आचार्य चंद्रबली पांडेय जी (व्यक्तित्व व कृतित्व के आधार से यह कहा गया की आचार्य को हिदी के अतिरिक्त कुछ स्वीकार नहीं था।)

आचार्य चंद्रबली पांडेय जी
(व्यक्तित्व व कृतित्व के आधार से यह कहा गया की आचार्य को हिदी के अतिरिक्त कुछ स्वीकार नहीं था।)
जन्म- 24-04-1904
जयंती- 24-04-2025
पंडित चंद्रबली पांडेय जी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ जिले के सठियाँव के नासिरुद्दीनपुर नामक गाँव में 24 अप्रैल, 1904 (संवत् 1961 वि.) में हुआ था। ये साधारण परिवार के सरयूपारीण ब्राह्मण थे। इनके पिता गाँव में खेती का काम करते थे। इनको प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही मिली थी। काशी हिंदू विस्वविद्यालय से इन्होंने हिंदी से एम॰ए॰ किया था। आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। अपनी व्यक्तिगत सुख, सुविधा और किसी प्रकार की स्वकीय आवश्यकता के लिए ये कभी यत्नवान् नहीं हुए। अभाव, कष्ट और कठिनाइयों को ये नगण्य समझते रहे। इनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य साहित्य साधना थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शिष्यों में इनका मूर्धन्य स्थान था। गुरुवर्य का प्रगाढ़ स्नेह इन्हें प्राप्त था। अपने पिता का यही नाम होने के कारण आचार्य शुक्ल इन्हें 'शाह साहब' कहा करते थे। ऐसे योग्य शिष्य की प्राप्ति का शुक्ल जी को गर्व था। चंद्रबली पाण्डेय जी उर्दू, फारसी और अरबी के एक महान विद्वान् थे। अंग्रेजी, संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के भी ये अच्छे पंडित थे। इनके स्वभाव में सरलता और अक्खड़पन का अद्भुत मेल था। निर्भीकता और सत्यप्रेम इनके निसर्गसिद्ध गुण थे। इन्होंने जीवन में कभी पराजय स्वीकार नहीं की।
इनके निबंधों से पता चलता है कि सूफी साहित्य के ये अप्रतिम विद्वान् थे। 'तसब्बुफ अथवा सूफीमत' नामक इनका ग्रंथ इनकी एवद्विषयक विद्वत्ता का पुष्ट प्रमाण है। इनकी साहित्यनिष्ठा और प्रगाढ़ पांडित्य देखकर हिंदी साहित्य सम्मेलन ने एक बार इन्हें अपना सभापति चुना था। काशी नागरप्रचारिणी सभा के भी ये सभापति रहे। सभा से प्रकाशित होनेवाली 'हिंदी' नामक पत्रिका के ये संपादक थे। सभा से जो शिष्टमंडल दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार के लिए गया था, पांडेय जी उसके प्रमुख सदस्य थे। सन् 1984 में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का जो विशेषाधिवेशन हैदराबाद मे समपन्न हुआ था उसके सभापति रहे। पांडेय जी के स्वरचित ग्रंथों की संख्या तो अधिक है, किंतु जो कुछ भी उन्होंने लिखा है वह अत्यत महत्वपूर्ण है। इनकी छोटी बड़ी सभी कृतियों की संख्या 34 के लगभग है, जिनमें से तीन अँगरेजी में रचित हैं। कालिदास, केशवदास, तुलसीदास, राष्ट्रभाषा पर विचार, हिंदी कवि चर्चा, शूद्रक और हिंदी गद्य का निर्माण इनके प्रमुख ग्रंथ हैं। 'केशवदास' और 'कालिदास' नामक इनकी कृतियों पर इन्हें क्रमश: राजकीय पुरस्कार प्राप्त हुए थे। ‘तसव्वुफ अथवा सूफीमत’ उनकी प्रसिद्ध रचना है। राष्ट्रभाषा के संग्राम में 1932 से लेकर 1949 तक हिन्दी-अंग्रेजी और उर्दू में लगभग दो दर्जन पैम्पलेटों की रचना की। प्रकांड भाषाशास्त्री डॉ॰सुनीतकुमार चटर्जी ने एक बार कहा था 'पांडेय जी के एक एक पैंफ्लेट भी डॉक्टरेट के लिए पर्याप्त हैं।' आचार्य चंद्रबली पाण्डेय ने ‘तसव्वुफ़ अथवा सूफ़ीमत’ नामक पुस्तक लिखी, जो हिंदी में सूफ़ीमत का पहला क्रमबद्ध अध्ययन है। इस ग्रंथ में सूफ़ीमत का उद्भव, विकास, आस्था, प्रतीक, अध्यात्म साहित्य आदि विषयों पर विस्तार से विचार किया गया है। परिशिष्ट में तसव्वुफ़ का प्रभाव तथा तसव्वुफ़ पर भारत का प्रभाव, विषयों पर भी अध्ययन किया गया है। किंतु इसमें ईरान और अरब के सूफ़ीमत पर जितना विस्तार से विचार किया गया है उतना भारतीय सूफ़ीमतवाद पर नहीं। मलिक मुहम्मद जायसी तथा अन्य कवियों पर पाण्डेय जी के अन्य लेख भी नागरी प्रचारिणी पत्रिका में तथा अन्यत्र प्रकाशित हो चुके हैं। नूरमुहम्मद कृत ‘अनुराग बांसुरी’ में उन्होंने एक भूमिका दी है, जिसमें सूफ़ी कवियों की कुछ विशेषताएँ स्पष्ट की गई हैं। पाण्डेजी ने अपने समय के हिन्दू-उर्दू विवाद पर तर्कसम्मत ढंग से अपने लेखों और आलेखों में निरन्तर लिखा। उनके प्रमुख लेख हैं: "उर्दू का रहस्य", "उर्दू की जुबान", "उर्दू की हकीकत क्या है", "एकता", "कचहरी की भाषा और लिपि", "कालिदास", "कुरआन में हिन्दी", "केशवदास", "तसव्वुफ अथवा सूफी मत", "तुलसी की जीवनभूमि", "नागरी का अभिशाप", "नागरी ही क्यों", "प्रच्छालन या प्रवंचना", "बिहार में हिन्दुस्तानी", "भाषा का प्रश्न", "मुगल बादशाहों की हिन्दी", "मौलाना अबुल कलाम की हिन्दुस्तानी", "राष्ट्रभाषा पर विचार-विमर्श", "शासन में नागरी", "शूद्रक साहित्य संदीपनी", "हिन्दी के हितैषी क्या करें", "हिन्दी की हिमायत क्यों", "हिन्दी-गद्य का निर्माण", "हिन्दुस्तानी से सावधान" इत्यादि। उस समय कतिपय राजनीतिज्ञ हिंदी के स्थान पर हिंदुस्तानी नाम से एक नई भाषा को प्रतिष्ठित करने का अथक प्रयास कर रहे थे, जो प्रकारांतर से उर्दू थी। उसके विरोध में पांडेय जी ने अपनी दृढ़ता, अटूट लगन, निर्भीकता और प्रगाढ़ पांडित्य से राजनीतिज्ञों की कूटबुद्धि को हतप्रभ कर दिया था। पांडेय जी को साहित्य विषयक शोधकार्य में विशेष रस मिलता था। उनके छोटे से छोटे निबंध में भी उनकी शोधदृष्टि स्पष्टत: देखी जा सकती है।
आचार्य चंद्रबली पांडेय को हिदी के सिवाय कुछ स्वीकार नहीं था । पुरस्कार : उत्तर प्रदेश की सरकार व्दारा 'तसव्वुफ अथवा सूफीमत', 'केशवदास', 'शूद्रक' रचनाओं पर पुरस्कार प्राप्त हुए किन्तु 'कालिदास' रचना पर पुरस्कार की घोषणा की गयी परन्तु चन्द्रबली पांडेय जी ने पुरस्कार अस्वीकार कर दिया। चन्द्रबली पाण्डेय आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उनके स्वभाव में सरलता और अक्खड़पन का अद्भुत मेल था। निर्भीकता और सत्यप्रेम इनके निसर्गसिद्ध गुण थे। चन्द्रबली पाण्डेय ने जीवन में कभी पराजय स्वीकार नहीं की थी। अपनी व्यक्तिगत सुख, सुविधा और किसी प्रकार की स्वकीय आवश्यकता के लिए वे कभी यत्नवान नहीं हुए। अभाव, कष्ट और कठिनाइयों को वे नगण्य मानते रहे थे। जीवन का एकमात्र लक्ष्य साहित्य साधना थी। चन्द्रबली पाण्डेय का आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शिष्यों में मूर्धन्य स्थान था। गुरुवर्य का प्रगाढ़ स्नेह इन्हें प्राप्त था। अपने पिता का यही नाम होने के कारण आचार्य शुक्ल इन्हें 'शाह साहब' कहा करते थे। ऐसे योग्य शिष्य की प्राप्ति का शुक्ल जी को गर्व था। काशी की प्रसिद्ध विद्या-विभूति पं. चंद्रबली पाण्डेय यद्यपि विश्वविद्यालय सेवा से नहीं जुड़े थे, पर विश्वविद्यालय परिसर में ही अपने मित्र मौलवी महेश प्रसाद के साथ रहते थे। बाद में वे डॉ. ज्ञानवती त्रिवेदी के बँगले पर आ गये थे। पं. शान्तिप्रियजी और पं. चंद्रबली पाण्डेय आज़मगढ़ के विद्या रत्न थे और आजमगढ़ के राहुल सांस्कृत्यायन को अपने जनपद के पं. चंद्रबली पाण्डेय, पं. लक्ष्मीनारायण मिश्र और पं. शांतिप्रिय द्विवेदी की विद्या-साधना का सहज गर्व था। अपनी जीवन यात्रा में राहुल सांकृत्यायन जी ने अपनी भावना प्रकट की है। हैदराबाद हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पं. चंद्रबली पाण्डेय थे दक्षिण भारत मे हिंदी का प्रचार-प्रसार का कार्य पंडित चंद्रबली पाण्डेय जी व्दारा बहुत ही सराहनीय रहा । पं. चंद्रबली पाण्डेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पट्ट शिष्य थे। ब्रह्मचारी शिष्य को शुक्लजी अपने साथ ही रखते थे। पुत्रवत वात्सल्य पोषण देते हुए अंतरंग नैकट्य से शुक्लजी ने पाण्डेय जी के विद्या-व्यक्त्तित्व का आधार रचा था। पाण्डेय जी की हिंदी निष्ठा, लोगों की नज़र, दुराग्रह की सीमा को स्पर्श करती थी। हिंदी के पक्ष में वे कभी भी किसी से भी लोहा लेने को तैयार रहते थे। उनमें न तो लोकप्रियता की भूख थी और न पद प्रभुता की स्पृहा। इसलिये कबीरी अंदाज़ में किसी अनौचित्य और स्खलन पर तीखी टिप्पणी करते उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता था। विद्या व्यापार को किसी प्रकार की छूट देना उन्हें क़तई मंजूर नहीं था। शुक्लजी उनके ज्ञान के प्रतिमान थे। शुक्लजी के पाठ पर पढ़कर और उसके अंतरंग नैकट्य में रहकर कठोर परिश्रम से उन्होंने विद्या-संस्कार अर्जित किया था। उनका निकष बड़ा कठोर था। इसलिये केशव प्रसाद मिश्र और आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी जैसे पण्डितों की निष्पत्तियों पर, विवेक के आग्रह से, प्राय: प्रश्नचिह्न खड़ा करते रहते थे। पंडित चंद्रबली पाण्डेय जी हिंदी के अप्रीतम योद्धा ने हिंदी-विरोधियों से उस समय लोहा लिया, जब हिंदी का संघर्ष उर्दू और हिंदुस्तानी से था। भाषा का प्रश्न राष्ट्रभाषा का प्रश्न था। भाषा विवाद ने इस प्रश्न को जटिल बनाकर उलझा दिया था। उर्दू भक्त हिंदी को 'हिंदुई' बताकर 'उर्दू' को हिंदुस्तानी बताकर देश में उर्दू का जाल फैला रहे थे। उर्दू समर्थकों की हिंदी-विरोधी नीतियों ने ऐसा वातावरण बुन दिया था, जिसमें अन्य भाषा-भाषी हिंदी को सशंकित दृष्टि से देखने लगे। स्वयं चंद्रबली पाण्डेय के शब्दों में उर्दू के बोलबाले का स्वरूप यों था- 'उर्दू का इतिहास मुँह खोलकर कहता है, हिंदी को उर्दू आती ही नहीं और उर्दू के लोग, उनकी कुछ न पूछिये। उर्दू के विषय में उन्होंने ऐसा जाल फैला रखा है कि बेचारी उर्दू को भी उसका पता नहीं। घर की बोली से लेकर राष्ट्र बोली तक जहाँ देखिये वहाँ उर्दू का नाम लिया जाता है। उर्दू का कुछ भेद खुला तो हिंदुस्तानी सामने आयी।'भाषा विवाद के चलते हिंदी पर हमेशा बराबर प्रहार हो रहे थे। हिंदी के विकास में उर्दू के हिमायतियों द्वारा तरह-तरह के अवरोध खड़े किये जा रहे थे, तब हिंदी की राह में पड़ने वाले अवरोधों को काटकर हिंदी की उन्नति और हिंदी के विकास का मार्ग प्रशस्त किया चंद्रबली पाण्डेय ने। उनके प्रखर विचारों ने भाषा संबंधी उलझनों को दूर कर हिंदी क्षेत्र को नई स्फूर्ति दी। उनके गम्भीर चिंतन, प्रखर आलोचकीय दृष्टि और आचार्यत्व ने हिंदी और हिंदसाहित्य को हर तरह से समृध्द करने के इनके प्रयास बहुत ही सराहनीय व प्रशंसनीय रहे। आजमगढ़ आचार्य चंद्रबली पांडेय स्मारक निधि के तत्वावधान में शुक्रवार को नासिरूद्दीनपुर गांव में राष्ट्रभाषा आंदोलन के महानायक प्रखर आलोचक आचार्य चंद्रबली पांडेय की 62वीं पुण्यतिथि मनाई गई। उनके चित्र पर पुष्प अर्पित कर लोगों ने उन्हें याद किया। चीनी मिल सठियांव के पूर्व सभापति आनंद उपाध्याय ने कहा कि हिदी के साथ भी राजनीतिक षड़यंत्र किया गया है। कहा कि हिदी भारत की राष्ट्र भाषा होने के साथ ही विश्व भाषा के स्थान पर प्रतिष्ठित हो सकी। ऐसे भाषा सेनानी को हम श्रद्धा पूर्वक नमन करते हैं। डॉ.प्रेमप्रकाश यादव ने कहा कि 'तसव्वुफ अथवा सूफीमत' जैसे शोध परख ग्रंथ लिखकर चंद्रबली पांडेय ने न केवल हिदी का संवर्धन किया बल्कि उन सूफीयों का मार्गदर्शन भी किया जिन्हें सूफीमत और इस्लाम के संबंध में भ्रम रहा। आयोजक विपिन कुमार पांडेय ने सभी का आभार व्यक्त किया। कैलाश पांडेय, अजीत कुमार पांडेय, जित्तन यादव, माखन सिंह, दिनेश सिंह व आजाद सिंह आदि उपस्थित थे। जागरण संवाददाता, अमिलो (आजमगढ़): राष्ट्रभाषा आंदोलन के महानायक, प्रखर आलोचक एवं समीक्षक और हिदी के पुरोधा आचार्य चंद्रबली पांडेय की 63वीं पुण्यतिथि रविवार को उनके पैतृक गांव सठियांव ब्लाक के नसीरूद्दीनपुर गांव में मनाई गई। आचार्य चंद्रबली पांडेय स्मारक निधि के तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम में उपस्थित लोगों ने स्व. पांडेय के चित्र पर पुष्प चढ़ाकर श्रद्धांजलि दी। उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर चर्चा करते हुए कहा कि आचार्य को हिदी के अतिरिक्त कुछ स्वीकार नहीं था। आचार्य के वंशज और आजाद भगत सिंह युवा वाहिनी के संस्थापक अवनीश पांडेय ने कहा कि चंद्रबली पांडेय ने हिदी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। हिदी के उन्नयन एवं संवर्धन में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। हिदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिस्थापित करने में उनका संघर्षपूर्ण योगदान सदा स्मरणीय रहेगा। डा. संतोष यादव ने कहाकि आचार्य चंद्रबली पांडेय सादा जीवन और उच्च विचार के हिमायती और व्यवहार में अत्यंत कठोर थे। स्वतंत्र सिंह मुन्ना ने कहा कि चंद्रबली पांडेय जैसा व्यक्तित्व कभी-कभी जन्म लेता है और अपनी कृतियों से सदैव अमर रहता है। अध्यक्षता आचार्य विपिन कुमार पांडेय व संचालन ओमकार सिंह ने किया। हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन, संवर्धन और संरक्षण के लिए समर्पित साहित्यकार चन्द्रबली पाण्डेय। इन्होंने अपना पूरा जीवन अध्ययन और हिंदी प्रचार में लगा दिया। हिंदी उर्दू समस्या तथा सूफ़ी साहित्य और दर्शन से सम्बद्ध इनके विचार ऐतिहासिक महत्त्व के हैं। चन्द्रबली पाण्डेय आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उनके स्वभाव में सरलता और अक्खड़पन का अद्भुत मेल था। निर्भीकता और सत्यप्रेम इनके निसर्गसिद्ध गुण थे। चन्द्रबली पाण्डेय ने जीवन में कभी पराजय स्वीकार नहीं की थी। अपनी व्यक्तिगत सुख, सुविधा और किसी प्रकार की स्वकीय आवश्यकता के लिए वे कभी यत्नवान नहीं हुए। अभाव, कष्ट और कठिनाइयों को वे नगण्य मानते रहे थे। जीवन का एकमात्र लक्ष्य साहित्य साधना थी।
हिंदी भाषा और साहित्य के संरक्षण, संवर्धन और उन्नयन में अपने जीवन की आहुति देनेवाले इस साहित्य सेनानी का निधन काशीस्थ रामकृष्ण सेवाश्रम में चन्द्रबली पाण्डेय का निधन 24 जनवरी 1958 ई.(संवत्2015) में हो गया था। हमारी विनम्र श्रध्दांजलि ।
चिरंजीव
संकलन व लेखन
लिंगम चिरंजीव राव
म.न.11-1-21/1, कार्जी मार्ग
इच्छापुरम ,श्रीकाकुलम (आन्ध्रप्रदेश)
पिनः532 312 मो.न.8639945892