राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)

अवैध गिरफ्तारी (?) से मुक्ति के लिए की गई ‘‘अवैध कार्रवाई‘‘ ’’क्या वैधानिक’’ हो जाएगी?
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    आइए! इस पूरी घटना के कानूनी व स्थापित प्रक्रिया के पहलू पर गंभीरता पूर्वक विस्तृत विचार करें। जहां पूरा प्रकरण अपराध पंजीयत होने से लेकर रिहाई तक राजनैतिक उद्देश्य से विद्वेष निकालने के लिये समस्त पक्षों अर्थात् आप-भाजपा द्वारा बेशर्मी के साथ कार्यान्वित किया गया। भाजपा द्वारा तेजिंदर पाल को निर्दोष बताते हुए ‘‘आप’’ व अरविंद केजरीवाल पर सत्ता का राजनैतिक दुरुपयोग कर पंजाब पुलिस पर दबाव डालकर बग्गा के विरुद्ध झूठा प्रकरण दर्ज कराने का गंभीर आरोप लगाया गया। वैसे अरविंद केजरीवाल जो राजनीति के प्रारंभिक चरण में भाजपा एवं नरेंद्र मोदी पर किस तरह से मीडिया की ब्रांडिंग व सत्ता तथा संवैधानिक संस्थागत संस्थाओं का विपक्षी विरोधियों के विरुद्ध दुरुपयोग के आरोप लगाते थकते नहीं थे। सत्ता में आने के बाद आज केजरीवाल का भी चरित्र अपने प्रतिद्वंदी भाजपा से ज्यादा एक कदम आगे ही हो गया है। जहां अब स्वयं उन पर आरोपी की झड़ी लग रही है। कपिल मिश्रा, अलका लांबा, कुमार विश्वास आदि उनके राजनीतिक विरोधी इसके जीवंत उदाहरण जो केजरीवाल द्वारा राजनैतिक द्विवेश से अपने साथियों द्वारा की गई कार्यवाही को झेल रहे हैं। दिल्ली अर्ध-राज्य के विज्ञापन खर्चे की तुलना देश के किसी भी राज्य से कर लीजिए, स्थिति आपके सामने स्पष्ट हो जाएगी। 
    कृपया बग्गा द्वारा किए गए विभिन्न ट्वीट्स की भाषा को पढ़ लें। इनमें से कुछ तो मीडिया भी भाषा के निम्न स्तर को देखते हुए पूरे ट्वीट्स नहीं दिखा रहा है, और पूर्व में उस पर दर्ज कई अपराधिक मामलों को देखते हुए हिस्ट्रीशीटर होकर भाजपा द्वारा बग्गा को बेगुनाह बतलाना तो बिल्कुल भी सही  प्रतीत नहीं लगता हैं। उच्चतम न्यायालय में प्रशांत भूषण के चेंबर में जाकर थप्पड़ मारना, अरुन्धिति राय के पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में हंगामा, राजीव गांधी के विरूद्ध अपमानजनक टिप्पणी के लिये छत्तीसगढ़ में प्रकरण दर्ज हुआ। पश्चिमी बंगाल में अमित शाह की रोड़ शो में हिंसा फैलाना, पटियाला हाउस कोर्ट द्वारा दंगा फैलाने की नीयत से भड़काऊ भाषण देने पर सजा देना आदि अनेकानेक आपराधिक घटनाएं बग्गा के सिर पर मुकुट धारण किये हुयी हैं। तथापि बंदूक से निकली गोली जैसी तेजी से पुलिसिया तरीके से की गई कार्यवाई व प्रति कार्यवाई ने पूरे प्रकरण को संदेह के दायरे में जरूर ला दिया है।
यह तो प्रकरण का एक पक्ष हुआ जिसकी रचयिता ‘‘सिंर मुंडाते ही ओले पड़ने’’ वाली पंजाब पुलिस रही। परंतु इसका दूसरा पक्ष दिल्ली पुलिस व हरियाणा सरकार व पुलिस का भी इस हाई वोल्टेज ड्राजा में गजब का रोल रहा, जो आज तक के आपराधिक न्यायशास्त्र (क्रिमिनल जूरिसप्रूडेंस) के इतिहास में कभी भी नहीं हुआ। आज तक आपने कभी सुना है कि एक आरोपी के पिता की शिकायत के आधार पर आरोपी को गिरफ्तार करके ले जा रही पुलिस के विरुद्ध अपहरण व मारपीट के अपराध को दूसरी पुलिस द्वारा तुरंत-फुरंत बिना जांच के प्रकरण दर्ज कर ले? परंतु दिल्ली पुलिस ने न केवल ऐसा किया, बल्कि हरियाणा पुलिस को तदनुसार सूचित भी किया। आरोपी के पिता प्रीति पाल सिंह बग्गा के मीडिया में दिए गए बयानों पर थोड़ा गौर तो कर लीजिए। वे कहते हैं कि सुबह पंजाब पुलिस के कुछ आदमी जो पूर्व में भी आ चुके हैं, मेरे बेटे, को पगड़ी पहनने का समय दिए बिना ही उठाकर ले गए। (पंजाब पुलिस उनके घर पांच बार नोटिस देने जा चुकी है)। मेरे को थ्प्पड़ मारा व परिवार के साथ मारपीट भी की। फिर किसी बयान में वह यह कहते दिखते हैं कि कुछ गुंडे आए थे, जो उठाकर ले गए। फिर यह भी कहते हैं, दिल्ली पुलिस को बताए बिगर मेरे लड़के को ले गए। (यह तथ्य उन्हे कैसे मालूम? क्या दिल्ली पुलिस उनसे मिली हुई है?) इन सब कथनों से आप स्वयं ही निष्कर्ष निकाल सकते हैं। 
अपहरण के अपराध की उक्त परिभाषा कानून की किस किताब में लिखी है जरा बताएं तो? पंजाब पुलिस को अच्छी तरह से पहचान करने वाले व्यक्ति द्वारा आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में आयी पुलिस के विरुद्ध अपहरण सहित धारा 452, 342, 365, 295 एवं 34 के अंतर्गत प्रकरण न्यायालय द्वारा नहीं, बल्कि अपनी ही दूसरे राज्य के थाने की पुलिस द्वारा दर्ज कराना सातवें आश्चर्य से कम नहीं है? पुलिस टीम तो अपने आला आंका अधिकारियों के निर्देश पर कर्त्तव्य (ड्यूटी) निर्वाह करने गयी थी। क्या आंकाओं के विरूद्ध भी मारपीट व अपहरण का मामला दर्ज किया गया? हां पंजाब पुलिस की अवैधानिक निरोध की कार्रवाई की स्थिति में सक्षम न्यायालय में उनके विरुद्ध आवश्यक कार्यवाही अवश्य की जा सकती है। परंतु दिल्ली पुलिस को बगैर किसी न्यायालीन आदेश के पंजाब, पुलिस की आपराधिक के तारतम् में की गई कार्यवाही भी प्रांरभ से ही शून्य के बावजूद भी उसमें हस्तक्षेप करने का कोई कानूनी अधिकार कदापि नहीं था। 
दिल्ली पुलिस की सूचना पर हरियाणा पुलिस ने ‘‘मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त’’ की तर्ज पर उसी तत्परता से दिल्ली पुलिस जो केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है, के अनुरोध/आदेश पर कार्रवाई करते हुए बग्गा को पंजाब पुलिस की हिरासत से कुरुक्षेत्र में छुड़ाकर दिल्ली पुलिस को (हिरासत में नहीं) सौप कर उसकी गैरकानूनी रूप से छीनी गई व्यक्तिगत स्वतंत्रता को वापस प्रदान कर दिया। इस प्रकार एक बार पुनः कुरुक्षेत्र की महाभारत की लड़ाई की याद ताजा हो गई। ‘‘एक ही परिवार के कौरव पांडव’’ के बीच महाभारत की कुरुक्षेत्र की लड़ाई में तो धर्म की जीत हुई। परंतु यहां पर एक ही वर्ग दो पुलिस थानों के बीच अधिकारों  साथ राजनैतिक वर्चस्व की लड़ाई में कानूनी रूप से कौन जीतेगा, इसका अंतिम निराकरण तो अभी न्यायालय द्वारा होना शेष है। 
क्या आप केन्द्रीय गृह मंत्रालय को बधाई नहीं देना चाहेगे? 75 वें स्वाधीनता वर्ष में किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता, यदि एक पुलिस बल के हत्थे अवैधानिक चढ़ जाए और केंद्रीय गृह मंत्रालय बचा नहीं पाए तो अमृत महोत्सव मनाने का फायदा क्या? और यदि ऐसी त्वरित कार्रवाई नहीं होती तो, क्या अमृत महोत्सव मनाने का उद्देश्य सफल कहलाता? इसलिए केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन दिल्ली पुलिस को तुरंत-फुरंत कार्यवाही करनी पड़ी। एक महत्वपूर्ण प्रश्न यहां उत्पन्न होता है, हरियाणा पुलिस ने अपहरणकर्ता से अपहृत व्यक्ति की बरामदी के बाद अपहरणकर्ताओं को गिरफ्तार कर कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की? यदि हरियाणा पुलिस ने अपहरणकर्ता को गिरफ्तार नहीं किया तो, दिल्ली पुलिस ने उन अपहरणकर्ताओं के पीछे जाकर उन्हें गिरफ्तार करने का प्रयास क्यों नहीं किया? इसके जवाब में ही दिल्ली व हरियाणा पुलिस की बेगुनाही (यदि है?) छुपी हुई है। चोरी का माल बरामद होने पर चोर को भी तो गिरफ्तार किया जाता है। मतलब साफ है, अपहरण की धारा का सहारा लेकर दिल्ली व हरियाणा पुलिस ने जिस तरह से पंजाब पुलिस की कस्टडी से गिरफ्तार आरोपी को छुड़ाया, वह दिल्ली पुलिस की अपनी कार्यवाही को कानूनी रूप देने का बेशर्मी पूर्वक असफल प्रयास मात्र है, लेकिन ‘‘सूरदास खल कारी कमरी, चढ़े न दूजो रंग’’ तो क्या किया जा सकता है?
दिल्ली पुलिस की इस कार्य पद्धति ने देश की स्वाधीनता के 75 वर्ष में न्यायालय के अतिरिक्त एक नया न्याय तंत्र स्थापित किया है। जहां पुलिस द्वारा स्वयंमेव ही न्यायिक अधिकार अपने में आत्मसात कर त्वरित न्याय दिला देना। एक राज्य की पुलिस द्वारा तथाकथित अवैध रूप से गिरफ्तार व्यक्ति को दूसरे राज्य की पुलिस गिरफ्तारी को अवैध मानकर पुलिस बल की कस्टडी से छुड़ाकर कर मामले को समाप्त कर सकती है, यह नई न्यायिक पद्धति व प्रणाली है। इसे तो ‘‘अंधों का हाथी’’ कहना ज्यादा उचित होगा। वैसे आपको इस तथ्य से अवगत करा दूं कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 48 के अनुसार प्राइवेट व्यक्ति, एक नागरिक को भी किसी अन्य व्यक्ति को कुछ परिस्थितियों में हिरासत में रखने का अधिकार है। शायद यह अधिकार जो पुलिस के अधिकार क्षेत्र में एक हस्तक्षेप के समान है, के प्रतिकार में तो पुलिस ने स्वयं-मेव यह न्यायिक अधिकार प्राप्त तो नहीं कर लिया है? निश्चित रूप से न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया में कई बार समय लगता है। इससे कई बार न्याय पाने का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। परंतु इस तरह की पुलिस की अन्याय के खिलाफ न्याय दिलाने की तुरंत प्रक्रिया का संदेश निश्चित रूप से न केवल जनता के बीच बल्कि अन्य पुलिस प्रशासन के बीच भी जाएगा? अभी तक तो पुलिस की भूमिका जांच के द्वारा न्याय दिलवाने की (देने की नहीं) रही है। परंतु अब वह स्वयं न्यायिक पुलिस अधिकारी भी बन गई है, यह उक्त घटना की एक बड़ी उपलब्धि नहीं क्या है?
अंत में जैसे लोहा लोहे को काटता है, हीरा (डायमंड) हीरे को काटता है, उसी प्रकार दो (-) क्या प्लस (+) हो जाएगा? नहीं! न्यायालीन प्रक्रिया में तो कम से कम ऐसा नहीं चलता है। स्पष्ट है, इस बात का दुख होता है कि राजनेताओं के शह पर ‘‘पुलिस तंत्र’’ को अपनी राजनीति का तंत्र बनाने वाले वे सत्ता नायक ही कसूरवार है, जिनके 'मजबूत कंधों' पर इस प्रवृत्ति को विराम लगाने की जिम्मेदारी है। और जनता? वह तो हमेशा के समान ‘‘निरीह’’ है।