लिंगम चिरंजीव राव

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के लिए मेरा एक प्रयास.।

 आज की नारी - सब पर भारी 

(समस्याएं और निदान !)
भले समय की रफ्तार के साथ हम सभी  हमारी सांस्कृतिक धरोहरों को संजोकर रखने मे जिस तरह हमारा समाज ,हमारा देश प्रयत्नशील तो है, लेकिन इतना बेबस क्यों..? क्या पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण के कारण हो रहे परिणामों से डरने लगा है। इस तरह हमारा समाज दिन प्रतिदिन अग्रसर हो रही नारी को नारी होने का सम्मान सामाजिक चेतना के लिए एक ज्वलंत प्रश्न तो है? आज विश्व स्तर पर जिस तरह नारी ने अपनी स्थिति को सुधारकर अपने वर्चस्व के झंडे फहराते आ रही है, पर ऊत्तर ढूंढता हमारा यह समाज अभी भी उसकी प्रतिष्ठा को उसकी उपलब्धियों से आंकने मे आनाकानी करने से नहीं हिचकिचाता।शायद यही पुरूषवादी वर्चस्वता के परिणाम लगते है ,जो नारी को केवल अपने जरूरत के अनुकूल रचता-गढता आ रहा है, साथ ही स्त्री को अधिक से अधिक पुनरूत्पादन के साधन की तरह इस्तेमाल करते हुए शताब्दियों से छलता आ रहा है ।  
वर्तमान समय में जब भी महिलाओं के बारे में कुछ लिखना या कहने की बात होती ही तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक इशारा पुरूष सतात्मक समाज के लंबे समय से चले आ रहे अत्याचारों की ओर ही होता है और यह विगत कई शताब्दियों से हमारे इर्द-गिर्द चली आ रही हलचलों के ही परिणाम है। आज वर्तमान मे और इससे पहले की पीढी की महिलाओं ने जो कुछ भी अनुभव किया ,सहा, भोगा और उन्हें परिस्थितिवश स्वीकार भी करना पडा इसके बावजूद फिर जीने के रास्ते बनाए । हमारे पास जो इतिहास है और उसमें जो बाते सामने है प्रायः सभी ने महिलाओं की समस्याओं को अधिक बताया और उनके बारे मे तो बहुत जानकारी हमें मिलती है परंतु इनकी आजादी, समानता, अत्याचारों के ? विरूघ्द संधर्ष करती महिलाओं पर लेखनी कहीं पर इस प्रतिबध्ता के साथ व उस स्तर पर आज भी नहीं मिलती जिसके कारण हम यह कह सके की हमारे प्रयास इस दिशा में और अधिक सार्थक होने चाहिए । सभ्य समाज की स्थिति उस समय में स्त्रियों की दशा देखकर ज्ञात की जा सकती है । स्त्रियों की दिशा-दशा समाज मे  समय-समय पर देशकाल के अनुसार बदलती देखी गई थी, वौदिक संस्कृति मे स्त्रियों को उच्च स्थान के साथ संपूर्ण आजादी थी।स्त्रियों को धार्मिक कार्यों मे पुरूषों के समान अधिकार थे और शास्त्रार्थ मे भी भाग लिये जाने की अनुमति भी रहती थी और ऐसे उदाहरण भी हमारे पास है ।इसी तरह स्थिति मे गिरावट का दौर मध्यकाल मे सर्वाधिक रहा फिर सुधार के दौर मे अंग्रेजी शासन के साथ कुछ जुडने लगे पर उसके आंकडें भी बहुत उच्चस्तरीय कभी भी नहीं रहे।
जितने सुधार की आवश्यकता थी उतने की संभावना नहीं दिखती है अपवाद तो मिलते है पर उनसे इतिहास नहीं बनते।
हम अगर आजादी के बाद के दशको का विभाजन करते हुए आगे भढने का प्रयास करें तो मेरे विचार से उसकी स्थिति कुछ इस तरह की लगती हैः-
50 व 60 का दशक संविधान के प्रावधानों में सुधार के साथ शिक्षा के प्रति कुछ जागरूकता के आरंभ के प्रयास वाला दशक कहा जा सकता है नारी के उन्नति के आधार के दशक ।
70 का दशक महिला कल्याण से जुडा हुआ दशक कहा जा सकता है।
80 का दशक यह दशक महिलाओं के विकास के प्रति जागरूकता का कहा जा सकता है।
90 के दशक को महिला सशक्तिकरण के आरंभ का दशक कहा जा सकता है।
(वर्ष-1975 अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और वर्ष-2001 महिला सश्क्तिकरण वर्ष)
1857 से लेकर 1977 तक के संधर्ष के आधार पर (8 मार्च को महिला दिवस)के रूप में मिलने का महिलाओं के अदम्य संधर्षमय साहस का परिणाम जिसने अपनी पहचान व अपने अस्तित्व का परिचय विश्व को जतलाने का दिवस जिस पर महिलाओं को गर्व है ।  
इसी क्रम मे 21 वी शताब्दी के एक चौथाई वर्षों को हम देखे तो इन वर्षों मे मिला-जुले वर्ष/ दशक है जिसमें महिलाओं की हर क्षेत्र मे उपलब्धियों के परचम के साथ न केवल भारत में वरन विश्व स्तर पर हमारी महिलाओं का वर्चस्व के सहारे महिला शक्ति का जो परिचय हमें हर क्षेत्र मे मिला हमें इस पर गर्व करते हुए इनके राष्ट्र के प्रति, परिवार व समाज के प्रति अपने दायित्व के साथ आगे बढने के हर प्रयास अत्यंत ही सराहनीय है ।केवल कुछ अपवादों को छोडकर ।   
भारतीय परिपेक्ष्य में नारीवादी चिंतन मूलतःउन्नीसवीं व बीसवीं सदी के मध्यकाल व उत्तरार्ध  से चलकर इस सदी के अंत तक जारी रहा और इस दौरान ही नारी के अधिकारों, सम्मानजनक जीवन यापन ,सामाजिक विकास में समान भागीदारी आदि दृष्टिकोण अभिप्रेरित रहा जिसमें न महान लोगों का जो प्रयास है इसे कभी भी नहीं भूला जा सकता राजाराममोहन राय, केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद्र विध्यासागर ने सती प्रथा ,बाल-विवाह, विधवा-विवाह और बहुपत्नी प्रथा के विरूध्द किये संधर्षों को हम नहीं भूल सकते ।लार्ड विलयम बेंटिक 1829 मे सती प्रथा पर रोक लगाते हुए इसे गैरकानूनी धोषित किया .स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्त्री शिक्षा पर जोर दिया ।इसी क्रम में स्त्रियों की स्वतंत्रता एंव समानअधिकार के लिए रमाबाई(1883 में पितृसता का विरोध किया था तथा विधवाओं और परित्यक्ताओं के सम्मानजनक जीवन का पक्ष लिय़ा) ,ताराबाई शिंदे(स्त्री-पुरूष के अधिकारों एंव विधवा जीवन के सम्मान के लिए संधर्ष किया) ,सावित्रीबाई फूले(ज्योतिराव फूले जी के साथ मिलकर स्त्री शिक्षा को महत्व दिया)इनके संधर्ष का दौर भी कुछ कम नहीं था । 

इन सभी बातों की चरम सीमाओं को लांध कर आज की महिलाओं के जीवन मे संधर्ष के साथ सुधार की दिशा के अवसर भी लिए लगातार देखने को आ रहे पर फिर भी इनके साथ हो रहे अत्याचारो की स्थिति में अभी भी उतना सुधार नहीं समझ आता और हर तरफ इसके प्रतिरोध भी है।परंतु पुरूषसतात्मक मानसिकता से अभी भी पुरूष बाहर नहीं आ पा रहा क्यों यह प्रश्न हमेशा इस समाज के कोतुहल का विषय ही नहीं वरन् एक अभिशाप बनता जा रहा है अखबारों के पन्नों मे ,मिडिया के समाचारों मे हर दिन एक नया अध्याय जुडता ही जा रहा है आज मेरठ ,आगरा ,कोलकता तो कल दिल्ली, मुंबई, दौर, भोपाल जैसे बडे शहरों से ऐसी खबरों का आना साथ ही शहरी जीवन के चकाचौंध मे फंसे लोगों के अपराधों का प्रतिशत लगातार बढ रहा है तो साथ गाँवों की स्थिति भी कुछ कम नहीं है।  अवरोध हमारे समाज की अनावश्यक मान्यताओं का नतीजा ही दिखाई देता है । आज हमारी पीढी के लिए एक अभिशाप बनकर उभरा और समाज के दो पहिए महिला और पुरूष को जिस समानता के अधिकार के साथ आगे बढना था वो हो न पाया जिसके कारण उनकी प्रगति मे बाधा आती गयी। जिसके कारण महिलाओं के मन में ये बात घर कर गई की हमारे जीवन के साथ हमें इन्हीं सारी बातो का रहना शायद जरूरी लगने लगा है,जिससे आज प्रतिरोध की दिशा के निर्माण के रास्ते बनते गये।
पुरूष प्रधान समाज के निर्माण की प्रक्रिया में महिला के साथ हो रहे भेद-भाव के कारण घर में परिवार में जिन कार्यों को दोनों के सहयोग से पूरे करने चाहिए उनमें बहुत से महत्वपूर्ण कार्य केवल महिला के जिम्में डालकर पुरूष केवल और केवल बाहर के कामों के लिए अपने को बनाए रखा। महिलाओं को घर का काम,बच्चों की परवरिश,परिवार के सदस्यों की देखभाल फिर इसके कारण अधिकार भी अलग होने लगे यही से महिलाओं को चारदीवारी में बंद कर दिया गया इन सारी परिस्थितियों से जूझती महिलाओं ने इस चारदीवारी पर दस्तक देना आरंभ कर दिया है ।संविधान के अनुरूप मिले अधिकारो को अब जामा पहनाने मे महिलाओं ने अपने कदम आगे बढाने आरंभ कर दिए है ।सरकार व्दारा महिलाओं के कल्याण और विकास की अनेक योजनाएँ इनकी प्रगति के लिए उपयुक्त भी हो रही है आज महिलाएँ शिक्षा, राजनीति, मीडिया, कला, संस्कृति, सेवाक्षेत्रों, विज्ञान प्रौध्योगिकी,खेलों आदि क्षेत्रों मे भागीदारी के रास्ते तलाश ही नहीं रही है वरन् उन क्षेत्रों मे राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना और अपने देश भारत को गौरवान्वित भी करते आ रही है ।आजकल इस राह पर चलते हुए उनकी चेतना में प्राचीन परंपराओं को दृढता से तोडने के प्रमाण हमारे सामने अनेको उपलब्ध है ।इन सारी स्थिति के साथ आज आर्थिक दशाओं मे परंपरा का विरोध,राजनीति मे प्रवेश,विवाह के प्रति मानसिकता मे बदलाव,इस सबसे बडकर अपने अस्तित्वबोध के प्रति सजगता ने पुरूष प्रधान समाज के चंगुल से मुक्ति की तैयारी या कामना की इच्छा शक्ति के साथ अपने स्त्रियोचित गुणों मे मातृत्व की नयी संकल्पना आज के समय की महिलाओं के लिए समानता के अधिकार के प्रति सजगता की निशानी है । 
स्त्री चिंतन के विभिन्न आयामों को समझने एंव उनकी वर्तमान दशा के विषय मे कुछ कहने से पहले हमें इसके पहले की स्थिति से आगे होते जा रहे परिवर्तनों पर भी ध्यान देना जरूरी होगा इक्कीसवी सदी की स्त्री का व्यापक क्षेत्र बीसवीं सदी की स्त्री की तुलना मे बहुत ही विस्तार लिए हुए है ।वर्तमान मे हर क्षेत्र मे इनकी दशा मे व्यापक सुधार हुए है साहित्यिक, सांस्कृतिक,राजनैतिक, आर्थिक,सामाजिक इन सभी पहलुओं पर विचार करते हुए यह पाया गया है की इनके लगातार संधर्ष की बदौलत इन्होंने जो स्थान अपनी मेहनत से अर्जित किया है वह निसंदेह इनकी क्षमताओं का बेजोड उदाहरण ही नहीं वरन् इनके विगत समय की तुलना मे आज जिस तरह की  उपलब्धियों के साथ समाज मे इन्होंने अपना स्थान बनाया है ।हम यह कह सकते है की अगर ये सब कुछ आज से पहले हो गया होता जो दुर्भाग्य से नहीं हुआ अन्यथा आज वो जिस अत्याचार का सामना वर्तमान में महिलाओं को झेलना पड रहा है शायद नहीं झेलना पडता ।     
आधुनिकता और विकास के कारण पनपती जीवन शैली मैं जटिलता के आयामों को दिशा देता बढता शहरीकरण,औधोगीकरण तथा यांत्रिकीकरण .भौतिकवादी दृष्टिकोण के कारण ..जिसके कारण मनुष्य की संवेदना का हास क्रमवार होता ही जा रहा है परिणाम व्यक्ति को एकल परिवार मे आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी बना रही है । आजकल महिलाएं किसी भी तरह पुरषों से किसी मायने मे कम नहीं है हर क्षेत्र चाहे सरकारी,गैर सरकारी हर जगह अपनी उपस्थिति के साथ आगे है इसके अलावा उच्चशिक्षित है डॉक्टर,इंजिनियर,वकील,वैज्ञानिक व अंतरिक्ष यात्री आदि के साथ सामाजिक क्षेत्र, खेलों के क्षेत्रों में, राजनीति, आर्थिक और भी सभी क्षेत्र इनसे आज अछूते नहीं रहे और इसे साबित करने मे कहीं कसर नहीं की वे पुरूषों से बेहतर भी है। संविधान के प्रावधानों मे नकी सुरक्षा के व हितों की रक्षा के 34 एक्ट मौजूद है ।पर कुछ उच्च शिक्षित महिलाओं की सोच ने जिसमें कम वस्त्र- पहनना,रोक-टोकरहित मुक्त जीवन जीना,मुक्त सेक्स की राह पर चलना ही उनके लिए वांक्षित बदलाव है ।इन बदलाव के लिए उनके पास कोई तर्कयुक्त जवाब भी नहीं है,सिवाय इसके की सदियों से चले आ रहे रहन-सहन व आचर-व्यवहार के हर नियम को बस चुनौती देना है और इसे ही सही समझना है।इस बात मे कोई संशय नहीं की महिला अपने जीवन मे घर के सिमित दायरे में रहने के लिए नहीं बनी पर नारी को यह नहीं भूलना चाहिए घर ही उनके कार्यक्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण स्थल है और वहीं इसकी सम्रागी होती है ।जिसके आधार उनके बच्चे व परिवार के अन्य सदस्य होते है बस यह घ्यान रखना जरूरी की इसे संभालते हुए अपने स्वास्थ्य , पोषण, खुशियों व अन्य सामान्य जरूरतों का घ्यान रखते हुए अपने सम्मान के प्रति भी सजगता रखनी होगी ।इस बात की भी घ्यान जरूरी की समाज की सारी की सारी रूढियाँ,नियम या परंपराएँ गलत नहीं होती है । परिस्थितियों के बदलाव के साथ हमें भी बदलते हुए, आपसी टकराव से बचने के प्रयास रखने होंगे ।इन पर हेने वाले अत्याचारो पर हर तरह से अंकुश लगाते हुए न्याय प्रक्रिया के प्रति सजगता बहुत जरूरी होगी ।
हम सभी को यह घ्यान रहे नारी कोई वस्तु या दया का पात्र नहीं उसके अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति वो सजग है ,समानता के अधिकार के प्रति समाज को भी सजग होकर हर तरह से उनके लिए हर स्तर पर हर रिश्ते के साथ सम्मानजनक व्यवहार की अपेक्षा ही इसका मूलमंत्र होगा और इस विषय मे पुरूष की सहभागिता की भी अपेक्षा का भी अत्यधिक महत्व है क्यों कि महिला के साथ हो रहे असमानता के व्यवहार में पुरूष ही ज्यादा जिम्मेदार है। 
   

प्रेषक 
लिंगम चिरंजीव राव
म.न. 11-1-21/1
कार्जी मार्ग, इच्छापुरम 
श्रीकाकुलम (आंध्रप्रदेश) पिन-532 312

मों न. 8639945892