राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार) 

‘‘आरक्षण’’ नहीं ‘‘संरक्षण’’ चाहिए।
जातिगत जनगणना की मांग से ‘‘आरक्षण’’ का ‘‘जिन्न’’ पुनः निकला!             
                                                                                     
    15 अगस्त 1947 को हुआ स्वाधीन भारत 26 जनवरी 1950 को स्व निर्मित संविधान के लागू होने के कारण ‘‘गणतांत्रिक भारत’’ बना। भारतीय गणराज्य में संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली को श्रेष्ठ शासन प्रणाली के रूप में अपनाया है। यद्यपि संविधान में ‘‘राजनीति’’ नहीं ‘‘नीति’’ शब्द का प्रयोग अवश्य किया गया है। परंतु लोकतंत्र में अलिखित रूप से ‘‘राजनीति’’ शब्द का ही प्रयोग किया जाता रहा है। ‘राजनीति’’ के समान ‘‘लोकतंत्र’’ शब्द भी संविधान में परिभाषित नहीं है।

‘‘नीति पर राज हावी’’
  

 किसी जमाने में राजनीति ‘‘सेवा का मांध्यम’’ ही नहीं मांनी जाती थी, बल्कि ‘‘सेवा के लिए ही’’ की जाती थी। परंतु आज राजनीति का ‘‘अर्थ’’ बदलकर इतना ‘‘अनर्थ’’ हो गया है कि वह एक ‘‘गाली’’ के रूप में परिवर्तित हो गई है, जब यह कहा जाता है की ‘‘भाई बस, यहां तो ‘‘राजनीति’’ मत करो’’। अब ‘‘राजनीति’’ सिर्फ राज के लिए ‘‘नीति’’ बनाने तक सीमित हो गई है और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष के कारण राजनीति से नीति हटकर वह ‘‘नीति भी अनीति’’ में परिवर्तित हो गई हैं, जिस कारण से राज ‘‘सुराज’’ की जगह ‘‘अराजक राज’’ में परिवर्तित होते जा रहा है। वास्तव में ‘‘राज पर नीति’’ हावी होनी चाहिए न की ‘‘नीति पर राज। जबकि वर्तमान में ‘‘नीति राज’’ न होकर ‘‘नीति पर राज’’ हावी होकर राजनीति हो रही है। शायद इसीलिए ‘‘यथा राजा तथा प्रजा’’ मुहावरा का अर्थ खोकर ‘‘यथा प्रजा तथा राजा’’ हो गया है।

‘‘आरक्षण’’ अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल 

   उक्त महत्वपूर्ण भूमिका के पश्चात अब विषय पर बिंदुवार आगे बढ़ते हैं। संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद चुने गए थे, परंतु डॉ आंबेडकर संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। बावजूद इसके संविधान के जनक कहे जाने वाले डॉ बाबा साहेब भीमराव राम जी आंबेडकर के नाम से जाने वाला हमारे संविधान में डॉ. आंबेडकर द्वारा अनुच्छेद 341 एवं 342 में परिभाषित ‘‘अनुसूचित जाति’’ एवं ‘‘अनुसूचित जनजाति’’ के लिए जातिगत आरक्षण विधायिका के लिए प्रारंभिक रूप से 10 वर्ष के लिए अस्थाई व्यवस्था की गई थी। साथ ही इसकी समीक्षा हर 10 वर्ष बाद तब तक के लिए की जाएगी, जब तक की आरक्षित वर्ग का लक्षित उत्थान नहीं हो जाता है। जबकि शिक्षा और सरकारी क्षेत्र में नौकरी के आरक्षण की जो व्यवस्था संविधान में की गई है, वह अस्थायी न होकर अनुच्छेद 21 ए (संविधान संशोधन अधिनियम 2002) एवं अनुच्छेद 41 के अंतर्गत संवैधानिक मूल अधिकार का दर्जा दिया जाने के कारण स्थायी है। आरक्षण की व्यवस्था देश में पहली बार डॉक्टर अंबेडकर ने लागू नहीं की थी। बल्कि वर्ष 1882 में ‘‘हंटर आयोग’’ की स्थापना के बाद आरक्षण की बात प्रारंभ हुई थी। ब्रिटिश शासन ने भी भारत सरकार अधिनियम 1909 में आरक्षण का प्रावधान लाया था। 
    इस प्रकार लगभग 75 साल होने जा रहे के बावजूद यह अस्थाई व्यवस्था न हटाये जाने के कारण यह व्यवस्था एक ‘‘स्थायी’’ रूप लेते जा रही है। मतलब साफ है! जिन उद्देश्यों को लेकर आरक्षण व्यवस्था लागू की गई थी, वह व्यवस्था उक्त वर्गों को उनके उद्देश्यों की पूर्ति की प्राप्ति तक नहीं पहुंचा पा रही है। इसलिए क्या अब यह आवश्यक नहीं हो जाता है की इन वर्गों के उत्थान के लिए एक व्यवस्था के 74 साल लगातार चलते रहने के बावजूद उद्देश्यों की पूर्ति न हो पाने के कारण असफल हो जाने पर अन्य कोई व्यवस्था पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाए? उच्चतम न्यायालय ने ‘‘सवर्ण’’ (सामान्य) वर्ग के आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण को संवैधानिक बताते हुए जस्टिस बेला बेन त्रिवेदी ने कहा ‘‘आरक्षण की समय सीमा खींचने की आवश्यकता है’’, क्योंकि यह अनंत काल तक नहीं रहेगा। अगर ऐसा है तो यह निहित स्वार्थ है।

अंत्योदयः! आखरी छोर पर खड़ा व्यक्ति! पं.दीनदयाल उपाध्याय! सही विकल्प!
  

 प्रश्न यह है कि डॉ भीमराव अंबेडकर ने जिन उद्देश्यों को लेकर और कारण से संविधान में 10 साल के लिए अस्थाई रूप से आरक्षण की व्यवस्था की थी और उक्त समयावधि में उद्देश्य की पूर्ति न होने पर उसके बढ़ाने की अस्थाई व्यवस्था की थी, क्या उसकी पूर्ति/प्राप्ति अभी तक नहीं हो पाई है? 75 साल में आरक्षण अपने देश में उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल नहीं हो पाया है, तब फिर क्या वह साधन ‘‘आरक्षण’’ उक्त ‘‘साध्य’’ ‘‘कुचले कमजोर वर्ग’’ के उत्थान पर समग्र रूप से पुनर्विचार कर अंबेडकर के पुराने ‘‘साध्य’’ के लिए नए ‘‘साधन’’ को देखने की आवश्यकता उत्पन्न नहीं हो गई है? वह इसलिए भी की क्या आरक्षण वोट पाने का प्रतीक तो नहीं बन गया है? क्योंकि ‘‘रियासत बगैर सियासत’’ नहीं होती है। क्या यह उसी दिशा में आगे बढ़ते हुए वोट बैंक के खातिर जातिगत जनगणना के माध्यम से स्थायी हिस्सेदारी की खतरनाक धारणा को लाने का प्रयास होता हुआ तो दिख नही रहा है? इसीलिए मेरा यह मत है कि जातिगत गंदी राजनीति को छोड़कर कुचले, पिछड़े, कमजोर वर्ग समाज तथा पडित दीनदयाल उपाध्याय की अवधारणा एकात्म मानववाद अनुसार सबसे निचले/आखरी छोर पर खडे व्यक्ति के उत्थान के लिए उन्हें आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं संरक्षण देने की महती आवश्यकता देशहित में है।

‘‘आरक्षण और संरक्षण के अंतर को समझइऐ’’।
 

   कोई वर्ग या समाज की एक इकाई ‘‘एक व्यक्ति’’ ही होता है। अतः यदि प्रत्येक व्यक्ति अपना विकास, उन्नति कर ले तो अंततः पूरा समाज उन्नत हो जाएगा। व्यक्ति के विकास की मूल अवधारणा उसका ‘‘प्रतियोगी’’ होना व उसके लिये जरूरी परिस्थितियों का होना आवश्यक हैै। जब तक व्यक्ति प्रतिभाशाली प्रतियोगी नहीं होगा, तब तक उसका विकास नहीं हो पाएगा। यहीं पर ‘‘आरक्षण नहीं संरक्षण’’ की आवश्यकता उत्पन्न होती है। ‘‘आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति’’ बिना संसाधन के अन्य आर्थिक रूप से मजबूत व्यक्ति की तुलना में कैसे सफल प्रतियोगी हो सकता है? इसलिए ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम आर्थिक संरक्षण देने के ‘‘तंत्र’’ की व्यवस्था किये जाने की आवश्यकता है। ताकि ऐसा व्यक्ति सिर्फ कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते प्रतियोगी बनने के लिए आवश्यक तंत्र, सुविधा का उपयोग न कर पाने के कारण वह दूसरे सक्षम प्रतियोगी के सामने एक प्रतियोगी के रूप में खड़ा न हो पाने की अपनी ‘‘अपंगता’’, ‘‘अक्षमता’’ को दूर कर सके। तभी प्रतिभाओं को प्रति-स्पर्धाओं में मुकाबले में खड़ा होने और सफलता प्राप्त करने का बराबर का अवसर प्राप्त होगा। तब दूसरी अन्य प्रतिभाएं को कुंठित सामान्य वर्ग की स्थिति से गुजरना नहीं होना पड़ेगा। देश का सर्वांगीण विकास तभी हो पाएगा, जब प्रत्येक नागरिकों को अपने जीवन के उत्थान विकास और उन्नत बनाने के बराबरी के अवसर मिले और यह दायित्व किसी भी जनोमुखी चुनी हुई सरकार का है। ‘‘राज सफल तब जानिये, प्रजा सुखी तब होय’’।

आर्थिक आधार पर ‘‘संरक्षण की सहमति’’ का विस्तार किया जाना चाहिए।
  

 एक बड़ा सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि जब गरीबी रेखा के नीचे बीपीएल कार्ड होल्डर तथा निर्धन वर्ग को शासकीय उचित मूल्य की दुकान से सस्ते मूल्य पर अनाज एवं ‘‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’’ के अंतर्गत लगभग 80 करोड़ से ज्यादा निर्धन व्यक्तियों को बिना किसी जाति भेदभाव के अनाज मुफ्त में दिया जा रहा है। इस प्रकार उनके खाने की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति केन्द्र व राज्य सरकारें कर रही हैं, जिस पर आरक्षण मांगने वाले समस्त वर्गो अर्थात 85 प्रतिशत लोगों को इस पर कोई एतराज नहीं है। तब ‘‘सहमति’’ की इस स्थिति को जीवन की अन्य सुविधाओं के क्षेत्रों में क्यों नहीं विस्तार देतेे हैं? यह बात समझ से परे है।