राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)

माफिया अतीक अहमद गैंग के प्रमुख अपराधियों की समाप्ति से उत्पन्न यक्ष प्रश्न?

                   अतीक अहमद गैंग के अधिकतर महत्वपूर्ण अपराधियों की जीवन लीला समाप्त कर दिये जाने के बाद देश में इस पर दो तरह के स्पष्ट मत लोकतंत्र के बहुमत/अल्पमत के समान परिलक्षित हो रहे हैं। बहुमत! ״एक आंतक״ की समाप्ती हुई, भुक्त भोगी परिवारों व पीड़ित जनता को सांत्वना मिली, संतोष हुआ और अंततः न्याय मिला। मतलब जो कुछ भी हुआ, वह अच्छा ही हुआ। अंत भला तो सब भला। प्रश्नवाचक चिन्ह न लगाइये। "उघरे अंत न तेहि निबाहू खासकर"। दूसरा अल्पमत बुध्दिजीवियों का तर्क यह रहा कि दुर्दांत अपराधी अतीक अहमद का अंत हुआ, होना चाहिए, किन्तु वह रास्ता गलत था। यहॉ "टट्टे की ओट" में शिकार खेला गया है। सजा मिलनी ही चाहिए थी लेकिन देरी से गैरकानूनी और अराजकता लिए तरीके से नहीं। तथ्यात्मक व भावात्मक रूप से दोनों मत सही होने के बावजूद इतने विपरीत क्यो है? यह फिर सिर्फ समझ का फेर है। एक ही घटना के संबंध में दोनों पक्षों के विपरीत मतों को एक ही धागे में क्यों नहीं पिरोया जा सकता है, बड़ा यक्ष प्रश्न यह है? 
                इस मामले में माफिया अतीक अहमद की हत्या व उसके गुर्गो के एनकाउंटर के बाबत मै पहले ही कॉफी लिख चुका हूं तथा अन्यो द्वारा भी लिखा-पढा-सुनाया व दिखाया जा चुका है। अतः आज घटनाओं के गुण-दोष पर जाना नहीं चाहता हूं। परन्तु मेरा यह दृढ़ मत है कि उक्त घटित सम्पूर्ण घटना क्रम हमे इस बात पर विचार करने के लिए एक बड़ा अवसर प्रदान कर रही है, जहां हम यदि खुले दिलो दिमाग से एक जागरूक कर्तव्य निष्ठ नागरिक की हैसियत से उक्त दोनो पक्षों के रूख को "एक धागे में कैसे पिरोया जा सकता है", किस प्रकार "ठंडे लोहे से गर्म लोहे" को काटा जा सकता है, इस दिशा में सोचने पर विचार विमर्श करें तो राजनिति व अपराधिक दुनिया मे छाये अपराध के घनघोर बादल छाटे व हटाये जा सकते है। इसका आगे विश्लेषण करते हैं।
    निसंदेह भारत एक बड़ा लोकतांत्रिक देश है, जिस पर विश्व की निगाहे हमेशा नजर गढ़ाए लगी रहती हैं। लोकतांत्रिक देश में शासन संविधान व कानून से चलता है, तालिबानी तरीको से नहीं। विशिष्ट रूप से इस बात को ध्यान में रखना होगा कि विधान, संविधान ‘‘नागरिकों’’ के लिए बनाया जाता है ‘‘विधान, संविधान’’ के लिए नागरिक नहीं। लोकतंत्र की दूसरी खूबी बल्कि वर्तमान परिस्थितियों की कमजोरी कहना गलत नहीं होगा, जहां शासन बहुमत से चलता है, सर्वसम्मति से नहीं। राजनीतिक सत्ता का निर्णय भले ही बहुमत से हो, परन्तु कुछ विषय ऐसे जरूर होते हैं, जो देश की सुरक्षा, एकता, अखंडता, आंतरिक सुरक्षा व आंतरिक शांति से जुड़े होते हैं, जिन पर बनने वाले कानून लोकसभा व विधानसभा में सर्वसम्मति से पारित हो, तब शायद विवाद की स्थिति लगभग नहीं के बराबर रहेगी। 
            वर्तमान घटनाक्रम को यदि इस दृष्टि से देखे तो उपरोक्त चिन्हित प्रश्न का हल ढूॅंढा जा सकता है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि, अपराधी को हर हालत में त्वरित सजा देने के लिए वैसी सक्षम न्याय व्यवस्था नहीं है। परन्तु वर्तमान न्याय व्यवस्था जिसकी तुलना "अंधे घोडे पर बहरे सवार" से की जा सकती है, जो कि फुल प्रूफ व कमिंयो से युक्त होने के कारण ही लगभग 60 प्रतिशत अपराधी सजाओं से ऐन-केन-प्रकारण से बच जाते हैं, अथवा दोष सिघ्द होने में वर्षो निकल जाते हैं। हाल में ही गुजरात के एक दंगे प्रकरण नरोदा ग्राम के हुये नरसंहार जिसमें 11 लोगो की मौत हुई थी, का 21 वर्ष बाद निर्णय आया, जिसमें समस्त 86 अपराधियो जिसमे पूर्व मंत्री माया कोडनानी, बजरंगी अध्यक्ष, बजरंग दल भी शामिल थे को दोषमुक्त कर दिया गया। इसमे 18 अपराधियों की मृत्यु हो चुकी थी। ऐसे एक नहीं अनेकोनेक उदाहरण हैं। इस तरह से लम्बे समय तक मुकदमें चलने के बाद गवाहों को डराकर दोषमुक्त होने पर अपराधियों का दुःसाहस बढ़ जाता हैं। "इक नागिन अरू पंख लगाई" और वे अततः बाहुबली, माफिया बन कर समाज के लिए नासूर लाईलाज हो जाते हैं। यानि कि "एक तो शेर उपर से बख्तर पहने"। वर्तमान की इस अक्षम, अधूरी न्याय व्यवस्था में समय की मांग अनुसार परिवर्तन कर न्याय व्यवस्था को श्रेष्ठतर कर क्या सक्षम नहीं किया जा सकता है? बडा प्रश्न यही है। निश्चित रूप से किया जा सकता है। "अपने खुजाए ही खुजली मिटती है"। परन्तु मेरी नजर में ऐसी इच्छाशक्ति की बेहद कमी  है, जिसको पैदा करना इस लेख का उद्देश्य है।
       आप जानते ही हैं कि  देश की संप्रभुता, अखंडता, एकता, सांप्रदायिक सद्भाव को नुकसान पहुंचाने वाले आतंकवादियों के लिए देश में कुछ कानून ऐसे बनाए गये है, जो सामान्य न्याय व्यवस्था व कानून से हटकर है। मतलब विशेष अदालतों में मुकदमा चलता है। जमानत नहीं होती है। निश्चित अवधि के लिए बिना मुकदमा चलाये निरोध में रख कर दोष सिद्धि करने का भार अभियोजन पर न होकर अभियुक्तों पर होता है। ऐसे विशिष्ट कानूनों (विशिष्ट परिस्थितियों के लिए) पर मानवाधिकार आयोग अथवा मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले एक्टिविस्ट को भी कोई आपत्ति नहीं होती है। "आर्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः"। उच्चतम न्यायालय द्वारा भी ऐसे कानून को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। उत्तर प्रदेश सरकार ने अतीक अहमद कांड के बाद 121 मोस्ट वांटेड माफियो की सूची जारी की है, जिनके मुकदमे भारतीय दंड संहिता व द.प्र.स. के अंतर्गत चल रहे हैं, जो माफिया, बाहुबली बनकर अपना माफिया राज चलातें हैं। तब क्या ऐसे खूंखार अपराधियों, माफियों बाहुबलियों के लिए विशेष माफिया उन्मूलन कानून बनाया जाकर उसके अंतर्गत स्पेशल कोर्ट नहीं बनायी जा सकती है, एक अपराधी जिसके विरूघ्द 10-20 (जैसा निश्चित किया जाए) आपराधिक मुकदमें दर्ज होने पर उसे माफिया  माना जाकर उस पर प्रस्तावित "माफिया उन्मुलन कानून" के अंतर्गत मुकदमा चलाया जाना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे एमपी- एमएलए कोर्ट बनाये गयें है। "शठे पाठ्यम समाचरेतं"। 
      कानून का सामान्य सिद्धान्त यह कि अभियुक्त पर दोष सिद्ध करने का भार अभियोजन पर होता है। नये बनाये जाने वाले माफिया उन्मूलन कानून में दोष सिद्ध करने का भार अभियुक्त पर होगा, जैसा कि कुछ अपराधों के लिए कानून में ऐसी व्यवस्था है। तब निश्चित रूप से त्वरित न्याय निश्चित अवधि में होकर कानून का राज स्थापित होगा। क्योकि सामान्य वर्तमान अपराध कानून के तहत तो इनका ट्रायल "गधे से घोडे" का काम लेने जैसा है। तब ही न्याय प्रणाली पर ऐसे दरिंदे अपराधीयों के विरूघ्द नागरिको व पीडित परिवारों का विश्वास बढ़ेगा और तब अपराधियों के एंकाउंटर की न तो आवश्यकता होगी और न ही मांग उठेगी। "मतलब सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे"। हालाकि कहॉ जाता है कि "अक्ल का घर बडीं दूर हैं"। बहुत असंभव कार्य नहीं है, परन्तु न ही एक दिन में  संभव है। ऐसा करने के लिए समस्त पक्षों की अर्थात शासन, प्रशासन भुक्त भोगी व नागरिकगण की इस दिशा की ओर बढने की दृढ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।  क्योंकि यह बात अपने आप में सिद्ध है कि राजनैतिक, प्रशासनिक व न्याय व्यवस्था का फायदा लेकर अपराधी से माफिया बने स्वयं को अनचेलेंजेबल स्थिति में ले आते हैं। 
        एक बात और ! चूॅंकि "अकेली लकडीं से चूल्हा नहीं जलता हैं" इसलिए इस तरह के खूंखार अपराधी अपनी अपराधी दुनिया को मजबूत करने के लिए राजनेताओं, पार्टियों व प्रशासनिक अधिकारीयों का सहारा लेकर अनचेलंेजेबल स्थिति में पहुंच जाते हैं, और वें साम-दंड- भेद से उस जनता के बीच चुन लिये जाते हैं जिनके  खिलाफ ही उनका अपराध का आतंक होता है। यह देश की राजनिति की विचित्र व आश्चर्यजनक स्थिति है। क्या इस पर जनता जर्नादन को विचार नहीं करना चाहिए? क्या चुनाव आयोग, राष्ट्रवादी पार्टियों व न्यायपालिका को विचार नहीं करना चाहिए? याद कीजिए टी एन शेषन जैसे चुनाव आयुक्त ने जन प्रतिनिधित्व कानून में कोई संशोधन किए बिना ही चुनावी प्रक्रिया में ऐतिहासिक परिवर्तन ला दिया। जो उनके पूर्व कोई दृढ इच्छा न होने के कारण नहीं करपाया, जिससे स्वच्छ,पारदर्शी  सस्ता व निडर चुनाव संपन्न हो सके, जिसकी कल्पना भी तत्समय नहीं की जा सकती थी। क्या ऐसे माफियो के चुनाव लड़ने पर ही प्रतिबंध नहीं लगा देना चाहिए? क्या दिक्कत है, "ईट की देवी को रोड़े का परसाद ही फलता हैं"। जब देश में प्रधानमंत्री पद के पढ़े लिखे होने की बात कर केजरीवाल जैसे नेता कर जाते है और वे अपने स्वयं के मूल सिद्धान्त "दागी व्यक्ति को चुनावी राजनीति से दूर रखना  चाहिए" को कानूनी रूप देने का मुद्दा नहीं चलातें है। क्यों?
             सबसे दुखद पहलू यह है कि इन सब मुद्दों पर इस घटना के पक्ष व विपक्षी लोग न तो कोई चर्चा करना चाहते हैं, और न ही अन्य कुछ सोचना चाहते है। मेरा यही अनुरोध है कि इस घटना ने एक अवसर प्रदान किया है कि इस संबंध में हम व्यवस्था को सुधारने के लिए चाहे वह न्याय, लोकतांत्रिक अव्यवस्था या राजनीतिक पार्टियों की शुद्धिकरण का विषय हो, इन सब के लिए जनता को ही जाग्रत होना होगा । बार-बार जेपी- अन्ना नहीं आयेगे । हर व्यक्ति को "जेपी" व 'अन्ना" बनना ही होगा। यह बात कुछ लोगो को किताबी लग सकती है, व्यवहारिक नहीं। लेकिन मेरा यह दृढ विश्वास है हर व्यक्ति को आगे बढकर व्यवहारिक धरातल में उतरना ही होगा और इन समस्त तंत्र की गंदगियो, कमियों को दूर करने के लिए प्रतिज्ञा लेनी होगी, जो सिर्फ देश हित में ही नहीं बल्कि स्वयं के व्यक्तित्व के दोष को दूर करने के लिए भी जरूरी है। सोचिये, अमल कीजिए और यदि आप स्वयं यह नहीं कर सकते हैं, तो कम से कम अपने पडोसियों को ऐसा करने के लिए जरूर बतलाइये, शायद कार्य आसानी से होगा। क्योकि हमारी आदत है कि हम हवन में स्वयं आहूति न डालकर पड़ोसी से उम्मीद ज़रूर करते हैं।
अंत में एक यक्ष प्रश्न और? यदि माफिया राज को समाप्त करने के लिए अतीक अहमद की गैंग का  एनकाउंटर, हत्या किया जाना सर्वोचित है तब पूरे उत्तर प्रदेश में माफिया राज के पूर्ण उन्मूलन के लिए स्वयं सरकार द्वारा जारी 121 मोस्ट वांटेड माफियाओं वह जेल में बंद माफियाओं को कब ईश्वर अल्लाह के पास पहुंचा कर जनता को वह मुक्त करेगी? तरीका क्या वही अतीक अहमद गैंग वाला होगा अथवा तुरंत-फुरंत  नया सक्षम कानून बनाया जाकर? परिणाम की प्रतीक्षा में भुक्तभोगी जनता!
          अंत में एक यक्ष प्रश्न और? यदि माफिया राज को समाप्त करने के लिए अतीक अहमद की गैंग का  एनकाउंटर, हत्या किया जाना सर्वोचित है तब पूरे उत्तर प्रदेश में माफिया राज के पूर्ण उन्मूलन के लिए स्वयं सरकार द्वारा जारी 121 मोस्ट वांटेड माफियाओं वह जेल में बंद माफियाओं को कब ईश्वर अल्लाह के पास पहुंचा कर जनता को वह मुक्त करेगी? तरीका क्या वही अतीक अहमद गैंग वाला होगा अथवा तुरंत-फुरंत  नया सक्षम कानून बनाया जाकर? परिणाम की प्रतीक्षा में भुक्तभोगी जनता!