दुष्यंत कुमार – हिंदी गज़ल और दुष्यंत..।
दुष्यंत कुमार – हिंदी गज़ल और दुष्यंत..।
आपका जन्म 01/09/1933 को बिजनौर जिले के राजपुरनवाद गाँव ,उत्तरप्रदेश मे हुआ था ।
समय की माँग का शायर..।हिंदी की गज़लों का शायर..।अपनो का शायर..।दोस्तों का शायर..।ऐसा था अपने हिंदुस्तान का ये शायर..।।हिंदी के लोकप्रिय कवि-नाटककार-लेखक ।अपनी गजलों के लिए बहुत मशहूर हुए।इनकी गजलो की खास बात यह थी की उनकी ज गजले आम जनता के दर्द को समेटते हुए चलती है,संघर्ष,विडंबना,विद्रुपता,सामाजिक राजनीतिक विसंगतियों को अत्यंत ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने की क्षमता रखती है ।जिसका सीधा असर पाठक के मनोमश्तिष्क पर गहरा असर छोडता है । यथार्थ में उनके जीवन के कटु अनुभव ही उनकी गजल के अंग बनकर उभरते है ।इन सभी बातो के पीछे उनकी मात्र भावुकता ही नहीं वर्ना बौध्दिक नजरिया भी था । प्रगतिशील धारा के प्रमुख कवि जिनके जीवन के आयामों लेखन को मिला बहुत ही कम समय जिसमें उनकी कृतियों में प्रमुख हैः-सूर्य का स्वागत,आवाजो के घेरे,जलते हुए वन का बसंत और ‘’साये मे घूप’’ जिसने हिंदी गजल की दुनिया में इतनी शौहरत पायी उतनी शायद ही किसी नें आधुनिक साहित्यकारों मे बहुत से नाम आज भी चर्चीत है ।
उपन्यास छोटे-
छोटे सवाल,दुहरी-जिंदगी,आँगन मे एक वृक्ष इसके अलावा उनका एक बहुचर्चीत एकाकी संग्रह ‘’मन के कोण’’ भी है।
ऐसा कहा सुना जाता है कि,हिंदी मे इनकी ग़ज़ल से पहले भी कुछ साहित्यकारों ने लिखा था पर कोई खास नहीं और वे सभी अपने लेखन क्षेत्र के एक मुकम्मल मुकाम तक पहले ही से आ गये थे पर हिंदी मे उनके ग़ज़लो की दखल ने बहुत कुछ नहीं दिया।यह क्रम चलता रहा पर ।दुष्यंत कुमार जी की एक किताब जब प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक था साये मे घूप हिंदी गजल की एक बहुत ही ख्यातिलब्ध कृति मानी जाने लगी ।इस कृति ने यह भी साबित कर दिया गजल केवल रूमानियत या श्रृंगारिता के लिए नहीं बनी है ।गजलकारों ने सपनो की व्याख्या को साथ दुख,दर्द को लेकर भी लोगों तक पहुँचने की उत्कंठा थी ,फिर अपने तेवर के साथ सामाजिक सरोकारों से परिपूर्ण हिंदी गजल को नये आयाम देते हुए भाषिक विशिष्ठता भावगत आधुनिकता और शिल्पगत नव्यता के साथ लेखन होने लगा लये-नये प्रयोग । गजलकार दुष्यंत जी सत्तर अस्सी के दशक मे परंपरा के साथ एक नये संबंघ की स्थापना की जिसमे मानवीय सम्बंधों के साथ सच्चाई की सूक्ष्मता को प्रमुखता देते हुए जिस आकर्षण को तैयार किया था वो आज भी अपनी विरासत के साथ इनकी देन मानी जा सकती है ।इन्होंने मनुष्य जीवन के यथार्थ से जोडने का काम किया जिसमें राजनीतिक,सामाजिक,आर्थिक,व्यक्तिगत,नैतिक विषयों को अपनी गजल का हिस्सा बनाया और यह प्रयोग उस समय की माँग भी थी जिसमें वे सफल रहे ।समाज के अंदर पनप रही बौखलाहट में चेतना का संचार हुआ ।
सामाज की बदलती परिस्थितियां आजादी के बाद राजनेताओं के झूठे वादे जनता का मोहभंग करती स्थिति को उजागर करतीः-
‘’कहाँ तो तय था चरागाँ हर घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए ।’’
साथ ही सामान्य जनता अनेक समस्याओं से जूझ रही है..।घुटन की स्थिति है सामाजिक क्रांति के लिए एक दिशा देतेः-
‘’हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।‘’
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो
हो कहीं तो आग लेकिन आग जलनी चाहिए।“
आजादी के बाद की सामाजिक स्थिति के बारे में पूंजीवादी वर्ग व्दारा मजदूरों का जो शोषण हो रहा था का एक यथार्थ चित्रण,सामाजिक व्यव्स्था के दूषित वातावरण का प्रभाव जो समाज में पूंजीवादी व्यव्स्था के कारण शोषित और शोषक वर्ग का निर्माण जिसके कार विकास की जगह पतन दिखाई दे रहा थाः-
‘’यहाँ दरख्तो के साये में घूप लगती है
चलो यहाँ से और उम्र भर के लिए।‘’
अपनी गजलों में वे राजनीति के चरित्र पर प्रहार करते है ,जिसमें छल है धोका है,फरेब है ,वादा खिलाफी है,अंधेरगर्दी है ।सच तो यह है कि अपनी गजलों में इन्होने अच्छे खासे पैतरे अपनाते रहे ,कभी सीधे तो कभी उलटे, कभी छाती ठोकक जैसेः-
‘’ मत कहो आकाश मे कुहरा धना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
इस सडक पर इस कदर कीचड बिछी है
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।‘’
उस दौर में आपात काल की स्थिति का भी सामना देश में यहाँ की जनता ने जो सहा और देखा था ।उसका असर भी इनकी गजलों मे उस समय के तेवर भी हमें दिखाई देते है।दुष्यंत कुमार ने नयी परिस्थितियों से उत्पन्न नये यथार्थ को भी पहचानते रहे ,नये मानव के साथ उपजे उमंगों को आत्मसात कर आत्मविश्वास को बढाने का काम किया ।एक सजग और संधर्षशील गजलकार होने के नाते उन्होंने सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों को और उससे निर्मित परिस्थितियों को पूरी ईमानदारी से अपनी गजलों में रखा है ।उनका नजरिया एक सामाजिक विश्लेषक की तरह बहुत ही करीब से जानने और सोचने के कारण उनकी गजलों में इसके कारण जीवन की यथार्थता को महत्व देते हुए अनकी गजलों मे हमेशा आशावादी दृष्टिकोण भी रहा हैः-
‘’केवल हँगामा खडा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है की सूरत बदलनी चाहिए’’
दुष्यंत कुमार एक अकेले गजलकार है ,जिनके शेरों और गजलों में बच्चों जैसी मासूमियत,बेपनाह निश्छलता और सहज मानवीय रिश्तों की सोंधी-सोंधी खुशबू रहती है ।इनकी गजलों मे जीवन के ठोस यथार्थ से परिचय हुआ ।दुष्यंत कुमार ने अपनी गजलों मे जो यथार्थ की नींव रखी वो धीरे-धीरे पुख्ता होने लगी आज भी अनेक गजलकारों के शेरों में यथार्थ के झुकाव को देखा जा सकता है ।सामाजिक विद्रुपताओं और राजनीतिक छल प्रपंच को काव्यरूप दिया जा रहा है ।
दुष्यंत के यहाँ प्रश्न ही प्रश्न है, अंतरव्दंव्दो के विराट रूप से साक्षात्कार होता है। जीवन के संधर्ष है,ताप है ।उनकी कवितायें ही इसका प्रमाण है ।कुअंर बैचेन के शब्दों में कहा जा सकता है कि ‘’वास्तव में दुष्यंत कुमार की गजलो मे जो आग है वह उस व्यक्ति की आग है जो सामाजिक विसंगतियों एवं विद्रुपताओं को घ्यान से देखकर अपने समाज के बीच रहकर सकी पीडा को पूरी तरह समझते हुयो भीतर ही भीतर सुलग रही है।“ खुद दुष्यंत का आत्मालोकन अगर हम देखते है तो पाते है(जलते हुए वन का बसंत की भूमिका से) ‘’मेरे पास कविताओं के मुखौटे नहीं है ।अंतर्राष्ट्रीय मुद्रायें नहीं है और अजनबी शब्दों का लिबास नहीं है ।मैं एक साधारण आदमी हूँ और इतिहास और सामाजिक स्थितियों के संदर्भ मे साधारम आदमी की पीडा,उत्तेजना,दबाव,अभाव और उसके संबंधों की उलझनों को जीता और व्यक्त करता हूँ।’’
साये में घूप के चंद शेरः- जिसमे इनकी लेखनी के तेवर मिलते है ।
‘’यहाँ तो सिर्फ गुंगे और बहरे लोग बसते है
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा।‘’
‘’कैसी मशाले ले के चले तीरगी मे आप
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही।‘’
‘’हाथों मे अंगारे को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारो की तासीर बताए।‘’
इनके जीवन के संधर्ष के बहुत से उदाहरण है ,पर इन्होंने इसे कभी अपने पर असर होने नहीं दिया इनका महाप्रयाण 30-12-1975 को हुआ बहुत ही छोटी उम्र में हमें छोडकर चले गये ।
सादर नमन के साथ विनम्र श्रध्दांजलि।
संकलन व लेखन
लिंगम चिरंजीव राव