गणेश शंकर विद्यार्थी जन्म 26-10-1890 -जयंती 26-10-2025
गणेश शंकर विद्यार्थी जन्म 26-10-1890 - जयंती 26-10-2025
‘’’सांप्रदायिक सौहार्द्र की वेदी पर शहीद हो गया ।‘’ शहीदों के सरपरस्त, क्रांतिकारियों के मसीहा, स्वतंत्रता के योध्दा, प्रखर पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी गणेश शंकर विद्यार्थी जी का जन्म 26-10-1890 मे प्रयाग के अतरसुआ मोहल्ले में पिता जयनारायण था पिता ग्वालियर रियासत में अध्यापक थे व माता गोमती एक गृहणी थी के घर हुआ था । शिक्षा-दीक्षा मुंगावली, ग्वालियर में हुई थी उन्होंने अपनी पढ़ाई के दौरान हिंदी के साथ उर्दू और फारसी का भी अध्ययन किया ।मैट्रीक पास करने से पहले ही वे लेख लिखने लगे थे । गणेश शंकर विद्यार्थी के पिता की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी । दसवीं तक ही शिक्षा हो सकी, परंतु स्वतंत्र अध्ययन चलता रहा। अखबार से उनका पहला संपर्क ‘’भारत मित्र’’ के माध्यम से हुआ ।इलाहाबाद की कायस्थ पाठशाला से उन्होने इंटरमीडिएट किया. वहीं से प्रकाशित होने वाले ‘’ स्वराज्य’’ में उन्होंने उर्दू में लेखन किया और फिर सुंदरलाल जी की प्रेरणा से ‘’कर्मवीर’’ में हिंदी लेखन करने लगे ।गणेश शंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार, समाजसेवी और स्वतंत्रता सेनानी थे। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में उनका नाम अजर-अमर है। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी लेखनी की ताकत से भारत में अंग्रेज़ी शासन की नींद उड़ा दी थी। इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसावादी विचारों और क्रांतिकारियों को समान रूप से समर्थन और सहयोग दिया। अपने छोटे जीवन-काल में उन्होंने उत्पीड़न क्रूर व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाई। उन्होंने उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ में हमेशा आवाज़ बुलंद किया – चाहे वो नौकरशाह, जमींदार, पूंजीपति या उच्च जाति का कोई इंसान हो।
गणेश शंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार, समाज-सेवी और स्वतंत्रता सेनानी थे। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में उनका नाम अजर-अमर है। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी लेखनी की ताकत से भारत में अंग्रेज़ी शासन की नींद उड़ा दी थी। इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसावादी विचारों और क्रांतिकारियों को समान रूप से समर्थन और सहयोग दिया। अपने छोटे जीवन-काल में उन्होंने उत्पीड़न क्रूर व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाई। उन्होंने उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ में हमेशा आवाज़ बुलंद किया – चाहे वो नौकरशाह, जमींदार, पूंजीपति या उच्च जाति का कोई इंसान हो। उनके जीवन का एक बेबाक पत्रकारिता का प्रसंग सत्य के लिए संघर्ष ग्वालियर नरेश की तानाशाही के खिलाफ दैनिक प्रताप में गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने छाप दिया .महाराजा के बुलावे पर ग्वालियर गये वहाँ ग्वालियर नरेश के व्यंग्य-वचन कहते हुए अपनी कुर्सी खाली करते हुए कहा..’’मैं... अपना स्थान आपके लिए खाली करता हूँ’’’ ।इस विषय पर गणेश शंकर जी ने कहा ‘’’अखबार में सच्ची खबरें छपती है ।‘’’ “पराई भाषा चरित्र की दृढ़ता का अपहरण कर लेती है, मौलिकता का विनाश कर देती है और नकल करने का स्वभाव बनाकर उत्कृष्ट गुणों और प्रतिभा से नमस्कार करा देती है। इसलिए जो देश दुर्भाग्य से पराधीन हो जाते है, वे उस समय तक, जब तक कि वे अपना सब कुच नहीं खो देते है, अपनी भाषा की रक्षा के लिए सदा लोहा लेते रहना अपना कर्तव्य समझते है। अनेक युरोपीय देशों के इतिहास भाषा-संग्राम की घटनाओं से भरे पड़े है। प्राचीन रोम साम्राज्यों से लेकर अब तक के रूस, जर्मन, इटालियन, फ्रांस, आस्ट्रियन और ब्रिटिश सभी साम्राज्यों ने अपने अधीन देशों की भाषा पर अपनी विजय वैजयंती फहराई। भाषा समर-स्थली के एक-एक इंच स्थान के लिए बड़ी-बड़ी लड़ाइयां हुई। देश की स्वाधीनता के लिए मर मिटने वाले अनेक वीर-पुंगवों के समयों मे इस विचार का स्थान सदा ऊँचा रहा है कि देश की भौगोलिक सीमा की अधिक आवश्यकता है। वे अनुभव करते थे कि भाषा बची रहेगी तो देश का अस्तित्व और उसकी आत्मा बची रहेगी। यदि मेरे सामने एक ओर देस की स्वाधीनता रखी जाए और दूसरी ओर मातृभाषा और मुझे पूछा जाए कि इन दोनों में एक कौन-सी लोगे, तो एक क्षण के विलंब विना मैं मातृभाषा को ले लुंगा, क्योंकि इसके बल से, देश की स्वाधीनता भी प्राप्त कर लूंगा। “
आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण लगभग एक वर्ष तक अध्ययन के बाद सन 1908 में उन्होंने कानपुर के करेंसी ऑफिस में 30 रु. महीने की नौकरी की पर एक अंग्रेज अधिकारी से कहा-सुनी हो जाने के कारण नौकरी छोड़ कानपुर के पृथ्वीनाथ हाई स्कूल में सन 1910 तक अध्यापन का कार्य किया। इसी दौरान उन्होंने सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य (उर्दू) तथा हित वार्ता जैसे प्रकाशनों में लेख लिखे।
गणेश शंकर विद्यार्थी का मन पत्रकारिता और सामाजिक कार्यों में रमता था इसलिए वे अपने जीवन के आरम्भ में ही स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़े। जल्द ही वे ‘कर्मयोगी’ और ‘स्वराज्य’ जैसे क्रन्तिकारी पत्रों से जुड़े और इनमें अपने लेख भी लिखे। उन्होंने ‘विद्यार्थी’ उपनाम अपनाया और इसी नाम से लिखने लगे। कुछ समय बाद उन्होंने हिंदी पत्रकारिता जगत के महान पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया उन्होंने विद्यार्थी को सन 1911 में अपनी साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में उप-संपादक के पद पर कार्य करने का प्रस्ताव दिया । उनका पहला लेख सरस्वती में छपा जिससे उन्हें महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का सानिध्य मिला और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आए। सरस्वती में रहते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रुझान बढ़ाया। पर विद्यार्थी की रूचि समसामयिकी और राजनीति में ज्यादा थी इसलिए उन्होंने हिंदी साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ में नौकरी कर ली जिसको इस समय महामना मदन मोहन मालवीय के संरक्षण में था। अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग, मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर अंततः सन 1913 में विद्यार्थी कानपुर वापस लौट गए और एक क्रांतिकारी पत्रकार और स्वाधीनता कर्मी के तौर पर अपना करियर प्रारंभ किया। उन्होंने क्रन्तिकारी पत्रिका ‘प्रताप’ की स्थापना की और उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद किया। इस समाचारपत्र के प्रथम अंक में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि हम राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक-आर्थिक क्रांति, जातीय-गौरव, साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत के लिए संधर्ष करेंगे। प्रताप के माध्यम से उन्होंने पीड़ित किसानों, मिल मजदूरों और दबे-कुचले गरीबों के दुखों को उजागर किया। अपने क्रांतिकारी पत्रिकारिता के कारण उन्हें बहुत कष्ट झेलने पड़े – सरकार ने उनपर कई मुक़दमे किये, भारी जुर्माना लगाया और कई बार गिरफ्तार कर जेल भी भेजा। इस समाचार पत्र के पहले ही अंक में यह सिद्धांत सूचक पंक्तियाँ- ‘’प्रताप’’ में छपने लगी और जब तक प्रताप निकला, यह पंक्तियाँ उस पर बराबर छपती रहीं-
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है
वह नर नहीं, नर पशु निरा है और मृतक समान है ।।
विद्यार्थी जी के श्रमसाध्य परिश्रम से इस समाचार पत्र को जनता का अपना समाचार पत्र बन दिया। उसकी संपादकीय टिप्पणियाँ और लेख गरीबों, दीन-दुखियों और मजदूर-किसानों की वकालत करते थे। जिस कारण सरकार व धनवान लोगों की आँखों की किरकिरी बन गए , परिणाम प्रथम पाँच साल में ही दो बार जमानत जब्त ,घर व प्रेस की तलाशी हुई। 26 अक्टूबर 1916 को ‘’कुली प्रथा’’ नाटक छापने के कारण , प्रेस को एक हजार का जुर्माना फिर दूसरी बार 22 अपैल 1918 के ‘’फिदा ए वतन’’ शीर्षक कविता के लिए एक हजार की जमानत मांगी गई , जमानत जब्त होने के कारण समाचार पत्र बंद हो गया पुनः 1918 की जुलाई को प्रकाशित हुआ तेवर वही रहे। लंबी यात्रा के नेक पड़ाव पार करते हुए इस समाचार पत्र के माध्यम से स्वाधीनता की अलख जगाने का कार्य व जागरूक करने में सफल रहे। इस समाचार पत्र के माध्यम से उनकी लेखनी को जो विस्तार मिला और समाज के लोगों को जो न्याय मिला वह हमेशा याद रहेगा। उनके विविध लेखन आयामः- निबंध- कर्मवीर महाराणा प्रताप, देवी जोन, महर्षी दादा भाई नौरोजी, महात्मा प्रिंस क्रोपाटकिन, लेनिन, कर्मवीर गांधी, लोकमान्य तिलक विजय, वज्रपात(देशबंधु दास), स्वर्गीय महात्मा गोखले, राष्ट्रीयता, लक्ष्य से दूर, धर्म की आड़, अरण्य रोदन, हमारी विश्रृंखलता, अदालत के सामने लिखित बयान, ‘अभ्युदय’ पर विपत्ति, ‘प्रताप’की नीति, अनुपात की महिमा, आत्मोत्सर्ग, आर्थिक प्रश्न संपत्ति वाद का विकास, उन्हें न भूलना, ऊँचे पहाड़ो के आँचल में, कुलि-प्रथाःशैतान बपतिस्मा ले रहा है, कार्यक्षेत्र में पदार्पण(प्रभा का प्रथम संपादकीय), चलिये गाँव की ओर, जातीय होली, जिहाद की जरूरत, जोश में न आइये, देश की उन आत्माओं से, दीपमाला, नवयुग का संदेश, पत्रकार-कला(पुस्तक की भूमिका),प्रतीक्षा और प्रार्थना, भाषा और साहित्य, मैक्सिम गोर्की स्वाधीनता का रूसी उपासक, माँ के आँचल में , मानव-स्वत्व, मौलाना हसरत मोहानी,युधोतर विश्व आगामी महाभारत, युवकों का विद्रोह, राष्ट्र का निर्माण, राष्ट्र की आशा, राष्ट्र की नींव,राष्ट्रीय शिक्षा-1 और 2, लोक-सेवा, वे दीवाने, विक्टर हय्गूगो, शिक्षा का प्रथम-1 और 2, सुगमता की माया , संपादकाचार्य सुब्रहमण्यम अय्यर, संमुद्र-मंथन, स्वर्गीय श्रीयुत लक्ष्मीशंकर अवस्थी, स्वर्गीय राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ , स्वराज्य की आकांक्षा, हमारे जातीय जीवन के दोष, हमारे वे मतवाले निर्वासित वीर, हमारा सार्वजनिक जीवन, हिंदू-मुस्लिम विव्देष और भारत सरकार।
कहानियां- हाथी की फाँसी। , संस्मरण- जेल-जीवन की झलक । डायरी- जेल-डायरी ।
पत्र- अग्रज के नाम , पत्नी के नाम , बड़ी पुत्री के नाम, माँ के नाम।
इनके सभी लेखन को ‘सुरेश सलील’ जी ने दो खंण्डों में रचनावली के रूप में किया है।
गणेश शंकर विद्यार्थी रचनावली-खंड-1
गणेश शंकर विद्यार्थी रचनावली-खंड-2
इस तरह के लेखन से समाहित प्रखर पत्रकार विद्यार्थी जी ने अखबार के दुर्दिनों से संघर्ष के लिए एक पाँच सदस्यों की समिति बनाई जिसमें राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त आदि शामिल थे। पंजीयन 15 मार्च 1919 को कानपुर में हुआ। अनेक आंदोलनों में भाग लेकर सफलता का परचम लहराया और प्रताप समाचार पत्र की मांग बढ़ी और उसका प्रकाशन भी दैनिक होने लगा । सन 1916 में महात्मा गाँधी से उनकी पहली मुलाकात हुई जिसके बाद उन्होंने अपने आप को पूर्णतया स्वाधीनता आन्दोलन में समर्पित कर दिया। उन्होंने सन 1917-18 में ‘होम रूल’ आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभाई और कानपुर में कपड़ा मिल मजदूरों की पहली हड़ताल का नेतृत्व किया। सन 1920 में उन्होंने प्रताप का दैनिक संस्करण आरम्भ किया और उसी साल उन्हें राय बरेली के किसानों के हितों की लड़ाई करने के लिए 2 साल की कठोर कारावास की सजा हुई। सन 1922 में विद्यार्थी जेल से रिहा हुए पर सरकार ने उन्हें भड़काऊ भाषण देने के आरोप में फिर गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। पत्रकारिता और स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में विद्यार्थी जी को पाँच बार कारावास का दंड भुगतना पड़ा। फिरंगी हुकूमत गोया बहाना ही ढूंढ़ती रहती थी कि मौका मिले और कलम के इस जांबाज योध्दा को जेल में डाले! गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ ने देशी रियासतों में प्रजा पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ जमकर लोहा लिया और ऐसे अनेक आंदोलन चलाए, जिसके कारण उन्हें न्याय मिला। इंदौर, ग्वालियर,उदयपुर, जोधपुर आदि अनेक रियासतों में ‘’प्रताप’’ के प्रवेश पर ही रोक लगा दी गई थी, लेकिन विद्यार्थी जी न तो इन प्रतिबंधों के सामने झुके और ना ही राजाओं-सामंतों के प्रलोभन उन्हें अपने मार्ग से डिगा पाए। फिर एक बार जेल व सन 1924 में उन्हें रिहा कर दिया गया पर उनके स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया था फिर भी वे जी-जान से कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन (1925) की तैयारी में जुट गए। सन 1925 में कांग्रेस के राज्य विधान सभा चुनावों में भाग लेने के फैसले के बाद गणेश शंकर विद्यार्थी कानपुर से यू.पी. विधानसभा के लिए चुने गए और सन 1929 में त्यागपत्र दे दिया जब कांग्रेस ने विधान सभाओं को छोड़ने का फैसला लिया। सन 1929 में ही उन्हें यू.पी. कांग्रेस समिति का अध्यक्ष चुना गया और यू.पी. में सत्याग्रह आन्दोलन के नेतृत्व की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी। सन 1930 में उन्हें गिरफ्तार कर एक बार फिर जेल भेज दिया गया जिसके बाद उनकी रिहाई गांधी-इरविन पैक्ट के बाद 9 मार्च 1931 को हुई। उनके जीवनकाल मे सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले महान क्रांतिकारी भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, रोशन सिंह ठाकुर, रामकृष्ण खत्री आदि सभी के लिए आजीविका के साधन जुटाकर उनके सक्रिय सहायता किया करते थे। उनके परिवार को यथासंभव आर्थिक सहायता भी की। न्होंने चंद्रशेखर आजाद के पिता की आर्थिक सहायता विशेष रूप से की थी। भगतसिंह को उन्होंने जिले के एक मिडिल स्कूल में हेडमास्टर बनवाया तो काकोरी कांड के पश्चात अशफाक उल्लाह खान को अपने कार्यालय ‘प्रताप’ में रख लिया था । 19 दिसंबर 1927 को फांसी लगने के बाद शहीद अशफाक का मकबरा भी शाहजहांपुर में विद्यार्थी जी ने बनवाया था। इतिहास में विद्यार्थी जैसे शहीदों के सरपरस्त कम ही होंगे या मिलेगें। भारतीय स्वतंत्रता इतिहास के काले पन्नों मे 1857 का विद्रोह, 1919 का जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद देशभक्त भगत सिंह, बटुकेश्वरदत्त व सुखदेव को अंग्रेजी हुकूमत ने 23 मार्च 1931 को फाँसी देने के निर्णय ने पूरे देश में हाहाकार का माहौल हो गया इससे कानपुर शहर में 24-03-1931 को आव्हान ने साप्रदायिक दंगे का रूप ले लिया जिसके परिणाम बहुत ही भयावह रहे हिंसा का तांडव मच गया स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले व बाद में भारतवासियों ने ऐसी अनेक विभीषिकाएँ देखी है। मार्च 1931 में कानपुर में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए जिसमें हजारों लोग मारे गए। ऐसा भी कहा जाता है कि तत्कालीन शासन उस को बढ़ाने में सहायक ही नहीं प्ररक भी था। कानपुर के बंगाली मोहल्ले में लगभग 200 मुस्लिम घिरे पड़े थे. रात में कुछ मार ड़ाले गए ते। उनको बचाने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी वहाँ पहुँचे और अनेकों को बचाया परंतु पहले भी आतंकियों के बीच जाकर हजारों लोगों को बचाया पर खुद एक ऐसी ही हिंसक भीड़ में फंस गए जिसने उनकी बेरहमी से हत्या कर दी। एक ऐसा मसीहा जिसने हजारों लोगों की जाने बचायी थी खुद धार्मिक उन्माद की भेंट चढ़ गया।कानपुर के सांप्रदायिक दंगे में 25 मार्च 1931 को इनकी हत्या हो गई लाश कई लोगों की लाशों के नीचे दबी मिली पर उनका अंतिम संस्कार 29-03-1931 को हुआ ।चालीस साल की छोटी उम्र का ये सिपाही ‘’’सांप्रदायिक सौहार्द्र की वेदी पर शहीद हो गया ।‘’ महाप्रयाण—25-03-1931 । हमारा उनको नमन के साथ विनम्र श्रद्धांजलि ।
चिरंजीव(लिंगम चिरंजीव राव)
म.न.11-1-21/1, कार्जी मार्ग, इच्छापुरम
श्रीकाकुलम (आन्ध्रप्रदेश) पिन 532-312
स्वतंत्र लेखन(संकलन व लेखन)
मों न. 8639945892


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