‘‘राक्षस प्रवृत्ति’’ की ‘‘स्व-स्वीकृति’’
‘‘श्राप’’ कहीं ‘‘भस्मासुर’’ न बन जाये।


भूमिका

    ‘‘लोकतंत्र’’ में जनता जनार्दन ही सब कुछ ही होती है। जनता को ‘‘भगवान’’ मानते है, खासकर राजनेता गण। यह बात कहते-कहते हमारे जन नेता थक जाते हैं, फिर भी लगातार कहते है। लोकतंत्र में चुनाव परिणामों में जनता के निर्णय अर्थात ‘‘जनादेश’’ को सिर-आंखों पर रखकर ‘‘शिरोधार्य’’ किया जाता है, चाहे परिणाम आपके पक्ष में हो अथवा विपक्ष में हो। परन्तु राजनीति के इतिहास में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ, न देखा, न पढ़ा, न कोई सोच सकता है, जैसा कि रणदीप सिंह सुरजेवाला ने उस जनता के प्रति जिसने साठ सालों से अधिक समय तक कांग्रेस को शासनारूढ़ किया, के प्रति कहा। अभी तक तो सिर्फ यह कल्पना की बात थी, लेकिन श्राप देने वाले स्वयं को ‘‘भगवान’’ की श्रेणी में रखकर अपने मुखारविंद से उक्त शब्दों को जमीन पर भी उतार दिया है। आखिर सुरजेवाला ने कह क्या दिया, जिससे इतना बड़ा बवंडर मच गया। 

सुरजेवाला के ‘‘सत्य वचन’’? ‘‘आत्मघाती गोल’’!
  

 कांग्रेस महासचिव जो खुद जनता के सीधे चुनाव में कई बार हार चुके हैं, पीछे के दरवाजे से संसद (राज्यसभा) में जरूर प्रवेश करने वाले रणदीप सिंह सुरजेवाला ने हरियाणा के कैथल के उदयसिंह किले में आयोजित जन आक्रोश रैली में बयान दिया ‘‘भाजपा का जो समर्थन करता है या जो भी उन्हें वोट देता है, वह ‘‘राक्षस प्रवृत्ति’’ का हैं। मैं उन्हें महाभारत की धरती से श्राप देता हूं’’। ‘‘अंधा कहे ये जग अंधा’’। यह कथन जनता के लिए अथवा दूसरों के लिए जरूर शर्मसार करने वाला हो सकता है। परन्तु कांग्रेस के लिए यह वास्तव में ‘‘गर्व’’ करने वाली बात है, शायद इसलिए ही उक्त बयान दिया गया है। वास्तव में इस बयान के द्वारा रणदीप सुरजेवाला ने अपनी ‘‘असलियत’’ ही स्वीकार की है। इसलिए आप काहे उनकी आलोचना कर कर उन्हें सुधरने का मौका दे रहे है? देश की लगभग जिन 37 प्रतिशत मतदाताओं ने पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को चुना, उन्हें सुरजेवाला ने राक्षस प्रवृत्ति करार ठहराया दिया। वह शायद इसलिए कि यदि कांग्रेस की ‘‘राक्षसी प्रवृत्ति’’ से निपटना है, तो जनता को भी उसी राक्षस प्रवृत्ति को ही अपनाना होगा। ठीक उसी प्रकार जैसे कि लोहा, लोहा को काटता है। यह बात जनता के दिमाग में भी है और कांग्रेस के दिमाग में तो है ही। इसलिए जब-जब आवश्यकता होती है, जनता राक्षसी स्वरूप अपनाकर रावण रूपी राक्षस को ‘‘राम’’ के सिंहासन पर आने से रोकती है। इसलिए कभी 404 सांसदों वाली पार्टी आज 52 पर ही सिमट गई। क्योंकि कांग्रेस के ‘‘अंधे हाथी अपनी ही फौज को रौंदते हैं’’। कांग्रेस की राक्षस प्रवृत्ति का स्वाभाविक परिणाम जनता की ‘‘अस्वाभाविक स्थिति’’ ‘‘राक्षस प्रवृत्ति बनकर’’आयी। 

सुरजेवाला! ‘‘ऋषि’’?

सुरजेवाला का अगला कथन तो और भी खतरनाक है, जब वे यह कहते हैं कि मैं उन्हें महाभारत की धरती से श्राप देता हूं। यह कहकर उन्होंने प्रधानमंत्री के उक्त कथन की पुष्टि ही की है, जब नरेन्द्र मोदी ने ‘‘इंडिया’’ गठबंधन को ‘‘घमंडिया गठबंधन’’ कहा। क्योंकि ‘‘अक्ल और हेकड़ी दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते’’। और ‘‘अक्ल का तो आवा का आवा ही कच्चा रह गया’’। 21वीं सदी के कलयुग में ‘‘श्राप’’ देने का अधिकार यदि कोई मानव अपने पास मानता है, तो निश्चित रूप से वह भगवान के अधिकार को छीनकर घमंडी होकर ही ऐसा कर सकता है। ‘‘र्दुःविचार’’ रखने वाले सुरजेवाला शायद स्वयं को आज के ‘‘महर्षि दुर्वासा ऋषि’’ मान बैठे हैं? चूंकि हरियाणा की जनता ने उन्हें दो-बार चुनावों में हराया है। शायद कही इस कारण से तो ही नहीं उन्होंने क्रोधित होकर हरियाणा की जनता को श्राप देकर अपनी ‘‘औकात’’ दिखाई या जनता की अप्रत्यक्ष रूप से औकात में रहने को कहां? यह तो वक्त ही बतलायेगा।

‘‘अमर्यादित बिगड़ते बोलों पर रोक आखिर कब?’’

    संसद, विधानसभा के अंदर कहे जाने वाले असंसदीय शब्दों को तो स्पीकर के द्वारा परिभाषित किया जा चुका है। इसकी किताब/शब्दावली भी लिखी जा चुकी है। परन्तु चुनाव आयोग ने संसद के बाहर राजनीतिक पार्टियों द्वारा बोले जाने वाले ‘‘असंसदीय’’ ही नहीं, बल्कि ‘‘अमर्यादित’’, अराजक शब्दों की कोई सूची अभी तक नहीं बनाई है। यदि टीएन शेषन समान कोई चुनाव आयुक्त आज होते तो इस बात पर वे जरूर सोचते। टीएन शेषन के जमाने में इस तरह का निम्न स्तर की इतनी गाली गलौज अपशब्द या अशोभनीय भाषा का उपयोग नहीं हुआ करता था अन्यथा वे तभी इस ‘रोग’ को भी ठीक कर देते। परन्तु आज की राजनीति के बिगड़ते हालात को देखते हुए शायद टीएन शेषन जैसा चुनाव आयुक्त आ भी जाये, तब भी वह ऐसी सूची, शब्दावली बनाने से इंकार कर देता। क्योंकि ‘‘तू डाल डाल मैं पात पात’’ की तर्ज पर जितने शब्दों को चुनाव आयोग असंसदीय घोषित करता, तत्पश्चात हमारे प्रिय नेतागण चाहे वह किसी भी झंडे के तले हो, प्रत्येक दिन नये-नये अमर्यादित, शब्दावली ले आयेगें। आखिरकार चुनाव आयोग को थककर हारकर इस मुहिम को बंद करना ही पड़ेगा। क्योंकि यह अंतहीन किताब लिखी जाने वाली हो जायेगी। वर्तमान में हमारे देश में जो लोकतंत्र है, वह ‘‘राजनीति’’ से चलता है, ‘‘नीति’’ से नहीं! आज की राजनीति की ‘‘भूमि’’ इतनी उपजाऊ हो गई है कि नये-नये गाली गलोच से भरे शब्दों की उत्पत्ति होते ही रहेगी। इसलिए कृपया सुरजेवाला को बख्श दीजिए। जनता पहले तो ‘‘इहां कुम्हड़बतिया कोऊ नाहीं’’ वाले रूख पर रहती हैं, फिर अपना रूप बदलकर सक्षम होकर सबक सिखाना भी जानती है, इसमें और किसी की सलाह की आवश्यकता नहीं है।

न तो बयान से इंकार! न क्षमा!

    अभी तक सुरजेवाला ने न तो इस बयान से इंकार किया और न ही कोई स्पष्टीकरण दिया है। ‘‘कहते नाहिं लाजे तो सुनते क्यों लाजे’’ कांग्रेस पार्टी ने भी न तो इस बयान की आलोचना की है और न ही इससे अपने को अलग किया है। साथ ही कांग्रेस ने इसे सुरजेवाला का निजी बयान भी अभी तक नहीं बतलाया है। हो यह जरूर कहा गया कि उनके भावार्थ को समझिए, शाब्दिक अर्थों को नहीं। तो फिर कथन के आपत्तिजनक शब्दों को अभी तक ठीक क्यों नहीं किया? अतः यहां अर्थ का अनर्थ कोई नहीं निकाल रहा है?