित्व,वशित्व तथा कामवासायता।इनकी प्राप्ति अहंकार की उत्पति करती है अतः हरिनाम परमात्मा से जुडना जरूरी इससे मिलन और जुदाई के सहारे मुक्ति मिलती है ।सब कर्मों का खेल मानते है ।हर हाल मे स्विकारोक्ति ही मूल मत्रं होना चाहिए ।
पाउडी 30¬- इस पाऊडी में हमे ईश्वर की अनुभूति ज्ञान और बुध्दि से परे है—यह तर्क का नही पूर्ण भक्ति के मार्ग से प्रप्ति का विषय है ।धारणा यह की जहाँ विज्ञान का मार्ग समाप्त लगता है वहीं से परमात्मा का मार्ग प्रारंभ होता है ।आत्मा और पुरमात्मा को हम एक ज्योति बिन्दु स्वरूप मानते है ।इसी के साथ कर्म की व्याख्या के आयाम मिलते है ।
पाउडी 31-32 नानक से पुछे प्रश्न –परमात्मा का निवाल कहाँ है,और उसका भंडारा जहाँ से सबको देता है।इसकी व्याख्या।अहंकार मुक्त स्मरण जरूरी।
पाउडी 33 जीव स्वतंत्र है या परतंत्र,क्या जीव अपने बल से कुछ कर सकता है।इसी तरह जवाब भिखारी तुम अपने हाथ से हो सम्राट तुम उसकी कृपा से हो सकते हो,परमात्मा का ही जोर चलता है,भक्त रविदास(चमार),भाई साधना(कसाई) और भक्त कबीर(जुलाहा),,यह सबी नीच से ऊंचे हो गए।अजामल (ब्राह्म्ण) पर स्त्री गमन के कारण नीच पापी बना ।
पाउडी 34-35 नानक जी से आग्रह किया कि हमें कर्मकाण्ड,ज्ञानकाण्ड और उपासना काण्ड का भी स्वरूप बताओ----पंचतत्वों के इस शरीर को कर्म के माध्यम से परमात्मा के दरबार में पंचों के न्याय इन्द्रियों को जो पंयों के रूप मे वहीं कर्मों का हिसाब होगा प्रत्येक कर्म के पीछे उदेश्य बहुत ही महत्व रखता है ।इस पृथ्वी को धर्मशाला समझो। 
पाउडी 36-38-इस तरह इस कृति के अंतिम तीन पउडी के माध्यम से नानक जी ने संक्षिप्त में –हृदय मे धैर्य,जत,सत,अडोल बुध्दि, ज्ञान,भय,वृति मे वैराग्य,  तथा एकाग्रता, प्रेम धारणा करने की आवश्यकता है और यही टकसाल सच्ची है जहाँ
गुणी और ज्ञानी बनाये जाते है।अनेको महत्वपूर्ण विषयों का विस्तार करते हुए गुरूनानक जी गृहस्थ में रहकर सन्यासी की भाँति ईश्वर को पाया।
इसके अलावा सलोकु    (श्लोक) कुछ संकट मोचन शब्द और अरदास से इस किताब को पूर्ण करते हुए लेखक ने बहुत ही शिद्दत के साथ इस कृति को हमारे हाथों मे सौंप कर समाज की आवश्यकता की वर्तमान स्थिति को समझ हिंदी पाठको के लिए इस किताब के माध्यम से जो कार्य किया है बहुत ही सराहनीय व पाठक इस किताब को पढते हुए गुरूनानक जी के उपदेशो पर घ्यान देगें ऐसी मेरी अपेक्षा है। इनके लेखन के उज्जवल भविष्य की कामना के साथ ।
आपका 
लिंगम चिरंजीव राव
म.न.11-1-21/1,कार्जी मार्ग
इच्छापुरम,श्रीकाकुलम(आंध्रप्रदेश)
पिन-532 312
मो.न. 8639945892