‘’एक थे श्याम बेनेगल जो सिनेमा और समाज की जरूरत थे।’’
(इनके निर्देशन से समानान्तर सिनेमा को नई दिशा मिली)
(सिनेमा को सिनेमा के अर्थों में सिनेमा-दर्शकों की नब्ज पहचानता-निर्देशक)

(श्याम बेनेगल कलाकारों की अभिनय कला की विशेषताओं व कलाकारों के चयन के चितेरे समय की मांग को भली भांति जानते थे और इसी तरह पहचानते हुए कलाकारों को उसके अनुकूल ढालने की अद्भुत क्षमता वाले निर्देशक थे। उन्होंने उस समय की अपने निर्देशित धारावाहिकों और फिल्मों के लिए स्थापित कलाकारो की जगह नये व पहचान बनाने में संघर्षरत ऐसे ही रंगमंच के कलाकारों का चयन कर एक मिसाल कायम किया। और फिर सिनेमा जगत को जो सौगात फिल्मों, धारावाहिकों और वृत्त चित्रों के माध्यम से हमें दे गये । हम आपके हमेशा ऋणी रहेगें। उनकी फिल्मों मे धारावाहिकों के लिए चयनित कलाकारों मे अधिकतम कलाकारों ने अपनी विशिष्ठ कला कौशल के व्दारा आज जो मुकाम हासिल किया है, जो सिनेमा जगत को 70 से 90 वें दशक तक जिस उचाँई तक पहुँचाया वो तारीफे-काबिल है ।)
असाधारण क्षमता के धनी फिल्मी दुनिया में लगभग पाँच से छः दशकों का श्याम बेनेगल का फिल्मी सफर उनके जीवन में फिल्मों से जुड़ाव तो घरेलू परिवेश की ही देन रही है यह बात उनके अनेक साक्षात्कारों मे दिए विवरणों के आधार पर बचपन से ही इसकी शुरुआत का होना और यह भी संकल्पित रहना कि मैं फिल्म ही बनाउंगा। उनकी इच्छा शक्ति का परिचय कराता है। और यह मुँह माँगी मुराद की तरह उनके जीवन मे साबित भी हुआ ।

समाज में व्याप्त मूलतः ग्रामीण परिवेश व छोटे-बडे शहरों में फैली अनेक कुरीतियों, समानता, असहनीय परंपराओं मे नारी शोषण, नारी समानता ,अछूत ,साम्प्रदायिक भेदभाव जैसी समस्याओं को उजागर करने के क्षेत्र मे दर्शकों की नब्ज पहचानने वाले संघर्षशील निर्देशक थे श्याम बेनेगल बाबू। इस पाँच से छः दशको की यात्रा के अनेक पड़ाव उनकी उपलब्धियों की कहानी कहती है, कि इनके व्दारा निर्मित सिनेमा राष्ट्रीय स्तर ही नहीं वरन् अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भी सुशोभित होती रही और आगे भी इसकी छाया बरकरार होती रहेगी ।   

जीवन के हर आयाम को शैने-शैने जीने की कला को सिनेमा के रूपहले पर्दे पर जिस चतुराई से लोगों के सामने रखने का व लोगों को इसकी विषय-वस्तु के साथ जुडने के लिए मजबूर करने की क्षमता के बिरले फिल्मकारों मे एक श्याम बेनेगल थे।  जो सिनेमा के द्वारा समाज को और समाज के व्दारा सिनेमा को जीवित रखने का प्रयास ही नहीं किया बल्कि उन्होंने तो भारतीय सिनेमा के विस्तार को विश्व के अनेक देशों के साथ उपयोगिता की प्रतियोगिता का भी हिस्सा बनाया। उनकी फिल्मों ने जो यात्रा की जिसमें अंकुर से मुजीब तक हमें समाज में महिलाओं की स्थिति ,जातिगत मतभेद ,मुस्लिम समाज के विषय ,सेमी कमर्शियल फिल्में और कुछ विषयों पर वृत्तचित्र व धारावाहिकों का सहारा लेकर उन्होंने अपनी बातों को इस माध्यम के सहारे बहुत ही सहजता के साथ प्रस्तुत करने में सफलता मिली।  

जीवन बहुत ही सुंदर है, जीने के हर कठिन अंदाज समझने के हर प्रयास उनके बहुत सराहनीय व उच्च कोटि के चिंतन से भरे थे । उनकी फिल्मों ने साहित्यकारों की कहानियों को भी आधार बनाया और उन कहानियों की नाटकीय प्रस्तुति को बहुत ही सुगमता से सुगढ़ रूप दिया जो हमेशा ही फिल्म के अंदर कलाकारों के अभिनय का अलग ही स्वरूप लिए उनकी विशेषता भी हमारे लिए प्रस्तुत करती आ रही है। व्यावसायिकता के लिए बनी फिल्मों को इस निर्देशक ने यह बता दिया की उनकी फिल्में भी उतनी ही महत्वपूर्ण व मनोरंजन की दृष्टि से दर्शकों तक पहुँचने मे सक्षम रही है ।   

सिनेमा के संदर्भ में एक स्वाभाविक सवाल बनता है कि कोई नायक फिल्म से बड़ा क्यों हो जाता है ? फिल्म जबकि तकनीक का माध्यम है और उसपर नियंत्रण निर्देशक का रहता है लेकिन वह जानी जाती है अभिनेताओं के नाम से, दूसरी तरफ नाटक अभिनेताओं का माध्यम है परंतु वह निर्देशक के नाम से जाना जाता है। दरअसल परदे पर अभिनेताओं की मिथकीय महा नायकत्व की जो अभिरचना होती है वह दर्शक के दिल व दिमाग मे स्थायी असर करने लगती है। और इस तरह करोड़ों लोगों के दिलो-दिमाग पर हुए असर के कारण नायक राज करता है। परंतु कुछ निर्देशकों के साथ ऐसा नहीं होता जिन्होंने परिपाटी बदली है और दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर कर लिया की अभिनेताओं/अभिनेत्रियों मे कला का निखरना व्यक्तिगत क्षमता के साथ-साथ, निर्देशक की कला कौशल व निर्देशन की कुशलताओं की क्षमताओं का भी परिणाम होता है और फिर इस तरह के कुछ निर्देशक सिनेमा को कलाकारों के सही चयन के माध्यम से उस ऊंचाई तक ले जाते है। जिसके कारण सिनेमा का न सिर्फ तकनीकी पक्ष वरन् कलाकारों के अभिनय का पक्ष भी उनके कुश्ल नेतृत्व की धरोहर की तरह याद किए जाते रहेंगें। इनमे सत्यजीत रे, मृणाल पाण्डे, गोविंद निहलानी और श्याम बेनेगल आदि जैसे और भी निर्देशकों की फिल्मों ने यह साबित कर दिया है, कि सही निर्देशन के माध्यम से फिल्म और उसके कलाकारों का अभिनय फिल्म की विषयवस्तु व कहानी के अनुकूल पात्रों को गढ़ने के कार्य को अंजाम देने मे निर्देशक ने अहम किरदार अदा किया है। इस दौरान कलाकारों ने जिस मुकाम को हासिल किया है। वह उनके आने वाले समय के लिए एक अलग पहचान के साथ व्यावसायिक व समानांतर सिनेमा के लिए बहुत उपयोगी भी रहा।  आशा है, वे सभी इस तरह श्याम बेनेगल की फिल्मों के सभी कलाकार जो इससे जुड़े थे  आजीवन इनके ऋणी भी रहेगें ।      

सत्तर के दशक से आरंभ होकर लगभग पंद्रह-बीस बरस का यह लंबा सफर सार्थक और समानांतर सिनेमा आंदोलन के समय का दौर रहा और उसे हम कला-सिनेमा का स्वर्णिम काल भी कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कहने मे कोई गलतफहमी नहीं श्याम बेनेगल भारतीय सिनेमा के उन महान निर्देशकों में से एक माने जाते है। जिन्होंने अपनी फिल्मों से समाज को एक नया दृष्टिकोण देने मे सफल रहे। फिल्में न केवल मनोरंजन का साधन रही है, बल्कि समाज मे हो रही समस्याओं, वर्ग संधर्ष , जातिगत मतभेद और मानवीय भावनाओं को भी प्रमुखता से फिल्मों के माध्यम से कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है। जिसके कारण हमें उनकी फिल्मों में प्रगतिशील विचारधारा और यथार्थवाद के साथ समानता, महिला सशक्तिकरण, जातिवाद और सामाजिक मुद्दों के माध्यम से अनेक सवाल हमें मिलते है। आज उनके निधन के पश्चात भी उन फिल्मों की बातें देश-विदेश के सिनेमा प्रेमियों के लिए उनके दिलों में विद्यमान है। इनके निर्देशन की खासियत तो बहुत है पर उन कलाकारों का चयन व उनके किरदारों को उस फिल्म के चरित्र के फिल्मांकन की वास्तविकता से जोड़ने का जो संघर्ष कलाकारों व निर्देशक बेनेगल जी ने किया है वह उन फिल्मों को देखने वालों को स्तब्ध कर देता है ।

श्याम बेनेगल ने जो फिल्में हमारे सिनेमा को दिए है उनकी सूची व उनके अन्य कार्यों का अवलोकन ही उनकी पहचान खुद ब खुद बताता है ।(1974) के अंकुर से लेकर मुजीब(2023) तक की यात्रा के अनेक  कठिन पड़ाव रहे और सफलता ने साथ दिया । इन पड़ाओं मे और इस दौरान कलाकारों ने जिनका चयन श्याम बेनेगल ने किया था, इन फिल्मों के माध्यम से अभिनय की जो सीढ़ियां देखी है उनमें प्रमुख हैः– शबाना आज़मी, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह , अनंत नाग,स्मिता पाटिल ,पंकज कपूर ,कुलभूषण खरबंदा जैसे अन्य रंगमंच की शान रहे कलाकारों को उनकी कला कौशल के कारण अपने अनुभव का लाभ लेकर चुना। । सभी भविष्य की सिनेमा के नायाब हीरे साबित हो रहे है । इस दौरान के कलाकारों ने जिस मुकाम को छुआ है और उसमे कुछ ऐसे कलाकारो मे जिनके सामने दिवंगत शब्द लिखने का साहस जुटाया जाना बहुत ही कष्टकारी प्रतीत होता है जिन्होंने अपने जीवनकाल में सिनेमा का इतना कुछ दिया जिसको हम हमेशा ही याद करते रहेगें। इनमें सबसे कम उम्र की स्मिता पाटिल 13-12-1986(31-वर्ष)-और उसी तरह से वरिष्ठ व महान ओमपुरी-06-01-2017(66 वर्ष) इन कलाकारों के अभिनय को श्याम बेनेगल की फिल्मों ने व श्याम बेनेगल की फिल्मों को इन्होंने जो मुकाम दिया अतुलनीय है । वह हम सभी के लिए अविस्मरणीय यादें बन फिल्मों के सहारे ही हमारे दिलों में जिंदा रहेंगे  इसके अलावा कुछ और कलाकार भी है जिन्होंने उनकी फिल्मों में काम किया और बहुत ही सशक्त अभिनय के साथ विदाई ले आज इस नश्वर संसार में नहीं है उन्हें भी हमारी विनम्र श्रद्धांजलि । श्याम बेनेगल की फिल्मों की सूची में अंकुर(1974), निशांत(1975), मंथन(1976), भूमिका(1977), कोन्दुरा(1977), जुनून (1978) ,कलयुग(1981) ,आरोहण(1982) ,मंडी(1983) ,त्रिकाल(1985) ,यात्रा(1986) दूरदर्शन धारावाहिक फिल्म ,सुसमन (1987) हथकरघा बुनकरों पर आधारित फिल्म ,भारत एक खोज(1988) दूरदर्शन के लिए .पंडित जवाहरलाल नेहरू की किताब डिस्कवरी ऑफ इण्डिया(भारत एक खोज) को 53 एपिसोड मे तैयार की गई  ,अंतर्नाद (1991) , सूरज का सातवाँ घोडा(1993). मम्मो(1994) ,सरदारी बेगम(1996) ,समर(1999) ,हरी-भरी (2000) ,जुबैदा (2001) ,नेताजी सुभाषचंद्र बोस(2005), वेलकम टू सज्जनपुर(2008),मुजीब(2023) तक की यात्रा बेमिसाल थी ।

इन फिल्मों में जितना कुछ इससे जुडे मुख्य पात्रों का योगदान रहा उसी तरह इन फिल्मों को कुछ ऐसे ही विशेष सह पात्रों का योगदान भी बहुत ही सराहनीय व अद्भुत कला-कौशल का प्रतीक बनकर उभरा है। पूरी तरह फिल्मों मे जिनके सहारे फिल्म की कहानी को गति प्रदान हुई निश्चित ही उन कलाकारो के अभिनय कौशल व निर्देशक बेनेगल जी का अनुभव हर बार फिल्म को एक ऐसी ऊँचाई छूने का लाभ मिला जो फिल्म जगत की आगे भी मिसाल बनकर रह देश-विदेश मे आज भी सराही जा रही है ।बेनेगल जी ने इन कलाकारों को जिस अनुशासन के साथ उनकी फिल्मों में जुड़े हुए उनके अभिनय कौशल को अपने निर्देशन व कलाकारों की प्रबल इच्छा शक्ति का समय पर उनके द्वारा निभाए गए रोल उस फिल्म के लिए एक जरूरत के साथ कलाकार को भी इस बात के अनुभव व अवसर उन्होंने प्रदान किए जहाँ उनकी अपनी भी प्रतिभा का इस्तेमाल करते हुए कलाकार कुछ अपने से भी जोड़ पाने मे निर्देशक का हमेशा सहयोग किया ।(यह ओमपुरी जैसे सुलझे कलाकार,भारत एक खोज के दौरान के एक साक्षात्कार के अंश है)इसलिए इस दौरान प्राप्त अनुभव ने इन फिल्मों के दर्शकों को जो कुछ भी दिया वह संधर्ष इन फिल्मों का मूल्य ही नहीं आंकता वरन् इन फिल्मों का समाज मे क्या स्थान है वह भी दर्शाता है।

सिनेमा के सौ बरस के समय व राज्य सभा टी.वी के साक्षात्कारों मे श्याम बेनेगल से किए व पूछे गये अनेको प्रश्न में एक प्रश्न- (इस सदी के अंत मे सिनेमा कहाँ पहुंचा है? इसकी दिशाएँ और चुनौतियां क्या है? हां –दृष्टिकोण भी..? के जवाब में बेनेगल जी ने जो कुछ भी कहा संक्षिप्त में वह कुछ इस प्रकार है-“”सिनेमा 20वीं सदी की कला है, है न । यह प्रौद्योगिकी से ऊपजी है , स्वयं भू चीज नहीं है ।य़ह ऊपजी क्योंकि इससे जुडी हुई औधोगिक तकनीकों मे विकास हुआ। और इसके जन्म के बाद इसमें आये बदलाओं की दिशा भी औधोगिक विकास की दिशाओं से बनती आयी है। इसे आज देखिए। घ्वनी, चित्र, चित्रों का आकार, उसकी बनावट और इस तरह की चीजें। इन सब में बहुत परिवर्तन आ गया है । इन परिवर्तनों के साथ-साथ सिनेमा के शब्दकोश और उनकी भाषा में लगातार विकास हो रहा है, बढ़त हो रही है । सिनेमा पहले से कहीं ज्यादा सक्षम होता जा रहा है।  लेकिन प्रौद्योगिकी बढ़ोतरी से आये शबदकोश और भाषा के विकास से इसकी अभिव्यक्ति अधिक मानवीय हो गयी है । सिनेमा को अधिक मानवीय अभिव्यक्ति की ओर ले जाना एक निरंतर चेलेंज है । हमेशा रहेगा । अन्य कलाओं की तरह..। दिलचस्प बात यह है कि सिनेमा के प्रौद्योगिकी के विकास से हमारी क्षमता भी विकसित हो रही है। प्रौद्योगिकी हमेशा ऐसा ही करती आ रही है। और ऐसा होना भी चाहिए ,ज्यादा से ज्यादा । इसी क्रम मे इसके साथ-साथ टेलीविजन की प्रौद्योगिकी का विकास हुआ है .इसमे विराट बदलाव आया है। उसकी तत्काल संचार की क्षमता ..। दर्शकों का दृष्टिकोण भी बदला है अब समाचार भी मनोरंजन हो गये है । जुडाव हाँ, हमारा जुडाव भी अब कम हो गया है, या खत्म हो गया है । यह प्रक्रिया 20वीं सदी के उत्तरार्ध मे चल रही है । सिर्फ सिनेमा में ही नहीं सारी कलाओं मे..। इसके मायने बदल गये है । अब हमें ऐतिहासिक महत्व की जरूरत नहीं है । आप कुछ भी कहीं से भी लेकर जोड़ सकते है। शर्त यह है कि बिक्री हो..। जो कुछ लोग देखने को तैयार हो और मजा ले रहे है , बनाइये । नतीजा यह कि नियम बदल गये है कि आप अपने नियम बना सकते है ,जब चाहे..। क्योंकि अतीत आपको कुछ नहीं सीखा सकता। अब सिर्फ वर्तमान है..और भविष्य। उत्पादक और उपभोक्ता के दायरे इसके परिणाम है ।“” इस प्रकार श्याम बेनेगल जी ने आने वाले समय के लिए जो तस्वीर हम सभी के सामने रखी वह शायद 21वीं सदीं के एक चौथाई हिस्से को हमने पार कर लिय़ा है। स्थिति के साथ संभवतः हमारे सामने जरूरत इस बात की है कि साधन तलाशें जाएं, ताकि मौजूदा हालात मे भी हम अपने आपके उत्पादक बना सके । शायद इस बची सहस्त्राब्दी के सामने इसी बात का चेलेंज है और हमारे सामने तकनीकी के विस्तार ने जिस रफ्तार से दृश्य मिडिया सिनेमा को टेलिविजन ही नही डिजिटल युग मे आर्टीफीशियल इन्टेलजंसी ने आ घेरा है । और इस दौर का भी ध्यान रखते हुए अपनी उत्पादकता की क्षमता मे विशेषता को पैदा करते हुए इस मनोरंजन के माध्यम को व्यावसायिक मात्र नहीं वरन समाज को जागृत करने वाले अवसर भी श्याम बेनेगल जैसे व अन्य निर्माताओं व निर्देशक को आगे आना होगा।

श्याम बेनेगल जी ने अपनी फिल्मों व वृत्तचित्रों के द्वारा जो ख्याति पायी है उसमे उनके सफल  निर्देशन के साथ चयनित कलाकारों का भी अत्यधिक महत्व व उनके कौशल का सही उपयोग कर निर्देशक ने जितनी भी फिल्में बनाई है वे लगभग प्रायः दर्शकों को कुछ सोचने के लिए सवाल देकर गई है। इन फिल्मों के किरदारों का अभिनय फिल्म के प्रवाह को सतत बनाए रखने मे बहुत ही सक्षम और उपयोगी रहा है। आज जब हम उनकी फिल्मों के निर्माण के वर्षानुसार क्रमवार अवलोकन करते है तो जिन बातों से हमारा साक्षात्कार होता है जो इनके अंदर निहित गूढ़ बातें जिसने समाज को सत्तर के दशक के 1974 से 2023 तक की यात्रा अंकुर से मुजिब तक संजीदा फिल्मों के साथ कुछ हल्के-फुल्के हास्य फिल्मों ,ऐतिहासिक व सामाजिक महत्व विविधताओं भारतीय मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को भी  अपनी फिल्मों का हिस्सा बना निर्देशन कर विविध आयामों से परिचय कराया है। इनके दौर की फिल्मों के साथ इन्होंने कुछ ऐसे ही बहुत ही नायाब टी.वी. धारावाहिकों से हमें जोड़ा है जो उनकी अद्भुत प्रतिभा का परिचय देती है जिनमे यात्रा (श्याम बेनेगल इस टीवी धारावाहिक के साथ छोटे पर्दे का पहला कदम था जो 1986 मे आई थी ।इस धारावाहिक मे उस समय की सबसे लंबी दूरी की रेल यात्रा वाली ट्रेन हिमसागर एक्सप्रेस पर फिल्माया गया था .इसमें ओमपुरी के साय़ नीना गुप्ता,इला अरूण,मोहन गोखले और हरीश पटेल ने अपने अभिनय कौशल से इस धारावाहिक को निभाय़ा जिसके 15 एपिसोड रहे),कथासागर (यात्रा धारावाहिक के पश्चात श्याम बेनेगल जी का कथासागर नामक टीवी धारावाहिक को 44 एपिसोड मे बनाया जिसमे पंकज बेरी के साथ सईद जाफरी ,सुप्रिया पाठक ,नीना गुप्ता  जैसे कलाकार थे।) भारत एक खोज(दूरदर्शन के लिए .पंडित जवाहरलाल नेहरू की किताब डिस्कवरी ऑफ इण्डिया(भारत एक खोज) को 53 एपिसोड मे तैयार की गई- भारत एक खोज पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रथम प्रधान मंत्री की किताब द डिस्कवरी ऑफ इंडिया(1946) पर आधारित थी ।जो एक ऐतिहासिक नाटक के रूप मे भारतीय उपमहाद्वीप के आजादी के पूर्व के 5000 वर्षों के इतिहास का चित्रण करते हुए 1947 अंग्रेजों से मिली आजादी तक के समय को प्रदर्शित करते हुए श्याम बेनेगल ने इस नाटक का निर्देशन ,लेखन और निर्माण को छायाकार श्रीमान वी के मूर्ति व पटकथा लेखन मे शमा जैदी के सहयोग से 1988 दूरदर्शन के लिए निर्माण किया था । इसमें अनेक कलाकारों का अभिनय हमें देखने को मिला था । जिसमे प्रमुख ओम पुरी ,रोशन सेठ (नेहरू की भूमिका) ,टॉम ऑल्टर और सदाशिव अमरापुरकर आदि) अगला ,अमरावती की कथाएँ (एक भारतीय टेलीविजन सीरीज 1986 में दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ था इसमें विश्व भर के लेखकों की कहानियों का समावेश किया गया था कुल 37 कहानियों का शो था जिसमें श्याम बेनेगल जी के साथ अन्य निर्देशकों का भी योगदान रहा जिसमें कुंदन शाह ,वेद राही ,और सत्येन बोस प्रमुख थे कलाकारों की इन कहानियों मे बहुत लंबी सूची है जो सिनेमा के ख्यातिलब्ध कलाकारों का संयोजन था ) टीवी के लिए कुछ विदेशी कहानियों को भी लेकर आये जिसमे बहुत ही सुंदरता से भारतीय संदर्भ के अनुकूल प्रस्तुति का सफल प्रयास किया गया। यह दौर सिनेमा का कठिन दौर था जिसका उपयोग धारावाहिक बनाकर श्याम बेनेगल जी ने अपनी आर्थिक स्थिति को बिगडने नहीं दिया ।  फिर वे सिनेमा से जुड गये और वर्ष 2014 को संविधान-भारत के संविधान का निर्माण बेनेगल जी ने 10 भागों मे एक छोटी स्वरूप मे एक टीवी सिरियल को तैयार किया था जिसका प्रीमियर शो 02 मार्च 2014 को राज्य सभा टीवी पर हुआ था ।इस प्रकार उनके वृत्तचित्रों का क्रम कुछ और भी जुडे। जो सिनेमा मे प्रवेश के बाद व उसके दौरान के है ।

इस लेख के माध्यम से श्याम बेनेगल के चयनित कलाकारों के अभिनय कौशल के विषय में उनके फिल्मों के कलाकारों मे प्रमुख अभिनेत्री- शबाना आज़मी ,स्मिता पाटिल, राजेश्वरी सचदेव ,सुरेखा सीकरी ,फरीदा जलाल,सीमा भार्गव ,पल्लवी जोशी ,किरण खेर ,दीना पाठक ,नंदिता दास ,प्रिया तेंदुलकर,सुलभा देशपांडे ,इला अरुण ,नीना गुप्ता,सोनी राजदान ,अनीता कंवर ,लाला नायडू ,अलीशा चिनॉय ,अमृता राव ,सीमा विश्वास ,दिव्या दत्ता ,प्रीति निगम,मोहनी शर्मा ,रीमा लागू ,हिमानी शिवपुरी ,स्मृति मिश्रा जैसी सूची रही और प्रमुख अभिनेताओं की सूची में-,नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी,अमरीश पुरी ,रजित कपूर,अनंत नाग .कुलभूषण खरबंदा ,के के रैना, गिरीश कर्नाड , रघुवीर यादव आदि इनके धारावाहिकों मे भी पात्रों के चयन में इन्हीं कलाकारों का बाहुल्य रहा । श्याम बेनेगल के करियर के शुरुआती दौर मे जो उन्होंने संघर्ष किया पिताजी जो एक पेशेवर फोटोग्राफर थे। पिता से मिले 16मिमी कैमरे से 12 साल की उम्र मे एक घरेलू फिल्म बनाई। और छात्र जीवन मे ही सिनेमा ही उनका कार्यत्रेक्ष और अभिव्यक्ति का माध्यम बनेगा सोच लिया था। और फिर रास्ते तय होते गये कठिन ही सही पर मंजिल पाने की इच्छा जारी रही। फिर एक विज्ञापन एजेंसी से जुड गये  1959 से मुंबई मे कॉपीराइट का काम किया यहाँ क्रिएटिव प्रमुख बने,पहली गुजराती(1962) मे डाक्यूमेंट्री ‘’घेर बैठा गंगा’’(गंगा दरवाजे पर) , 1966 से 1973 तक पुणे के फिल्म संस्थान .दो बार इसके अध्यक्ष रहे(1980-1983 और 1989-1992)। पहली फीचर फिल्म तक आते आते 10 साल लग गये 1974 तक की यात्रा जब उन्होंने अंकुर का निर्माण किया था तब तक उनके पास अनुभव के तौर पर 900 से ज्यादा विज्ञापन फिल्मे और 11 कॉरपोरेट फिल्मों का मिर्माण व उसकी बारीकियों का प्रबल विश्वास था जो उनके फिल्म निर्माण के कार्य के आधार स्तंभ भी बने।       

इनके अधिकतर प्रमुख फिल्मों में महिलाओं की समस्याओं, समाज के इस ओर नकारात्मक दृष्टिकोण व उनकी अनदेखी पर हो रहे हर तरह के अत्याचारो के साथ महिलाओं की सहनशीलता व प्रतिरोध को प्रदर्शित करते हुए महिला सशक्तिकरण व उनकी प्रतिरोधक क्षमताओं के माध्यम से समाज को आईना दिखाने के लिए हर बार एक सवाल के साथ फिल्म का सुंदर अंत जो महिलाओं के इर्द-गिर्द फिल्म पितृसत्तात्मक/पुरुष सत्तात्मक परिवार के आयामों को पूर्णतः दिखाने के प्रयास मे सक्षम होते हुए महिला अभिनेत्रियों के अभिनय को उनके निर्देशन में इतना उँचा उठाया है जो बहुत ही काबिले तारीफ है। इसकी ऐसी आवश्यकता का परिचय अपनी पहली फिल्म अंकुर से ही मिल गया था ।(अंकुर ,निशांत ,मंथन ,भूमिका ,मंडी ),अंकुर(1973-74) ,यहीं से समानांतर सिनेमा की फिर से शुरुआत हो गई ..इसके पहले हमारे पास एक उदाहरण 1925 मे बनी ‘’सवकारी पाश’’ (मूक फिल्म) बाबूराव पेंटर द्वारा निर्मित ।.वी शांताराम  उनके सहायक थे, तथा फिल्म में एक भारतीय किसान की ऋणग्रस्तता और रक्तशोषक साहूकार के चित्रण के लिए यह फिल्म अपनी छाप छोड़ने में सफल रही। इस फिल्म के एक दृश्य का जिक्र , जिसमे एक मौत के बाद झोपडी के सामने बाहर सिर ऊँचा कर एक कुते के रूदन का दृश्य एक प्रयोगधर्मी व प्रतीकात्मक भी कह सकते है, और यह आने वाले समय के प्रति सचेत होने के संकेत भी है। ठीक उसी तरह अंकुर का अंतिम दृश्य बच्चे द्वारा पत्थर मारना ।   इसके बाद एक और फिल्म ‘’दुनिया ना माने’’ 1937(इसको कुछ कारणों से मान्यता नहीं मिली) हमारे फिल्मी जगत को समानांतर सिनेमा की शुरुआत के इशारे देकर चली गई। उसके बाद 1940 के बाद समानांतर सिनेमा ने आकार लेना आरंभ किया इसके आसपास कुछ महान निर्देशकों ने जिसमे सत्यजीत राय (श्याम बेनेगल के लिए आदर्श रहे),ऋत्विक घटक ,विमल राय , मृणाल सेन ,तपन सिन्हा ,ख्वाजा अहमद अब्बास, बुध्ददेव दास गुप्ता ,चेतन आनंद ,गुरुदत्त और वी. शांता राम आदि थे, पर बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिली ।

70 के दशक ने श्याम बेनेगल की ‘’अंकुर’’ (1974), से फिल्मों में समानांतर सिनेमा में समाज की सच्चाई को दिखाया जाने लगा  इस फिल्म में जमींदार के दलित महिला के साथ विवाहोत्तर संबंध पर केन्द्रित है ,प्रमाण भारत मे जाति और लैगिक असमानताओं का एक तीखा चित्रण है ।शबाना आजमी और स्मिता पाटिल के बेजोड अभिनय कौशलता के माध्यम से व इनके सफल निर्देशन के परिणाम के नतीजे जो उनकी फिल्मों को जिस तरह सिनेमा देखने वालों का वो तबका हमेशा अभाव मे जी रहा है और महिला शोषण व अत्याचारों का साक्षी है बहुत सराहना मिली । स्त्री जाति की मुक्ति को लेकर श्याम बेनेगल की लगातार फिल्मों  में अलग-अलग पात्रों के माध्यम से मध्य वर्गीय परिवारों की जो उनके समाज के उस तबके का प्रतिनिधित्व करते हुए जितनी फिल्में बनाई है ,उन सब मे महिला पात्रों के जीवन के अनेकों आयामों को बखूबी से उकेरा है। उनके जीवन के अनेक पहलुओं पर समाज के दृष्टिकोण को चिन्हित कर दर्शकों के लिए एक सवाल हर एक फिल्म मे दिया है । सत्यजीत रे के उत्तराधिकारी के रूप में अगर हम श्याम बेनेगल को रखते है, तो उस दौरान और भी निर्देशको का प्रयास इस ओर जरूर रहा सफलता भी मिली पर श्याम बेनेगल के लिए उनका ये समानांतर सिनेमा का जूनून उस समय सर चढ़कर बोल रहा था । निशांत(1975) इस फिल्म में एस शिक्षक की पत्नी का अपहरण, कर चार जमींदारों द्वारा उसका सामूहिक बलात्कार किया जाता है। अधिकारी- परेशान पति की मदद की गुहार पर कान नहीं देते। शिक्षक अपने गाँव में सामंतवाद और अत्याचार के खिलाफ लड़ता है इस जगह पर लोग अन्याय के खिलाफ लड़ने से डरते थे ,उच्च वर्ग द्वारा शोषण आदि । मंथन(1976) ग्रामीण सशक्तिकरण पर एक फिल्म है और गुजरात के नवजात डेयरी उद्योग की पृष्ठभूमि पर आधारित है।पाँच लाख ग्रमीण किसानों की मदद से बनी फिल्म है ।इस ग्रामीण उत्पीड़न पर बनी ये तीन फिल्मों के बाद एक और नया प्रयोग रहा इसी तरह एक और फिल्म हथकरघा बुनकरों पर आधारित उनके जीवन की कठिनाइयों को प्रदर्शित करती फिल्म सुसमन(1987) थी जो पोचमपल्ली (तेलंगाना) के साडी बुनकरों की जिंदगी पर केन्द्रित, शोषण के दुष्चक्र के खिलाफ संघर्ष की कहानी है।  भूमिका (1977) मराठी अभिनेत्री हंसा वाडकर की जिंदगी पर बनी फिल्म जो एक रंगमंच व फिल्मों की कलाकार 1940 के दशक की थी इस फिल्म को अभिनेत्री स्मिता पाटिल के अभिनय को याद किया जा सकता है । मंडी(1983) फिल्म जिसमें वे महिलाएं जो गुजारा करने के लिए शरीर बेचती है, शबाना आजमी एक वेश्यालय चलाती है जो शहर के बीच है इसे कुछ राजनेता हथियाना चाहते है, यह भी महिला जीवन से संबंधित राजनीति व वेश्यावृति के सहारे एक व्यंग्यपूर्ण कॉमेडी , सियासत, सता और नैतिकता के सवाल थे ,अभिनय शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल के साथ अभिनेता ओमपुरी का बहुत ही विशेष रहा।      

जुबेदा(2001) , सरदारी बेगम(1996) , मम्मो(1994) , हरी भरी(2000) ,ये चारों ही फिल्मों मे मुस्लीम समुदाय की महिलाओं के विषय को चुना और (हरी-भरी-)उससे जुडी बातों से दर्शको को तीन पीढी के प्रजनन समस्याओं और लगातार उसके साथ जुझती महिला के अस्तित्व के प्रश्नों को भी बखूबी उकेरते हुए विवाह के लिए चयन का मुद्दा व शिक्षा के प्रति सजगता का जो चित्रण ‘’हरी भरी’’में  किया है और अंत मे एक संदेश देकर शिक्षा के महत्व को भी दर्य़ाया है ।उसके सभी महिला कलाकार इनकी फिल्मों के नायाब हीरे है शबाना आजमी ,राजेश्वरी सचदेव ,सुरेखा सीकरी, नंदिता दास और सीमा भार्गव(राम प्यारी) कलाकारो के सही चयन के साथ फिल्म के निर्माण को जो दिशा व प्रवाह मिलता है उसमे कलाकारो की कला क्षमता को भी निखार मिलता है, और निर्देशक के विस्तृत अनुभवों के लाभ के साथ सफलता भी मिलती है ।इस फिल्म के अभिनेताओं में श्याम बेनेगल की कई फिल्मों मे अनुभव प्राप्त रजित कपूर और अमरीश पुरी का अभिनय बहुत ही सराहनीय है। अब अगर हम बात करे ‘’मम्मो’’(1994) फिल्म की जो आजादी के समय हुए  विभाजन से जुड़ी पृष्ठभूमि पर की कहानी के आधार पर फरीदा जलाल जैसी प्रतिष्ठित अभिनेत्री के ईद-गिर्द पाकिस्तान व हिन्दुस्तान के दरम्यान पैदा हुई तकलीफों का चित्रण बडी ही संजीदगी व निपुणता से उस फिल्म को निभाते हुए निर्देशक ने सुरेखा सीकरी ,के लगातार अच्छे कला कौशल को श्याम बेनेगल ने इस फिल्म के लिए चुना और उन्होंने जो अभिनय किया कहीं कही तो लगने लगा फरीदा जलाल जैसी अदाकारा कुछ कमतर लग रही है। सुरेखा सीकरी ने जिस प्रकार अपने नवासे की परवरिश की और अपने अभिनय को जो अंजाम दिया बहुत ही जीवटता से भरी महिला का अभिनय, दोनों ही महिला अदाकाराओं की अदाकारी बेमिसाल थी । इसी तरह पुनः रजित कपूर जो इस फिल्म मे भी बहुत ही सुंदर तरीके से अपने को स्थापित करते जा रहे लगे। ‘’सरदारी बेगम’’(1996) सरदारी बेगम बनाने के लिए एक निर्देशक को किस तरह की अड़चनों का सामना करना पड़ता है यह तो केवल इस फिल्म के निर्देशक ही बता सकते है  जो समाज के उस समय की परिस्थितियों के साथ जूझते निर्माण इस फिल्म का निर्माण किया। इसके निर्माण व प्रस्तुति के लिए जो कुछ भी इस फिल्म में दर्शाया गया या दिखाया गया है ,एक संगीतमय तवायफ के जीवन के सुलझे- अनसुलझे रहस्यों की बेजोड फिल्म है, ये और इसके कलाकारो मे किरण खेर ,सुरेखा सीकरी ,राजेश्वरी सचदेव सभी की अदाकारी बहुत ही उच्च कोटि की व सुलझे निर्देशन का परिणाम है। इसी तरह पुनः रजित कपूर और अमरीश पुरी का जो अभिनय-कौशल है फिल्म अनुसार ही निभाये पात्रों का एक अदभुत व समय अनुसार भाव भंगिमा के साथ बहुत ही बेहतरीन अदाकारी से भरा था।  ‘’जुबेदा’’(2001)  करिश्मा कपूर द्वारा अभिनीत इस फिल्म के मूल में एक महिला आकांक्षाओं और सामाजिक अपेक्षाओं के बीच फंसी ,जो प्रेम  और दुःख की एक बेमिसाल मार्मिक प्रस्तुति श्याम बेनेगल की है ।

शुरूआती चार फिल्मों के बाद बेनेगल जी को शशि कपूर जैसे प्रतिष्ठित कलाकार का समर्थन मिला फिर आया जुनून(1978) ,1857 के स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि , विद्रोह के अशांत काल के बीच एक अंतरजातीय प्रेम कहानी थी। जो रस्किन बांड की काल्पनिक उपन्यास ‘’ ए फ्लाइट ऑफ़ पिजन्स  ‘’  पर आधारित थी। कलयुग(1981) और यह महाभारत पर आधारित दो कलयुगी व्यापारिक परिवारों के बीच संघर्ष की प्रस्तुति थी ,कलाकार शशि कपूर ,रेखा आदि।  त्रिकाल(1985)1960 के दशक की शुरुआत मे गोवा में पुर्तगालियों के अंतिम दिनों का चित्रण, गोवा के स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी कहानी जो मानवीय रिश्तो की खोज करती है । कोन्डुरा (1978) इस फिल्म को दो भाषाओं में बनाया गया एक हिंदी मे और दूसरा तेलुगु मे कहानी एक युवक की है। उसे अलौकिक शक्ति दी गई है। कहानी आगे बढ़ती है यह वरदान अंततः एक त्रासदी में बदल जाता है ।कलाकार शेखर चटर्जी ,सुलभा देश पाण्डेय,स्मिता पाटिल,सत्यदेव दुबे ,अमरीश पुरी आदि। आरोहण(1982) बंगाल की पृष्ठभूमि पर फिल्म की कहानी 60 के दशक के मध्य की है जब नक्सलबाड़ी विद्रोह ने पूरे बंगाल के उत्पीडित किसानों को साम्यवाद और समाजवादी गणतंत्र मे विश्वास रखने वाले युवाओं का एकजुटता का प्रयास व संघर्ष की प्रस्तुति। इस फिल्म मे ओमपुरी का अभिनय बहुत ही सराहनीय व अन्य कलाकारों की भूमिका भी अत्यंत ही प्रशंनीय है । अंतर्नाद(1991) इस फिल्म मे दो गांवों के बीच विवाद का चित्रण जो पाण्डुरंग शास्त्री आटवले 1950 के दशक मे भक्ति और स्वाध्याय के माध्यम से समाज के विकास की अलख जगाई ,फिल्म मे अस्पऋश्यता उनमूलन और साक्षरता जैसे मुद्दो पर बनाई गई, कलाकारों मे गीरीश कर्नाड ,शबाना आजमी,कूलभूषण खंरबंदा ,ओमपुरी जैसे प्रसिध्द कलाकारो का अभिनय।  समर(1999) यह फिल्म जातिवाद और सामाजिक असमानता पर आधारित है। यह फिल्म है.. एक फिल्म यूनिट के बारे मे जो मध्यप्रदेश में आदिवासी दलितों पर हुए किसी अत्याचार पर फिल्म बनाने वहाँ जाते है ..।  इस यूनिट के लोग वहाँ के लोगों से मिलते है वहाँ के लोग अच्छा सहयोग भी करते है पर वहाँ के रवैये को फिल्माने मे  कई परेशानियों से गुजरना पडता है। भारतीय जातीय व्यवस्था की आलोचना है इस फिल्म के कलाकारों मे राजेश्वरी सचदेव ,रजत कपूर ,रधुवीर यादव आदि।इसी क्रम मे एक ऐसी फिल्म् ने भी इनकी सूची को ही नहीं वर्ना इनके निर्देशन कौशल की क्षमता को प्रदर्शित किया जो धर्मवीर भारती जी की कहानी ‘’सूरज का सातवा घोडा’’ (1993) एक प्रेम कथा को वाचक विधा का सहारा लेकर बनाई बहुत ही प्रभावित रही कलाकार रजित कपूर , राजेश्वरी ,सचदेव ,अमरीश पुरी ,रधुवीर यादव आदि। नेताजी सुभाष चन्द्र बोसः द फॉरगॉटन हीरो (2005) की नायाब फिल्म सचिन खेडकर नेताजी के रूप मे ,अन्य कलाकारों की सूची इस फिल्म मे बहुत है ।

श्याम बेनेगल ने मात्र गंभीर सिनेमा ही नही बनाया बल्कि कामेडी सिनेमा मे भी उनकी दखल दो फिल्मों से हुई। वेलकम टू सजनपुर(2008) और वेल डन अब्बा(2010) दोनों ही फिल्मों ने व्यंग्य पहली फिल्में में श्रेयस तलपडे और अमृता राव और दूसरी फिल्म मे बोमन ईरानी जैसे कलाकार ।मुजिब (2023) इनकी फिल्मी सफर का यही अंतिम पड़ाव रहा जिसमें शेख मुजीबुर रहमान की बायोपीक मुजीबः ‘’द मेकिंग ऑफ ओ नेशन’’.।ऐसा भी कहा जाता है की इस फिल्म ने बंगलादेश मे साल 2024 को तख्तापलट तक करवा दिया और शेख हसीना को बंगलादेश छोडना पडा । इस तरह फिल्मों ,धारावाहिकों के अलावा  महात्मा गाँधी .नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और सत्यजीत रे पर वृत्तचित्र भी बनाए ।

इनके इस सिनेमाई सफर मे जिनका भी सहयोग मिला जिनमें संगीतकार ,पटकथा लेखन ,गीतकार ,कहानीकार सभी के लिए उनकी कृतज्ञता हमेशा रही ,उन्हें अठारह राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार ,एक फिल्मपेयर पुरस्कार ,एक नंदी पुरस्कार सहित कई पुरस्कार मिले। 1976 व 1991 मे क्रमशः भारत सरकार की ओर से पद्मश्री और पद्मभूषण से समान्नित किया । 2005 मे सिनेमा के क्षेत्र में सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिया गया। इनकी फिल्मों को राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रय पुरस्कारों के माध्यम से हमारे देश की गौरव देश-विदेश मे हमेशा स्थापित होता रहा ।   

विगत वर्ष 2024 के दिसंबर माह के अंतिम सप्ताह 23/12/2024 को  हमने एक महान व्यक्तिव वाले सिनेमा जगत के श्याम बेनेगल कर्नाटक राज्य व हैदराबाद का जीवनकाल फिर मुंबई के सफर से जुडे और जो फिल्मों से जुडी एक अजीम हस्ति थी को खोया है। फिल्मों के दौर मे जब उन्होंने कदम रखा था।  उस समय दर्शक जिन फिल्मों के साथ जुडे थे वे या तो नायक व नायिका प्रधान जिनके कारनामें किसी को भी विश्वसनीय नहीं लगते थे। बेनेगल ने जिन मुद्दों को अपनी फिल्मों का आधार बनाया वह सभी एक यथार्थ और जीवन की सच्चाई का परिचय कराती आगे को बढ़ती ही गई उनकी हर फिल्म ने हमें या दर्शकों को वर्तमान समय की सामाजिक विद्रुपताओ ,समस्याओं का सहारा लेकर कम बजट में बहुत ही प्रभावकारी फिल्मो का निर्णाण कर एक मिसाल कायम करते हुए। जिन्होंने समानांतर सिनेमा को अपने फिल्मी जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया, अगर हम देखे की समानांतर सिनेमा की मुख्य धारा कौन सी है तो लगता है हम इन्हें तीन भागों मे बाँट सकते है प्रथम-राजनैतिक समानंतर सिनेमा ,दूसरा-मध्य वर्ग का सिनेमा और तीसरा-प्रयोगवादी सिनेमा और ये सभी विभाजन समाज मे जागरूकता के बीज बोते है। और परिणाम दर्शकों की झोली मे डालते हुए इससे जुडे सभी निर्देशक के साथ श्याम बेनेगल जी ने भी इनका अनुसरण करते हुए एक प्रखर भारतीय की तरह पूरा जीवन सिनेमा को समर्पित कर दिया और ये समानांतर सिनेमा के ग्रदूत रहे । उन्होंने समाज के ऐसे ऐसे पहलुओं को हम सभी के लिए यादगार बना कर अपने जीवन काल में अनेको उदाहरण प्रस्तुत कर अपने निधन 23-12-2024 से पूर्व और उससे मात्र 10 दिन पहले अपना 90 वाँ जन्मदिन14-12-2024 को भी मनाया जिसमें सिनेमा जगत के कुछ जाने माने कलाकारों ने जो इस जन्मदिन पर उपस्थित थे. शायद यह नहीं सोचा होगा की उनके साथ का उनके लिए श्याम बेनेगल का इस नश्वर संसार मे अंतिम जन्मदिन होगा।   

श्याम बेनेगल जी अपने समय के उन महान निर्देशको की श्रेणी के अहम हिस्से है ,जिन्होंने अपनी प्रायः सभी फिल्मों के माध्यम से समाज को एक नया दृष्टिकोण दिया है। मनोरंजन के साथ समाज की समस्याओं ,वर्ग संधर्ष ,मानवीय मुल्यों व भावनाओं की प्रमुखता से हमारा परिचय फिल्मों के व्दारा करवाया । किरदारों को य़थार्थ के साथ जोड देना इनकी निर्देशन की क्षमता ही है। आने वाले समय में फिल्मों के लिए ऐसे ही महान निर्देशकों की जरूरत होगी जो मनोरंजन की दुनिया के वर्तमान डिजिटल युग को साथ लेकर दर्शको को समाज के उन पहलुओं के साथ भी जोडने की दिशा तय करते हुए सभी मुद्दे ला सके जो अभी तक फिल्मों मे न आये हो । 

चिरंजीव (स्वतंत्र लेखन)
संकलन व लेखन
संपर्क-लिंगम चिरंजीव राव
म.न.11-1-21/1, कार्जी मार्ग
इच्छापुरम ,श्रीकाकुलम (आन्ध्रप्रदेश)
पिनः532 312 मो.न.8639945892