राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)

‘‘एक देश एक चुनाव’’!
‘‘बुनियादी ढांचे में परिवर्तन’’ या बुनियादी ढांचे की ‘‘पुर्नस्थापना’’?
‘‘संघीय ढांचे पर अतिक्रमण’’ कैसे?


प्रधानमंत्री मोदी की पहल।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहली बार 73वें स्वाधीनता दिवस (वर्ष 2019) के अवसर पर ‘‘लाल किले’’ से संबोधित करते हुए देश को ‘‘वन नेशन वन इलेक्शन’’ ‘‘एक देश एक चुनाव’’ का एक ‘‘वैचारिक उपक्रम’’ दिया। इस संबंध में वर्ष 1983 से ही भिन्न-भिन्न समयों में चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग एवं संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं। पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अध्यक्षता में एक वर्ष पूर्व (सितम्बर 2023 में) गठित कमेटी की रिपोर्ट की सिफारिशों को रूबरू कैबिनेट ने स्वीकार भी कर लिया है। इस पर देश का ‘‘अभिमत’’ लगभग सीधा-सीधा विभाजित है। कई लेख, आलेख, चर्चा-बहस, बयान, पक्ष-विपक्ष में आ चुके हैं। लगा था कि इस विषय पर लिखने के लिए ‘‘अलग’’ से रह क्या गया है? परन्तु आज जब मैं इस विषय पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी, स्वराज इंडिया पार्टी के अध्यक्ष, प्रसिद्ध सेफ्रोलिस्ट योगेंद्र यादव व प्रसिद्ध यूट्यूबर ध्रुव राठी के विचारों को पढ़-सुन रहा था, तब मुझे लगा कि इस विषय पर जो एक महत्वपूर्ण बिंदु है, ‘‘क्या इससे संविधान के मूलभूत (बुनियादी) ढांचा (उच्चतम न्यायालय द्वारा केशवानंद भारती में प्रतिपादित) में परिवर्तन होगा अथवा यह संघीय ढांचे पर अतिक्रमण है’’? वस्तुतः इसकी व्याख्या व आलोचना गलत रूप से की जा रही है। इस संबंध में राहुल गांधी का ट्वीट है ‘‘भारत राज्यों का एक संघ है’’। ‘‘एक देश-एक चुनाव’’ संघ और इसके सभी राज्य पर हमला है’’। ऐसी स्थिति मंे इस बिंदू पर वर्ष 1950 से लागू संघीय संवैधानिक व्यवस्थाओं को ध्यान में रखकर प्रकाश डालना जरूरी हो गया है। 

‘एक देश-एक चुनाव’ की जरूरत क्यों?

बेशक यह मुद्दा आज बहस के केंद्र में है। परन्तु स्वाधीन भारत के प्रारंभिक चरणों में वर्ष 1952 से 1967 तक हुए चार आम चुनावों में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ ही करवाए गए थे (एक अपवाद को छोड़कर जब पहली बार वर्ष 1960 में केरल विधानसभा के मध्यावधि चुनाव कराने से यह क्रम पहली बार टूटा)। एक साथ चुनाव कराने का क्रम लगातार तब टूटा, जब वर्ष 1968-69 में व उसके बाद समय-समय पर दोनों राज्यों की विधानसभाएँ विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गईं। बड़े पैमाने पर वर्ष 1969 में कांग्रेस पार्टी में विभाजन होने। खासकर देश में वर्ष 1971 में पहली बार लोकसभा चुनाव भी समय से पहले कराये गए थे। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब चार बार एक साथ चुनाव पहले भी करवाए जा चुके हैं, तो अब पुनः उक्त स्थिति को पुनर्स्थापित करने में समस्या क्या है?

‘‘चुनाव’’ ही लोकतंत्र का सबसे बड़ा ‘‘उत्सव’’ है।

अगर हम देश में होने वाले चुनावों पर वर्तमान में नजर डालें, तो पाते हैं कि  हर वर्ष किन्हीं राज्यों में चुनाव होते ही रहते हैं। लेकिन यह कथन भी पूरी तरह से सही नहीं है कि इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं, बल्कि देश के खजाने पर भी भारी बोझ पड़ता है। हाल ही में हुए 17वीं लोकसभा के चुनाव में एक अनुमान के अनुसार, 60 हजार करोड़ रुपए से अधिक का खर्च आया और लगभग तीन महीने तक देश चुनावी मोड में रहा। वैसे पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत के अनुसार भारत का चुनाव विश्व भर में सबसे सस्ता चुनाव है। 1 अमेरिकी डॉलर प्रति वोटर के हिसाब से खर्च होता है। यदि बात सिर्फ खर्चे की ही है, तब फिर राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए गए खर्चों की सीमा क्यों नहीं बांधी जाती है? जो उम्मीदवारों द्वारा किए गए खर्चों से कई गुना ज्यादा होती है। आचार संहिता लागू होने पर सिर्फ नई नीति की घोषणा नहीं की जा सकती है। वह भी जरूर यदि जनहित में अति आवश्यक हो तो चुनाव आयोग की अनुमति से की जा सकती है। आचार संहिता में में भी आवश्यक संशोधन करके सरकार के दैनंदिन कार्यों में लगे अनावश्यक अंकुश को कम किया जा सकता है। इसलिए इस आधार पर एक साथ चुनाव की वकालत तथ्यात्मक नहीं है। तथापि ‘‘चुनाव’’ का ‘ड़र’ ही जनप्रतिनिधियों को जनता-जर्नादन के साथ जीवंत सर्म्पक व उनके निकट लाता है। 

भाजपा की वैचारिक पहचान।

‘‘जनसंघ’’ से लेकर भाजपा और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक सपना रहा है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक, ‘‘विविधता में अनेकता लिये हुए’’ भारत देश की अखंडता को एक सूत्र में बांधने के लिए ‘‘एक देश-एक विधान’’ ‘‘एक निशान’’, ‘‘एक मोबिलिटी कार्ड, (एनसीएमसी)’’ एक पहचान (आधार कार्ड) ‘‘एक राशन कार्ड’’, ‘‘एक कर’’, ‘‘एक शिक्षा नीति’’, एवं एक देश-एक ग्रिड’’का होना आवश्यक है। इसी कड़ी में एक देश-एक चुनाव की नीति पर मोदी सरकार लगातार काम कर रही है। इसके पटल (काउंटर) में विपक्षी नेताओं ने वन नेशन-वन इनकम, वन एजुकेशन, वन इलाज का शिगूफा छोड़ दिया है। यहां पर यह नीति कितनी सही है या गलत, धरातल पर लागू करने में कितने व्यावहारिक व संवैधानिक रुकावटें हैं, इन पर विचार नहीं किया जा रहा है। 

मूल महत्वपूर्ण मुद्दा।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की वर्ष 1952 से 67 तक चले एक एक साथ चुनाव की स्थिति आज विभिन्न कारणों से अलग-अलग हो गए हैं। ध्यान देने योग्य बात यहां यह है कि यह स्थिति कोई संविधान में संशोधन होने के कारण नहीं हुई है? परंतु एक साथ चुनाव में वापस आने के लिए जरूर संविधान संशोधन करना आवश्यक हो गया है। प्रश्न यह है की पूर्व स्थिति की पुनर्स्थापना के लिए किए जाने वाले प्रस्तावित संविधान संशोधन क्या संविधान की मूल भावना को या संघीय ढांचे को चोट पहुंचाते हैं, मूल विषय सिर्फ  इतना सा ही है, जिसकी विवेचना आगे की जा रही है। 

पुरानी व्यवस्था की पुनर्स्थापना ! नई नीति नहीं! 

संविधान निर्माताओं ने जब 5 साल के अंतराल में एक साथ लोकसभा व विधानसभा के चुनाव कराने की बात कही थी, तब उन्होंने यह कल्पना नहीं की थी कि देश में दल बदल के कारण ‘‘आयाराम-गयाराम’’ की राजनीति के गिरते स्तर, लालच, धन, बल के चलते तक शैनः शैनः एक स्थिति ऐसी बन जाएगी, जब संवैधानिक अवधि का पालन करने के कारण प्राय अधिकतर राज्यों की विधानसभाओं व केंद्र के लोकसभा चुनाव अलग-अलग होने लगेगें। इसलिए जब वर्ष 1967 तक चुनाव एक साथ होते रहे हैं, जब वे संघीय ढ़ाचे पर अतिक्रमण नहीं थे, तब आज कैसे? जबकि किसी भी सरकार ने संविधान संशोधन द्वारा चुनावी व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया है। संविधान निर्माताओं ने प्रारंभ में आरक्षण के लिए मात्र 10 वर्ष का प्रावधान किया था, और उक्त उद्देश्य की प्राप्ति न होने के कारण इसे हर आगे 10 साल के लिए बढ़ाने का प्रावधान किया गया, जिसकी कल्पना तो उन्होंने कर ली थी। परन्तु यहां संविधान निर्माताओं ने शायद राजनेताओं के गिरते नैतिकता व गलत आचरण की कल्पना नहीं की थी, जो दुर्भाग्यवश आज व्यवस्था का अभिन्न अंग बन गई है। जिस कारण ही एक साथ चुनाव कराने का चक्र पांच साल की अवधि का (क्रम) टूटा है। तो उसको सुधारने के लिए वही पुरानी व्यवस्था लागू करने के लिए यदि आवश्यक संविधान संशोधन किया जाता है, तो वह संविधान की संघीय ढांचे के साथ छेड़-छाड़ या चोट कैसे! यह समझ से परे है। 

योगेन्द्र यादव, कुरैशी व ध्रुव राठी का विरोध! कानून व तथ्यों से परे।

योगेन्द्र यादव व एस वाई कुरैशी ने कमेटी की रिपोर्टे की कुछ कमियों को जो इंगित किया है वही सही है। परन्तु योगेन्द्र यादव का यह कहना कि यह ‘‘शासक की लोकतंत्र को कमजोर करने की डिजाइन’’ है। यह संसदीय शासन प्रणाली में निहित विधायिका के प्रति कार्यपालिका की जवाब देही के मूल सिंद्धात को बिगाड़ देगा। साथ ही यह संविधान की बुनियादी संरचना का उल्लंघन करता प्रतीत होता है। ये तीनों ही बातें तथ्यात्मक व संवैधानिक दृष्टि से से गलत है। इसका सीधा जवाब है कि प्रारंभिक 20 वर्षों तक जब एक साथ चुनाव हो रहे थे, क्या देश में लोकतंत्र व संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन हो रहा था? तब देश के किसी भी शख्स ने एक साथ चुनाव के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा। कुरैशी ने जरूर कुछ मुद्दों का व्यवहारिक हल निकालने का आग्रह किया है। 

विरोध के कारण।

इसके विरोध में एक बात और कही जाती है। जिस प्रकार जीएसटी को लागू किया। परन्तु एक देश एक कर की बात पूरी तरह से लागू नहीं हो पायी। ‘‘एक दर’’ की बजाए विभिन्न दरों के साथ पेट्रोलियम उत्पाद को भी जीएसटी के दायरे में नहीं लाया गया है। क्या इसी प्रकार एक देश-एक चुनाव पूरी तरह से आज भी सरकार लागू करने नहीं जा रही है? यह बात सही है। क्योंकि कोविंद कमेटी की रिपोर्ट में पंचायतों के चुनाव आम चुनाव के बाद 100 दिन के अंदर कराये जाने की बात की गई है, जो समझ से परे है। एक बात और जो इस कदम के विरूद्ध में कही जा रही है, देश के एक साथ विधानसभा-लोकसभा को वोट देने पर देश में साक्षरता का स्तर कम होने के कारण लोग विवेक से सही निर्णय नहीं ले पाते हैं। इसका कुछ फायदा केन्द्र में बैठी सरकार की पार्टी को होता है। विशेषकर क्षेत्रीय दलों को नुकसान होता है। इस संबंध में अभी हाल के हुए ओडिशा विधानसभा चुनाव का उल्लेख किया जाता है। यदि 1952 से लेकर 1967 तक साक्षरता की दर को देखे तो आज वह लगभग दो गुनी हो गई है। जब उस समय 20 साल तक मतदाता के विवेक पर प्रश्न साक्षरता के आधार पर नहीं उठाया गया, तब इस आधार पर आज प्रश्न उठाना कितना जायज है? एक और आधार ‘‘राज्य के मुद्दों’’ पर केंद्र के मुद्दे हावी हो जाएंगे, एक साथ चुनाव कराने में? वस्तुतः यह जनता के विवेक पर ही प्रश्न-चिन्ह लगाने समान है?

सरकार परसेप्शन बनाने में असफल। 

यद्यपि आज की राजनीति में ‘‘एक्शन की बजाय पररेप्शन’’ का महत्व ज्यादा है, जिसे बनाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी माहिर है। उनके मुकाबले सिर्फ केजरीवाल ही ठहर पाते है। इसके लिए भी एक्शन करते हुए दिखना जरूर पड़ता है। परंतु इस मुद्दे को लेकर मोदी चूक गये लगते है। क्योंकि ‘‘एक देश-एक चुनाव’’ को लेकर प्रथम अवसर मिलने पर ही एक्सन कर परसेप्शन क्यों नहीं बनाया जा रहा है? पिछले एक साल में लें! लोकसभा और विधानसभा चुनाव को ही ले लो 7 फेसों में लोकसभा चुनाव की हुए चुनावी प्रक्रिया की अवधि कम की जा सकती थी। उड़ीसा विधानसभा के साथ ही महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, झारखंड के चुनाव लोकसभा के साथ एक साथ कराया जा सकते थे, यदि चुनाव आयोग इनकी अवधि को 6 महीने आगे पीछे घटा बड़ा कर लेता, जो उसके अधिकार क्षेत्र में है। वर्ष 2022 में गुजरात के साथ हिमाचल के भी चुनाव कराये जा सकते थे, जो पहले होते थे। तब शायद जनता के मन यह परसेप्शन जरूर जाता कि सरकार वास्तव में इस विषय पर गंभीर है और वह बिना संवैधानिक संशोधन किये इस दिशा में जो कदम उठा सकती है, उठा रही है। इसलिए कुछ लोग इसे सरकार का इस विषय पर गंभीर न होकर नरेन्द्र मोदी का शिगूफा मात्र भी कहते हैं, क्योंकि इसके लिए दोनों सदनों में आवश्यक संख्या बल से एनडीए कोसों दूर है। कोविंद कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में बीच में विधानसभा भंग होने पर उसका चुनाव 5 साल के लिए न किये जाकर शेष अवधि के प्रावधान के लिए किया है। शायद यह प्रस्तावित संशोधन जरूर संविधान की मूल अवधारणा को चोट पहुंचा सकता है। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय की राय भी ली जा सकती है।

उपसंहार।

वास्तव में यदि राजनीतिक दल व जनता यह चाहती है कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार चुनाव 5 साल में एक बार एक साथ हो, और यह क्रम आगे भी निरंतर चलता रहे। तब फिर दल बदल को पूर्णतः प्रतिबंधित कर और बीच में सरकार किसी भी मुद्दे के गिरने पर शेष अवधि के लिए ‘‘अल्पमत सरकार’’ को कार्य करते हुये देना होगा। अथवा पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत द्वारा वर्ष 2015 में सरकार को एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव के संबंध में दिया गया यह सुझाव महत्वपूर्ण हो सकता है कि अविश्वास प्रस्ताव की जगह ‘‘रचनात्मक विश्वास प्रस्ताव’’ का प्रावधान करना होगा। वैसे यदि देश में पूर्ण रूप से न सही तो 90% सभी राज्यों के चुनाव लोकसभा के साथ एक साथ हो, तब भी वह देश की राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए एक नेशन एक इलेक्शन ही कहलायेगा। ठीक उसी प्रकार जैसे एक देश एक टैक्स की नीति के तहत जीएसटी वर्तमान में विभिन्न टैक्स दरों के साथ लागू है।