‘गैस सिलेंडर में ₹200 की छूट का ‘‘अर्थ’’, ‘‘अर्थशास्त्र’’ और ‘‘राजनीति शास्त्र’’! तथा पक्ष-विपक्ष के बीच ‘‘शास्त्रार्थ’’!

भूमिका   
                                                                                               

  चुनावी वर्ष में हिंदू रीति रिवाज और त्योहारों का ख्याल हर राजनीतिक पार्टी बड़ी ‘‘चिंता’’ से ‘‘चिंता जनक स्थिति’’ को दूर करते हुए करती रही है। सर्व-धर्म, सर्वभाव की सिर्फ कल्पना ही नहीं, बल्कि दावा करने वाले समस्त राजनीतिक दल होते हैं। परंतु अन्य धर्मों के प्रति चुनावी वर्ष में भी वे उतने उदार होते हुए दिखते नहीं हैं, जितने हिंदू धर्म के प्रति। कारण! देश की लगभग 80ः जनसंख्या हिंदू धर्म को मानने वाली है। आईये, प्रधानमंत्री की इस घोषणा के अर्थ और उसके पीछे छुपे समस्त ‘‘अर्थ’’ और ‘‘अनर्थ’’ का कुछ बारीकी से अध्ययन कर लें।
प्रधानमंत्री का रक्षाबंधन पर सत्ता बंधन को मजबूत करने का प्रयास।
    शायद इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गैस उपभोक्ताओं को रसोई गैस सिलेंडर की कीमत में ₹200 की राहत की घोषणा की है, जिसमें 33 करोड़ एल.पी.जी. उपभोक्ताओं को फायदा मिलेगा। ‘‘उज्ज्वला योजना’’ के अंतर्गत ₹200 सब्सिडी देने की घोषणा की है। इस प्रकार उक्त योजना में कुल ₹400 का फायदा एक गृहिणी को होगा। साथ ही 75 लाख नए गैस कनेक्शन ‘‘उज्जवला योजना’’ में जारी होने की घोषणा भी की गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीति से परे शुद्ध नीतिगत, जनोन्मुखी, कल्याणकारी योजना ‘‘उज्ज्वला योजना’’ वर्ष 1 मई 2016 में प्रारंभ की थी, जो वोट पाने की ‘‘लालच’’ से नहीं थी, क्योंकि तब न तो कोई चुनाव थे, और न ही चुनावी घोषणा पत्र में इस योजना का कोई उल्लेख किया गया था। अब रक्षाबंधन के अवसर पर प्रधानमंत्री ने ‘‘सत्ता विखंडन’’ से बचाने के लिए देश की बहनों को ₹200 का रक्षाबंधन का उपहार देकर ‘‘सत्ताबंधन’’ को मजबूत करने का प्रयास भी किया है। सफल कितना होगा? यह तो आगे समय ही बतलाएगा। प्रधानमंत्री ने रक्षाबंधन के अवसर पर ‘‘बहनों’’ का उल्लेख किया है, जैसा की समाचार पत्रों में पूरे पेज के विज्ञापनों से भी सिद्ध होता है। परंतु साथ ही रक्षाबंधन के साथ ‘‘मलयाली ओणम त्योहार’’ जो किसानों का एक बड़ा त्योहार होता है, का उल्लेख नहीं किया है। शायद इसलिए कि ओणम हिंदुओं का त्योहार होने के बावजूद वह सिर्फ मुख्य रूप से केरल प्रदेश तक ही सीमित है, जहां ‘‘लेफ्ट की सरकार’’ है। 
सिलेंडर की कीमत का आधार एवं गणित।
    देश में घरेलू एलपीजी की कीमत का निर्धारण मुख्यतः दो बातों पर निर्भर करता है। एक इंपोर्ट पैरिटी प्राइस (आईपीपी) के फार्मूले से तय होते हैं। भारत में आईपीपी का बेंचमार्क सऊदी अरब की सरकारी तेल कंपनी ‘‘सऊदी अरामको’’ एलपीजी की कीमत तय करती है। नवंबर 2020 की तुलना में गैस के दाम में 104 फीसद की बढ़ोतरी की गई। उस वक्त एलपीजी की दर 376.3 प्रति मीट्रिक टन थी, जो अभी 769.1 डॉलर प्रति मीट्रिक टन पर पहुंच गई है। वर्ष 2014 में यूपीए सरकार के समय सऊदी अरामको एलपीजी की कीमत 1010 डॉलर प्रति मीट्रिक टन थी, जो जनवरी 2023 में घटकर 590 डॉलर मीट्रिक टन हो गई। कच्चे तेल का भी यही हाल है। नवंबर 2020 में कच्चे तेल की दर 41 डॉलर प्रति बैरल थी, जो मार्च 2022 में 115.4 डॉलर पर पहुंच गई। यूपीए सरकार के समय वर्ष 2014 में सिलेंडर के दाम ₹410 थे, जब कच्चे तेल की कीमत 106.85 डॉलर प्रति बैरल के उच्च अंक पर थी, जिस पर जनता को सहूलियत देने के लिए 827 रुपए की सब्सिडी दी जाती थी। यूपीए सरकार की विदाई के बाद एनडीए सरकार में पहली बार 1 मार्च 2015 को गैस सिलेंडर की कीमत बढ़कर 610 रुपए हुई, जो बढ़कर 1 मार्च 2018 में 689 रू. हुई और 1 मार्च 2020 में 805.50 रू. होकर वर्तमान में 1103 रु. हो गई। इसका मुख्य कारण लगातार सब्सिडी को घटाना भी रहा है। वर्ष 17-18 में 23464, 18-19 में 37209 करोड़, 19-20 में 24172 करोड़, 20-21 में 11896 करोड़, 21-22 में मात्र 242 करोड़ सब्सिडी घटकर रह गई है।  
    कीमत तय करने का दूसरा आधार डॉलर और रुपए का कन्वर्जन मूल्य है, जहां रुपये की कीमत लगातार गिरती जा रही है। स्पष्ट है कि 2020 में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एलपीजी के दामों में तेजी से बढ़ने से व देश में सब्सिडी लगातार कम किये जाने के कारण गैस की कीमत वर्तमान में 1103 रू. तक पहुंच गई। इसमें ही ₹ 200 की छूट प्रदान की गई है। 
कीमत घटाने की पीछे की राजनीति। 
    अब इस रसोई गैस की कीमत कम करने के पीछे की न ‘‘नीति’’ न ‘‘अर्थनीति’’ बल्कि ‘‘राजनीति’’ को भी समझ लीजिए। रसोई के ईंधन के अन्य साधन लकड़ी, कोयला, कोक, मिट्टी का तेल इत्यादि को महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक विश्व स्वास्थ्य संगठन का हवाला देते हुए तब बतलाया जाता है, जब धरेलू गैस की कीमतें सरकारें चाहे केंद्र की हो अथवा राज्यों की हों, कम करती है। परंतु आश्चर्य की बात तब होती है, जब ये ही सरकारें इनकी कीमत बढ़ाई जाती हैं, तब उन्हे महिलाओं के ‘‘स्वास्थ्य’’ का ध्यान बिल्कुल भी नहीं रहता है। यही ‘‘राजनीति’’ है, ‘‘नीति’’ नहीं। महंगाई की दौर में गैस कीमतों में की गई कमी को इस तरह से भी देखिये कि जिस प्रकार यूपीए-1 की तुलना में यूपीए-2 के असफल होने से उन्हें सत्ता से वंचित होना पड़ा था। ठीक लगभग कुछ वैसी ही स्थिति एनडीए-1 की तुलना में एनडीए-2 की वर्तमान में हो गई हैं। एनडीए के प्रथम कार्यकाल में मात्र 135 रू. गैस की कीमत में बढ़ोतरी हुई, जबकि वर्तमान द्वितीय कार्यकाल में कुल 645 रू. की की गई। इस कारण से प्रधानमंत्री कहीं न कहीं सत्ता जाने की आशंका से ग्रस्त हो गए लगते हैं। इस कारण चुनावी वर्ष में कुछ न कुछ राहत देते हुए कार्रवाई करते दिखते जाना राजनैतिक मजबूरी भी बन गई थी। 
छोटे व्यावसायिक उपयोग की एलपीजी पर राहत क्यों नहीं?
    कांग्रेस प्रवक्ता सांसद रणदीप सुरजेवाला का यह कहना है कि इन साढ़े 9 सालों में मोदी सरकार ने लगातार गैस के दाम बढ़ाकर 8 लाख 33 हजार करोड़ (यूपीए-एनडीए के समय गैस की कीमत के अंतर के आधार पर की गई गणना) से ज्यादा की वसूली जनता से की है। यद्यपि यह आकड़ा सत्यापित नहीं है और अतिरंजित भी हो सकता है, क्योंकि उक्त गणना में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों में हुए उतार चढ़ाव के प्रभाव को शामिल नहीं किया गया लगता है। वास्तव में कीमतों में कमी का निर्णय यदि नीतिगत होता तो, जिस प्रकार घरेलू उपयोग की एलपीजी के लिए ‘‘उज्जवला योजना’’ बनाई गई, तब क्या व्यावसायिक उपयोग में आने वाली एलपीजी गैस के लिए भी कोई योजना नहीं बनाई जा सकती थी? एक खोमचे वाला, ढाबे, ‘‘चाय’’ की गुमठियों, छोटी होटलें जो जीएसटी की पंजीयन की सीमा में नहीं आती है और बड़ी होटलें तथा 3-5-7 स्टार होटलों में उपयोग में आने वाली सिलेंडर के दाम एक समान नहीं रखे जाते? साथ ही शादी-ब्याह, भंडारा में सिलेंडर का उपयोग व्यावसायिक नहीं माना जाता। स्पष्ट है, इस पर कभी भी विचार ही नहीं किया गया, क्योंकि इस संबंध में ‘‘नीतिगत’’ निर्णय लेने से परहेज किया गया। प्रधानमंत्री के इस निर्णय से चूक भी प्रदर्शित होती लगती है। जिस प्रकार सिक्के के दो पहलू होते हैं, तलवार द्विधारी होती है, उसी प्रकार प्रधानमंत्री के गैस सिलेंडर की कीमत कम करने के निर्णय का दूसरा पहलू का एक मैसेज स्पष्ट संकेत यह भी जाता है कि प्रधानमंत्री ने एक तरह से यह स्वीकार कर लिया है कि देश की जनता महंगाई से पीड़ित है। तब इसके लिए जिम्मेदार कौन? महिलाएं जो इस कमर तोड़ महंगाई का सामना अपनी रसोई घर में ज्यादा महसूस करती हैं, वहां कुछ राहत प्रदान कर महिलाओं को अपनी और झुकाया जा सके। प्रधानमंत्री का उक्त घोषणा या कहें उद्घोषणा का उद्देश्य भी शायद यही है।
देश की आधी जनसंख्या (महिलाएं) का सिर्फ ‘‘वोट’’ के रूप में उपयोग। परन्तु ‘‘अपेक्षा के बदले उपेक्षा’’।
    देश की लगभग कुल 95.50 करोड़ मतदाताओं में से लगभग 46 करोड़ से अधिक मतदाता महिलाएं है, जिन पर सावन का तथाकथित उपहार (जो वस्तुतः उपहार न होकर यह  उनका हक है) के ‘‘भार का दबाव’’ बनाकर संतुष्ट कर सत्ता फतेह की जा सके। परंतु समस्त राजनीतिक पार्टियों कुल मतदाताओं का लगभग आधा भाग महिलाओं के मतों (वोट) की ‘‘आशा’’ की टकटकी लगाये समानांतर जब लोकतंत्र में चुनावों में जनता के बीच जाने के लिए टिकट देने की बात आती है, तब समस्त राजनीतिक दल महिलाओं की लगभग 50% की भागीदारी को बहुत आसानी से सुविधाजनक रूप से भूल जाते हैं। दुखद विषय तो यह भी है कि महिलाएं भी इस ‘‘भूल’’ की सजा उन राजनीतिक पार्टियों को चुनाव में नहीं देती है। शायद इसी कारण से जब सत्ता में भागीदारी की बात उठती है, तब समस्त नेतागण महिलाओं की एकजुटता न रहने के कारण अपेक्षा के बदले उनकी ‘‘उपेक्षा’’ जब तब करते रहते हैं। इसलिए सिद्धांत रूप से समस्त राजनीतिक दलों में सहमति होने के बावजूद आज भी संसद में लोकसभा-विधानसभा की 33% सीटों पर आरक्षण का कानून पारित नहीं हो पाया है। यह सिर्फ महिलाओं का ही नहीं, देश का भी दुर्भाग्य है। 
    तथापि जहां तक मध्य प्रदेश का सवाल है, शिवराज सिंह की सरकार ने महिला के जन्म लेने से लेकर मृत्यु तक संपूर्ण समृद्ध जीवन के लिए 147 सरकारी योजनाएं लागू की है, जिस कारण आधी जनसंख्या को फायदा शिवराज सिंह को निश्चित रूप से मिलेगा। प्रश्न यह जरूर है कि यह फायदा निर्णयात्मक होगा अथवा नहीं?