पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी जन्म 07 जुलाई 1883 - जयंती 07 जुलाई2025

पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी जन्म 07 जुलाई 1883 - जयंती 07 जुलाई2025
कहानी “उसने कहा था” आधुनिक हिंदी की प्रथम कहानी के रचयिता । “दिलेरी जी के विषय-वैविध्य तथा भाषा एवं शैली के आधार पर निबंध साहित्य की जो सुदृढ़ नींव रखी उसी पर शुक्ल युग के उत्कर्षकाल का स्वर्ण भवन निर्मित हुआ” “”उसने कहा था”” मेरे लिए गुलेरी जी की लिखी कहानी ‘’उसने कहा था’’ कहानी से उनके जीवनी से मेरे परिचय की शुरूआत हुई, किशोर मन की अनगढ़ कहानियों का ऐसा पदार्पण कहानियाँ पढने की रूचि को जो दिशा मिली आज तक भी कहानी पढने के अवसर खोना नहीं चाहता ।
प्रश्न था ' मुझे पहचाना? जवाब मिला ' 'नही । ' '
प्रश्न था -तेर कुड़माई हो गई –जवाब था- धत्- कल हो गई –
देखते नही , रेशमी बूटोवाला शालू- अमतृसर में - भावो की टकराहट से मूर्छा खुली ।
करवट बदल । पसली का घाव बह नकला। 'वजीरा, पानी पीला' - 'उसने कहा था।' चन्द्रधर शर्मा जी का जन्म 7 जुलाई, 1883 गुलेर गाँव, कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित शिवराम शास्त्री और उनकी माता का नाम लक्ष्मीदेवी था । प्रतिभा के धनी चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने अपने अभ्यास से संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेज़ी, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं पर असाधारण अधिकार हासिल किया। उन्हें मराठी, बंगला, लैटिन, फ़्रैंच, जर्मन आदि भाषाओं की भी अच्छी जानकारी थी। साहित्य, दर्शन, भाषा विज्ञान, प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व ज्योतिष सभी विषयों के वे विद्वान् थे। इनमें से कोई ऐसा विषय नहीं था, जिस पर गुलेरी जी ने साधिकार नहीं लिखा हो। वे अपनी रचनाओं में स्थल-स्थल पर वेद, उपनिषद, सूत्र, पुराण, रामायण, महाभारत के संदर्भों का संकेत दिया करते थे। चन्द्रधर शर्मा को बचपन से ही घर में संस्कृत भाषा, वेद, पुराण आदि के अध्ययन, पूजा-पाठ, संध्या-वंदन एवं धार्मिक कर्मकाण्ड का वातावरण मिला। चन्द्रधर ने इन सभी संस्कारों और विद्याओं को पूरी तरह जीवन में शामिल किया । जब गुलेरी जी दस साल के ही थे तो उन्होने एक बार संस्कृत में भाषण देकर भारत धर्म महामंडल के विद्वानों को हैरान कर दिया था। चन्द्रधर ने अपनी सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी से पास की। प्रथम श्रेणी में पहले स्थान से पास करने के बाद वे चाहते हुए भी आगे की पढ़ाई हालातों के कारण जारी न रख पाए हालाँकि उनके स्वाध्याय और लेखन कार्य लगातार चलता रहा। चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ ने अध्ययन काल के दौरान ही उन्होंने 1900 में जयपुर में नगरी मंच की स्थापना में योगदान दिया और उन्होने 1902 से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादन का भार भी सँभाला। प्रसंगवश कुछ वर्ष काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे। जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेने वाले गुलेरी जी का राजवंशों से गहरा सम्बन्ध रहा था। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामन्त-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। 1904 ई. में गुलेरी जी मेयो कॉलेज, अजमेर में अध्यापक के रूप में कार्य करने लगे। चन्द्रधर का अध्यापक के रूप में उनका बड़ा मान-सम्मान था। अपने शिष्यों में चन्द्रधर लोकप्रिय तो थे ही, इसके साथ अनुशासन और नियमों का वे सख्ती से अनुपालन करते थे। उनकी असाधारण योग्यता से प्रभावित होकर पंडित मदनमोहन मालवीय ने उन्हें बनारस बुला भेजा और हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद दिलाया। 1916 में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। 1920 में पं. मदन मोहन मालवीय के उन्होंने बनारस आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर 1922 में प्राचीन इतिहास और धर्म से सम्बद्ध मनीन्द्र चन्द्र नन्दी पीठ के प्रोफेसर का कार्यभार भी ग्रहण किया। इस बीच परिवार में कई दुखद घटनाओं का भी सामना करना पड़ा। निबंधकार के रूप में भी चंद्रधर जी बडे प्रसिद्ध हुए हैं। इन्होंने सौ से भी ज्यादा निबंध लिखे हैं। 1903 ई. में जयपुर से जैन वैद्य के माध्यम से समालोचक पत्र प्रकाशित होना आरंभ हुआ था जिसके वे संपादक रहे। उन्होने पूरे मनोयोग से समालोचक में अपने निबंध और टिप्पणियाँ देकर जीवंत बनाए रखा। चंद्रधर के निबंध विषय अधिकतर – इतिहास, दर्शन, धर्म, मनोविज्ञान और पुरातत्त्व संबंधी ही हैं। मात्र 39 वर्ष की जीवन-अवधि को देखते हुए गुलेरी जी के लेखन का परिमाण और उनकी विषय-वस्तु तथा विधाओं का वैविध्य सचमुच विस्मयकर है। उनकी रचनाओं में कहानियाँ कथाएँ, आख्यान, ललित निबन्ध, गम्भीर विषयों पर विवेचनात्मक निबन्ध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, सम्पादकीय टिप्पणियाँ, पत्र विधा में लिखी टिप्पणियाँ, समकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, विज्ञान, कला आदि पर लेख तथा वक्तव्य, वैदिक/पौराणिक साहित्य, पुरातत्त्व, भाषा आदि पर प्रबन्ध, लेख तथा टिप्पणियाँ-सभी शामिल हैं।अपने 39 वर्ष के छोटे जीवनकाल में गुलेरी जी ने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना तो नहीं कि लेकिन उन्होने फुटकर रूप में काफी लिखा, अनगिनत विषयों पर लिखा और कई विधाओं की विशेषताओं और रूपों को समेटते-समंजित करते हुए लिखा। उनके लेखन का एक बड़ा हिस्सा जहाँ विशुद्ध अकादमिक तथा शोधपरक है, उनकी शास्त्रज्ञता और पाण्डित्य का भी परिचायक है; वहीं, उससे भी बड़ा हिस्सा उनके खुले दिमाग, मानवतावादी दृष्टिकोण और समकालीन समाज, धर्म राजनीति आदि से शोध सरोकार का परिचय देता है। लोक से यह सरोकार उनकी ‘पुरानी हिन्दी’ जैसी अकादमिक और ‘महर्षि च्यवन का रामायण’ जैसी शोधपरक रचनाओं में भी दिखाई देता है। इन बातों के अलावा गुलेरी जी के विचारों की आधुनिकता में हम भी आज उनके पुराविष्कार की माँग करती है।
निबंध (1)शैशुनाक की मूर्तियाँ(2)देवकुल(3)पुरानी हिन्दी(4)संगीत (5)कच्छुआ धर्म(6)(7)आँख(8)मोरेसि मोहिं कुठा
कविताएँ- (1)एशिया की विजय दशमी(2)भारत की जय(3)वेनॉक बर्न(4)आहिताग्नि(5)झुकी कमान(6)स्वागत(7)ईश्वर से प्रार्थना
कहानी संग्रह- (1)सुखमय जीवन (2)-बुद्धू का काँटा (3) उसने कहा था हमेशा यह प्रश्न उठता रहा जब भी गुलेरी जी की कहानी उसने कहा था के बाद क्या कुछ लिखा गया कहानियों में , जैसा की ‘’सुखमय जीवन’’ उनकी पहली कहानी भारतमित्र कोलकता के किसी क मे 1911 में छपी थी। इस कहानी की चर्चा भी उस समय हुई थी। इनकी दूसरी कहानी ‘’बुध्दू का कांटा’’ के प्रकाशन का सही समय पता नहीं पर माना जाता है 1911 से 1915 के बीच रचित या पाटलिपुत्र में प्रकाशित । इस कहानी में भी उतना ही सब कुछ था जो ‘’उसने कहा था’’ कहानी में पर इस कहानी उसने कहा था से निम्न आंका गया । इस कहानी के कुछ प्रसंग जो झकझोरने के लिए काफी है कुछ सूक्त वाक्यों जैसे ‘कचहरियाँ गरीबों के लिए नहीं है, बा ’छा, वे तो सेठों के लिए है, ‘लंबे घूँघट वाली से बचना, ’ गाँव की लड़कियाँ हड्डियों और गहनों का बंड़ल नही होती ‘’ इसी तरह “डेले, लादा, मंजड़ी, रकवाल, गलसूंड.पिंड” आदि आंचलिक शब्दों की भरमार है। इस कहानी में उसने कहा थी की भांति नायक नायिका के बीच नाम और घर पूछने संबंधी हँसी मजाक से भरा वार्तालाप है। रधुनाथ का बालिका के दाहिने पैर के तलवे में चुभे दो इंच के काँटे को निकालना और अपनी कमीज के आसतीन को फाड़ कर पट्टी बाँधना बाल प्रेम का एक चित्र है। तीसरी और महत्वपूर्ण कहानी ‘उसने कहा था’ को अधिकांश विव्दवानों ने पहली बार 1915 में सरस्वती के जून अंक में छपा माना है। और आचार्य रामचंद्र शुक्ल, श्यामसुंदर दास, नंददुलारे बाजपेयी, डा. नगेन्द्र, मुकुटघर पाण्डेय, डॉ लक्ष्मीनारायण लाल, डॉ हरदयाल आदि ने अपने समय में उनकी तीन कहानियों का ही जिक्र किया है। इस कहानी के विषय मे उनके संस्करणों पर कहा गया है की कहानी के पाठों में ज्यादा भिन्नता नहीं है। परंतु यह भी कहा गया की कहानीकार, कहानी की रचना करते समय व उसके बाद भी अपने पाठों में परिवर्तन करता है, इसी तरह संपादक भी संशोधन व परिवर्तन करते है, जो गुलेरी जी की कहानियों मे भी हुआ है. डॉ हरदयाल जी व्दारा यह बात कही गई की ‘’उसने कहा था’’ कहानी में एक गीत अश्लील मानकर हटाया गया। पर यह बहुत जरूरी है की मूल पाठ की अपेक्षा आज भी बनी है। यदि कोई ऐसा संकलन निकाले जिसमें हस्तलिखित या प्रमाणिक मूल पाठ के साथ विवेचना दी गई हो तो समीक्षा के घरातल पर कुछ नये तथ्य खोजे जा सकते है। कुछ पत्र-पत्रिकाओं मे छपा है कि वर्ष 2014 को इस कहानी का शताब्दी वर्ष मनाया गया जबकी 2015 होना चाहिए। एक बात जिसका जिक्र मुझे करना है उसने कहा था की कहानी के बाद क्या गुलेरी जी ने कोई कहानी नही लिखी कुछ वर्ष पूर्व उनकी दो और कहानियाँ सामने आयी जो अनुपलब्ध है ‘पनघट’ संभवतः इसे ‘’बुध्दू का कांटा’’ का ही अंश हो सकता है कहा गया। गुलेरी जी के अन्य प्रयास के बारे में डॉ. नागेन्द्र जी ने लिखा हैः “संभव है, उन्होंने कुछ और प्रयत्न किए हो जो आज उपलब्ध नहीं है” एक अधूरी माने जाने वाली कहानी ‘’हीरे का हीरा’’ इस कहानी में लहना सिंह की वापसी से संबंधित है। यह कथा अंश लहनासिंह और सुबेदारनी के उस भावनात्मक और काल्पनिक प्रेम से हट कर यथार्थ की कंटीली जमीन से जुड़ा हुआ है जिसमें उसकी माँ और पत्नी कंगाली की बीहड़ मे जीती हुई इंतजार मे लगातार दरवाजे की ओर देख रही है। इस तरह का सजीव और सटीक वर्णन उस क्षेत्र का वासी ही कर सकता है, कोई बाहरी व्यक्ति नहीं। यदि इस अंश को लिखने वाला की है तो वह गुलेरी के अलावा कोई नहीं। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी को हिन्दी साहित्य में सबसे अधिक प्रसिद्धि 1915 में ‘सरस्वती’ मासिक में प्रकाशित कहानी ‘उसने कहा था’ के कारण मिली। यह कहानी शिल्प एवं विषय-वस्तु की दृष्टि से आज भी ‘मील का पत्थर’ मानी जाती है।निबंध लेखन के विषय वैविध्य गुलेरी जी के निबंधों में , विषय की व्यापकता और अनेकरूपता के कारण उनके निबंधों को किसी एक विशिष्ठ कोटि में रखकर किसी एक विशिष्ठ लक्षण की कसौटी पर परखना असंभव है। इनके निबंधों के प्रकार-निर्धारण मे विषय के साथ शैली दोनों का समान हाथ रहा है। शैली के आधार पर इनके निबंधों को तीन प्रमुख शैलियों की कोटी में रखे जा सकते है(1)विवरणात्मक,(2) विचारात्मक और (3) भावात्मक।
गुलेरी जी हिंदी के अतिविशिष्ट कथाकार हैं। इनकी कहानी ‘उसने कहा था’ की गणना हिंदी की महानतम कहानियों में की जाती है। वह बहुमुखी रुचियों और प्रतिभा के व्यक्ति थे। उनका कार्यक्षेत्र खगोल विज्ञान, ज्योतिष, धर्म, भाषा विज्ञान, इतिहास, शोध, आलोचना आदि अनेक दिशाओं में फैला हुआ था। जयपुर वेधशाला के यंत्रों पर लगे जीर्णोद्धार तथा शोध-कार्य विषयक शिलालेखों पर ‘चंद्रधर गुलेरी’ नाम भी खुदा हुआ है। वह कुछ समय तक काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राच्य विभाग में प्राचार्य भी रहे। चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ हिन्दी साहित्य के जाने-माने साहित्यकार थे। बीस साल की आयु से पहले ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार एवं उससे जुड़े शोधकार्य के लिए गठित मण्डल में चुन लिया गया था। उन्होने कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर “द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स” शीर्षक से अंग्रेज़ी ग्रन्थ की रचना की थी गुलेरी जी ने मुकुटधर पाण्डेय जी को लिखे अपने एक पत्र में कहा थाः “दो चार कविता या लेख लिख कर भी आदमी अमर हो सकता है जबकि बहुत लिखने के बाद भी, सौ-पचास वर्षो बाद किसी का नाम लोगों को याद नहीं रहता।” इतना कम लिखने पर भी आज सौ वर्षों से अधिक हो जाने के बाद उन्हें याद किया जा रहा है उसी शिद्दत से, कथा जगत में ऐसे उदाहरण बहुत कम है। गुलेरी जी धर्मनिरपेक्षता के समर्थक थे। उनके अनुसार उदारता, सौहार्द और मानवतावाद धर्म के प्रण बिंदु है। हिंदू, सिख, जैन,पारसी, मसलमान सब में सदभाव, विरादरी भाव के वे पक्षदर रहे। संकीर्ण धर्म शिक्षा के विरूध्द थे। अर्थहीन कर्मकांड़ों, ज्योतीष से जुड़े अंधविश्वासों का वे बार-बार खंडन करते रहे। उनका मत “यह महाव्दीप एक-दूसरे को काटने को दौड़ती बिल्लियों का है।“ निश्चित तौर पर वे प्रगतिशील विचारधारा के पक्ष में थे। असहिष्णुता के जिस दौर से हमारा हुन्दुस्तान आज आक्रांत है, उसके दृष्टिगत चंद्रधर शर्मा गुलेरी के विचारों की पुनर्व्याख्या आवश्यक है।चंद्रधर शर्मा गुलेरी को हिंदी साहित्य में जो मान-सम्मान मिलना चाहिए था वह न्हें अवश्य मिला। महज एक कहानी उसने कहा था के कालजयी और सार्वकालिक होने के के कारण। इस एक कहानी ने उनके शेष समग्र साहित्य को कामोबेश आलोचना की दृष्टि से गौण-सा कर दिया है। 10 श्रेष्ठ कहानियों मे इस कहानी का भी स्थान है। गुलेरी वंशावली के निकट संबंध रखने वाले नंदकिशोर परिमल ने गुलेरी जी की कहानी “उसने कहा था” की हस्तलिखित और रफ ड्राफ्ट को संरक्षित किया हुआ है। इसी के साथ गुलेरी जी के परिवार के दुर्लभ चित्रों को भी उन्होंने संरक्षित कर रखा हुआ है। गुलेर नामक स्थान यहां रेल्वे स्टेशन भी है। जो हमीरपुर पंजाब से 60 किलोमीटर की दूरी पर है। इस स्थान मे उनके मकान आदि खण्डहरो की अवस्था मे है। किसी संग्रहालय की कोई व्यवस्था नहीं है जिसमे इनके धरोहर और संपदा को रखा जा सके। भावी पीढ़ियों के लिए क्या रहेगा या नहीं पता नहीं । इस गुलेर गाँव के सभी लोग बिना किसी जाति-धर्म के विभेद के अपने बच्चो के नाम के साथ गुलेरी लिखने के सात इस सम्मान के प्रति कृतसंकल्प है।पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का विधा-जगत में पदार्पण ‘सम्राट-सिध्दांत’ जैसे महान ज्योतिषग्रंथ से हुआ। वे कवि भी थे। ‘देवकुल’ और ‘पंचमहाशब्द’ जैसे उनके निबंध हजारी प्रसाद व्दिवेदी के देवदारू, कुटज आदि की प्रकृति के ललित निबंधो के पूर्वगामी कहे जा सकते है। गुलेरी जी पुनर्जागरणवादी आंदोलन के प्रतिनिधि विव्दान् थे। उनके वैदुष्य और उनकी दृष्टि पर उनके प्रभाव स्पष्ट है। अतीतवाही ही थे वे, किंतु अतीतजीवी नहीं । स्वस्थ आदर्शवादी थे, किंतु यथार्थ-विमुख नहीं। वर्तमान के प्रति उनकी आस्था गहरी थी। वे प्रबल आशावादी. वे जीवन के चिंतक थे। बहुज्ञ एवं बहुभाषा-ज्ञाता थे। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की मृत्यु पीलिया के बाद तेज़ बुख़ार से मात्र 39 वर्ष की आयु में 12 सितम्बर 1922 ई. में काशी में हुई।
हमारा नमन व विनम्र श्रध्दांजलि ।
चिरंजीव
लिंगम चिरंजीव राव
म.न.11-1-21/1, कार्जी मार्ग
इच्छापुरम ,श्रीकाकुलम (आन्ध्रप्रदेश)
पिनः532 312 मो.न.8639945892
स्वतंत्र लेखन (संकलन व लेखन)