राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)

पतन पर तेजी से जाती हुई ‘‘राजनीति’’ का ‘‘हाई वोल्टेज ड्रामा’’। अवैध गिरफ्तारी (?) से मुक्ति के लिए की गई ‘‘अवैध कार्रवाई‘‘ ’’क्या वैधानिक’’ हो जाएगी?
विषय लेख लम्बा होने से पाठकों की सुविधा की दृष्टि से इसे दो भागों में लिखा जा रहा हैंः-प्रथम भाग

   

   30 नवंबर को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के निवास के समक्ष दिल्ली युवा मोर्चा के प्रदर्शन में दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता, युवा इकाई के सचिव तेजिंदर पाल सिंह बग्गा, निवासी जनकपुरी, दिल्ली ने फिल्म ‘‘द कश्मीर फाइल्स’’ पर की गई केजरीवाल की टिप्पणी से नाराज होकर बग्गा द्वारा अरविंद केजरीवाल के प्रति की कुछ आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। इसे लेकर आप पार्टी के प्रवक्ता मोहाली निवासी सनी अहलूवालिया द्वारा तेजिंदर पाल द्वारा सोशल मीडिया पर सांप्रदायिक सौहाद्र व सद्भाव बिगाड़ने की शिकायत की गई। जिस पर मोहाली पुलिस द्वारा 3 अप्रैल (कुछ मीडिया रिपोर्ट में 1 अप्रैल बतलाया है) को एक थाना पंजाब स्टेट साइबर क्राइम में एफआईआर दर्ज की गई। दर्ज मुकदमें के सिलसिले में जांच में शामिल होकर सहयोग देने के लिए पंजाब पुलिस द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 ए के अंतर्गत 5 बार नोटिस भेजने के बावजूद बग्गा के जांच में उपस्थित न होने पर पंजाब पुलिस ने दिल्ली आकर भा.द.स. की धारा 153 ए, 505 व 506 के अंतर्गत आरोपित बग्गा को जनकपुरी स्थित स्थित, उनके निवास से गिरफ्तार कर लिया। यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत प्रकरण में पुलिस को संज्ञेय अपराधों में बिना वारंट के अपराधी को गिरफ्तार करने का कानूनी अधिकार है।
    इस पर जिस तरह ‘‘ढाई हाथ की ककड़ी और नो हाथ के बीज’’ समान राजनैतिक भूचाल पैदा किया गया और पुलिस तंत्र किस तरह से निरुत्साहित (पंजाब पुलिस)व अति-उत्साहित (दिल्ली व हरियाणा पुलिस) होकर कानून की धज्जियां उड़ाते हुए बदनाम पुलिसिया अंदाज में कार्रवाई करके संघीय ढांचे पर हथौड़े चलाकर तार-तार करते रहे, वह देश व राजनीति के लिए अत्यंत ही शर्मसार है। हद तो तब और हो जाती है जब बेशर्म होकर राजनीतिज्ञगण बेशर्मी से आरोप-प्रत्यारोप लगाकर सिर्फ उसी राजनीति को चमकाने में लग जाते हैं, जो उनके कार्यकलापों से शर्मसार हुई जा रही है। क्या आजकल देश को हाई वोल्टेज ड्रामा की ओर तो ले जाने का प्रयास तो नहीं किया जा रहा है? जैसे उपरोक्त पुलिसिया के हाई वोल्टेज ड्रामे के साथ वर्तमान में बुलडोजर का भी हाई वोल्टेज ड्रामा, बेरोजगारों की विभिन्न क्षेत्रों में भर्ती न निकालने का, उच्चतम महंगाई को शांतिपूर्ण सहने का भी हाई वोल्टेज ड्रामा देश में चल रहा है? जिनके पीछे राजनीतिक दलों का ही तो हाथ हैं?
    उक्त पूरी घटनाक्रम देश के स्वतंत्र भारत के इतिहास की अभी तक की इस तरह की एकमात्र अनोखी घटना होकर 75 वें स्वतंत्रता वर्ष के लिए ‘‘न भूतो न भविष्यति’’ एक कलंक होकर सिर झुकाने के लिए मजबूर करने के साथ गंभीर चिंतन के लिए विवश कर देती है।  किसी अपराध व तदनुसार अपराधी से निपटने के लिए अभी तक की अपने तरह की यह प्रथम बिल्कुल ही असामान्य व अस्वाभाविक पुलिसिया प्रक्रिया से कई गंभीर व अनुतरित प्रश्न उत्पन्न होते हैं। यह घटना इस बात को भी सिद्ध करती है कि हमारे देश के गणतंत्र व संघीय ढांचे में अभी भी आधारभूत मूल कमियां हैं, जो मात्र एक व्यक्ति की गिरफ्तारी पर उजागर हो जाती है। इस पूरी घटना ने प्रारंभिक अवस्था में न्यायालय को तो लगभग एक तरफ दरकिनार ही कर दिया। दिल्ली पुलिस जो केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है और हरियाणा पुलिस दोनों मिलकर पंजाब पुलिस पर बुरी (पूरी) तरह से हावी हो गए। परिणाम स्वरूप दिल्ली पुलिस पंजाब पुलिस से एक आरोपी को ठीक उसी प्रकार से छुड़ा कर ले आती है, जिस प्रकार किसी जमाने में ‘‘एक बंधक को माधोसिंह गैंग के कब्जे से मोहर सिंह गैंग अधिक बल के आधार पर छुड़ाकर ले आता रहा होगा’’। मानो दिल्ली पुलिस यह दर्शना चाह रही होगी कि ‘‘बाज के बच्चे मुंडेरो पर नहीं उड़ा करते’’। कानून के राज की बात तो कोई कर ही नहीं रहा है, तो पालन करना तो दूर की बात हो गई।   
    सर्वप्रथम आरोपी तेजिंदर पाल सिंह बग्गा के खिलाफ मोहाली पुलिस द्वारा दर्ज की गई ‘‘प्रथम सूचना पत्र’’ जिसे कानून में कहीं परिभाषित नहीं किया गया है, को ही ले ले। दर्ज एफआईआर गलत है या सही, इसे निरस्त (नस्ति) करने का अधिकार क्षेत्राधिकार प्राप्त न्यायालय को ही है। किसी थाने या राजनेताओं को नहीं। हां अवश्य जांच के दौरान पर्याप्त आवश्यक साक्ष्य न मिलने पर जांच अधिकारी प्रकरण को समाप्त करने के लिए क्लोजर रिपोर्ट (प्रकरण बंद करना) संबंधित मजिस्ट्रेट के पास भेज सकता है। तब भी जांच अधिकारी अपने स्तर पर प्रकरण नस्ती नहीं कर सकता है। यही कानूनी स्थिति है। 
    यहां पर न तो जांच अधिकारी ने ऐसा किया और न ही आरोपी को निचली अदालते तथा पंजाब उच्च न्यायालय से इस संबंध में कोई अंतरिम सहायता मिली। जहां तक पंजाब पुलिस के उक्त कार्रवाई करने के आशय या राजनीतिक दबाव के चलते दुरूराशय का प्रश्न है, जैसा कि आरोपी व उसका परिवार लगातार लगा रहे हैं और अब तो यह भाजपा-आप के बीच यह एक राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के युद्ध में परिवर्तित हो गया है। पंजाब पुलिस की सदृशयता का अंतिम निराकरण तो न्यायालय के द्वारा ही निर्णीत होगा और तब तक पंजाब पुलिस को न्यायालीन आदेश के बिना आगे कार्रवाई करने से रोका नहीं जा सकता था। तब तक तत्समय  ऐसा कोई आदेश नहीं था।
    मतलब राजनैतिक उद्देश्य व विद्वेष को लेकर (यदि ऐसा मान भी लिया जाए तो भी) दर्ज की गई एफआईआर पर मोहाली पुलिस द्वारा की गई कार्यवाही प्रथम दृष्टया दंड प्रक्रिया संहिता व भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अधिकार क्षेत्र में व वैध थी, तथापि वह देखने की न्यायालय की नजर में नहीं बल्कि दिल्ली और हरियाणा पुलिस के लिए। आरोपी को जांच में शामिल होकर सहयोग देने के लिए पंजाब पुलिस द्वारा 5 बार नोटिस दिए जाने के बावजूद ‘‘अपने खोल में मस्त रहने वाला’’ बग्गा उपस्थित नहीं हुआ। जहां तक अंर्तप्रातींय पुलिस कार्यवाही के लिए अभियुक्त को एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाने के लिए नियमों की बात है, द.प्र.स. की अध्याय v(5)की धारा 41 से 60 में आवश्यक सक्षम प्रावधान दिए गए हैं।
    सामान्यतया एक राज्य की पुलिस को दूसरे राज्य में जाकर अभियुक्त को गिरफ्तार करने के लिए सामान्य प्रक्रिया के तहत उस राज्य की स्थानीय पुलिस को (प्रशासनिक, सुरक्षा व कानून व्यवस्था की दृष्टि से) सूचित करना आवश्यक होता है। परंतु यदि दूसरे राज्य की पुलिस को स्थानीय पुलिस पर विश्वास न हो तो, वह बिना सूचना के भी सीधे आरोपी को गिरफ्तार कर सकती है, ताकि स्थानीय पुलिस द्वारा आरोपी को सूचना देने की आशंका की स्थिति में उसके फरार होने की संभावना न हो। जिसकी संभावना प्रस्तुत मामले में पूरी तरह से थी, जो बात के घटनाक्रम से सिद्ध भी होती है। यदि पुलिस गिरफ्तार आरोपी को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर धारा 57 (76 वारंट निष्पादन की दशा में) के अंतर्गत सक्षम/निकटतम न्यायालय में रिमांड हेतु प्रस्तुत कर देती है, तो दं. प्र. सं. की धारा 167 के अनुसार ट्राजिस्ट रिमांड लेने की कतई आवश्यकता नहीं है। 
    गिरफ्तार अभियुक्त को एक राज्य से दूसरे राज्य ले जाने में  यदि 30 किलोमीटर से अधिक दूरी पर जाना पड़ता है तो ट्राजिस्ट पास लेना चाहिये। ऐसा मीडिया के कुछ भाग में बताया जा रहा है। परंतु 30 किलोमीटर का ऐसा कोई प्रावधान मेरी नजर में नहीं आया। यूपी के महत्वपूर्ण बहु चर्चित विकास दुबे प्रकरण में भी अभियुक्त को उज्जैन से गिरफ्तार कर उत्तर प्रदेश बिना ट्रांजिट रिमांड के ले जाया गया था ऐसा म.प्र. पुलिस का कहना था। जबकि उल्ट इसके यूपी पुलिस ने ट्रांजिस्ट रिमांड लेने का दावा किया था। तथापि अधिकतम यह एक नियम है, कानून नहीं। अर्थात् यह एक अनियमितता (इररेगुलारिटी) हो सकती है, लेकिन गैरकानूनी अवैध (इलेगलिटी) नहीं और अनियमितता के लिये पुलिस के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही अवश्य की जा सकती है। परंतु गैरकानूनी होने पर अभियुक्त को मुक्ति का अधिकार मिल जाता है। दोनों में अंतर को समझना होगा।
    अतः जब तक एफआईआर दर्ज है और वह सक्षम न्यायालय द्वारा निरस्त नहीं की गई है, तब तक मोहाली पुलिस को अभियुक्त को गिरफ्तार करने का वैधानिक अधिकार था। जहां तक 7 साल से कम सजा वाले मामलों में गिरफ्तारी न करने के उच्चतम न्यायालय के निर्देश की बात की जा रही है, उसमें भी कुछ परिस्थितियों में ही गिरफ्तारी न करने के निर्देश है। वैसे हम जानते हैं कितने मामलों में उच्चतम न्यायालय के निर्देशों का पालन होता है। उच्चतम न्यायालय के निर्देश तो ‘‘अरहर की टटिया में अलीगढ़ी ताले’’ के समान होकर रह गए हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे कि अपराधी को हथकड़ी पहनाकर कोर्ट के अनुमति के बिना पुलिस को अधिकार न होने के उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बावजूद दैनंदिन पुलिस द्वारा बेशर्मी के साथ अपराधियों को हथकड़ी पहना कर न्यायालय की ठीक नाक के नीचे प्रस्तुत किया जाता है। गिरफ्तारी के समय व उसके बाद उच्चतम न्यायालय के लम्बे चौड़े निर्देश का आज भी कितना पालन होता है यह हमसे छुपा नहीं है। वास्तविकता में तो जैसे अधिकार कानूनी किताबों पर है धरातल पर नहीं। उच्चतम न्यायालय के निर्देश भी लगभग वही स्थिति है। 
शेष अगले अंक में......