राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार) 

‘‘बटोंगे (वोट) तो कटोंगे’! ‘‘बाटेंगे तो काटेंगे’।
‘‘बाटेंगे (नोट) तो जीतेंगे-हारेंगे’’।



इस महीने के प्रारंभ से ही चुनाव प्रचार के अंतिम चरण व मतदान के समय तक उक्त नारे और उससे उत्पन्न जवाबी नारे ही मीडिया व चुनावी परिवेश में छाए रहे। देश की राजनीति खास कर चुनावी राजनीति में नारों का क्या महत्व है, और उनके अर्थ, अनर्थ व द्विअर्थी मतलब (मैसेज) कैसे होते हैं, इसको थोड़ा समझने का प्रयास ‘‘नारों की टाइमिंग’’ के साथ करते हैं।

‘‘योगीनाथ उवाच’’।

भगवान कृष्ण जन्माष्टमी के दिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक आक्रमक बयान दिया ‘‘राष्ट्र से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता और राष्ट्र कब सशक्त होगा, जब हम एक रहेंगे, नेक रहेंगे, बटेंगे तो कटेंगे, आप देख रहे हैं ना, बांग्लादेश में देख रहे हो ना, वह गलतियां यहां नहीं होनी चाहिए’। इस कथन में शामिल ‘‘बटेंगे तो कटेंगे’ ने एक नारे का रूप लेकर राजनीति की धुरी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आस-पास केंद्रित हो गई, जिसे आगे समझने का प्रयास करते हैं।

नारे की अलग-अलग व्याख्या।

उक्त नारे का शाब्दिक अर्थ गलत कहां है? उक्त नारे में योगी आदित्यनाथ ने न तो धर्म का जिक्र किया है और न ही जाति का जिक्र किया है। तब फिर उक्त नारे को धर्म व जाति से जोड़कर ‘‘बयानवीर लोग क्यों अर्नगल बयानबाजी’’ आरोप-प्रत्यारोप के दौरान कर रहे हैं? इसका मात्र एक कारण शायद यह दिखता है कि चंूकि उक्त प्रारंभिक बयान में योगी द्वारा बांग्लादेश का उल्लेख किया गया है, जहां पर अल्पसंख्यकांे (हिन्दुओं) पर प्रधानमंत्री शेख हसीना के सत्ता से हटने के बाद से अत्याचार बढ़े है, शायद उस चिंता के संदर्भ में इस बयान को अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक के बीच एक नैरेटिव बनाने का प्रयास ‘‘वोट’’ की राजनीति के चलते किया जा रहा है। प्रारंभ में योगी आदित्यनाथ के बयान को एक सिरे से भाजपा के अनेक नेताओं व मीडिया ने भी लपका। लेकिन शैनेः शैनेः उक्त बयान से कुछ नुकसान, खासकर ‘‘अल्पसंख्यकों’’ के एकजुट होने के चलते, समय-समय पर उसमें परिर्वतन किया गया। प्रधानमंत्री ने असम के मुख्यमंत्री के बयान को आगे बढ़ाया ‘‘एक रहेंगे तो सेफ रहेगें’। बागेश्वर धाम के पंडित धीरेन्द्र शास्त्री ने योगी आदित्यनाथ का समर्थन करते हुए कहा बटेंगे तो चीन व पाकिस्तान वाले हमें काटेगें। तथापि उन्होंने जात-पात व भेदभाव को समाज के लिए जहर बताते हुए हिन्दू जागरूकता बढ़ाने व ‘‘कट्टर हिन्दु’ बनने की अपील की। परन्तु उसी सांस में वे यह भी कहते है कि हमें ब्राह्मण, वैश्य, कास्थ से पहले ‘‘हिन्दुस्तानी’’ (हिन्दु नहीं) बनना होगा। क्योंकि धर्म के नाम पर बंटवारे को खत्म करना ही रामराज की स्थापना का पहला कदम होगा। तब फिर कट्टर हिन्दु बनाने का आव्हान क्या ‘‘अंर्तविरोध’’ नहीं है? उक्त बयान के नुकसान की आशंका को देखते हुए एनडीए के समर्थन वाली पार्टीयां नहीं, बल्कि भाजपा के एक-एक करके नेताओं द्वारा बयानों से अपने को अलग-थलग कर रहे हैं, जैसे अजीत पंवार, एकनाथ शिंदे, पंकजा मुंडे, नीतिन गडकरी, राजनाथ सिंह, उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक व केशव प्रयाद मोर्य आदि। वैसे आज कल हमारे देश मेें कट्टरता के साथ ‘‘कट्टर’’ शब्द की भी कटरता के साथ शोर ‘‘कट्टर ईमानदारी ‘‘कट्टर हिन्दु’’ कट्टर देशभक्त हो रहा है? नारे का अर्थ का अनर्थ कैसे निकाला जाता है, इसका उदाहरण ‘‘एक रहेंगे तो सेफ रहेगें’’ के संदर्भ में राहुल गांधी के ‘‘तिजोरी’’ के साथ दो उद्योगपतियों पर किया गया कटाक्ष व व्याख्या से समझा जा सकता है।

नारों की महत्वता, प्रभाव, परिणाम!

देश की राजनीति में नारों का बड़ा योगदान रहा है। याद कीजिए! वर्ष 1965 लाल बहादुर शास्त्री ने सैनिको व किसान पर परिवर्तन के लिए दिया अराजनैतिक नारा ‘‘जय जवान जय किसान’’ वर्ष 1967 के चुनाव में कांग्रेस को फायदा मिला। वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी ‘‘गरीबी हटाओं’’ का नारा देकर सत्ता पर आरूढ़ हो गई थी। गरीबी हटी या नहीं, यह शोध का विषय हो सकता है, परन्तु गरीब वर्ग जरूर संख्या में बढ़ गया व क्रय क्षमता में और कम हो गया। वर्ष 1977 में ‘‘इंदिरा हटाओं देश बचाव’’ नारा सफल रहा। वर्ष 1984 में ‘‘ना जात पर, न पात पर, मोहर लगेगी हाथ पर’’ के नारे देकर ऐतेहासिक विजय प्राप्त करने वाली कांग्रेस समय का चक्र ऐसा चला कि वर्तमान नेतृत्व आज जातिवादी गणना को जोर-शोर से चुनावी मुद्दा बना रहा है। तत्पश्चात वर्ष 1990 में मंडल और कमंडल के आमने-सामने आने से नारा दिया गया ‘‘जो हिन्दू हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा’के जवाब में ‘‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी। वर्ष 1996 में ‘‘अबकी बारी अटल-बिहारी’ नाम भी सफल रहा। इसी वर्ष ‘‘जाचा,ं परखा, खरा नेतृत्व’। वर्ष 1998 ‘‘सबको परखा बार-बार, हमको परखो एक बार। ‘‘अटल-अडवानी कमल निशान मांग रहा है हिन्दुस्तान। वर्ष 2004 के चुनाव में कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ को भी विजय श्री दिलाई। वर्ष 2014 में ‘‘अबकी बार मोदी सरकार, अच्छे दिन आने वाले है, ‘‘हर-हर मोदी घर-घर मोदी। वर्ष 2022 के उत्तर प्रदेश के चुनाव में योगी आदित्यनाथ ने नारा दिया था ‘‘80 बनाम 20’ अब इस नारे के नये संस्करण के रूप में शायद उपरोक्त नारा दिया गया। गृहमंत्री अमित शाह के शब्दों में जहां तक बांटने की बात है, वह कांग्रेस का काम है लोगों को जातियों में बांटती है, समाज को बांटती है और काटने की बात तो सबसे ज्यादा दंगे महाविकास अघाड़ी व कांग्रेस सरकार में हुए हैं।

बाटोंगें (नोट) तो जीतोगें कोई नया नेरेटिव नहीं।

अब इस नारे में एक नया मोड़ आ गया है, जब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव विनोद तावड़े की उपस्थिति में (व्यक्तिगत उनसे नहीं) 9 लाख से अधिक की जप्ति विरार की एक होटल से की गई, जिसकी बुकिंग भाजपा द्वारा कराई गई थी। यह आरोप लगाया गया कि 5 करोड़ रूपये उक्त होटल में बंटने के लिए तावड़े लेकर आये थे और उक्त रूपये कुछ लिफाफों के माध्यम से महिलाओं को बंट गये और शेष बचा रूपया बंटने के पहले बहुजन विकास पार्टी के विधायक हिन्तेद्र ठाकुर द्वारा पुलिस से शिकायत करने पर जप्त किये गये। साथ में कुछ डायरी की भी जप्ती की गई। इन नोटों की ज़िप्त के कारण अब उक्त नारा में पुनः एक मोड़ आ गया ‘‘बांटोंगे तो ‘‘जीतोंगें या हारोंगें’। ‘‘वोट जिहाद’’ ‘‘नोट जिहाद’ में बदल गया। बांटने-बटने का यह खेल इस चुनावी परिणाम को किस दिशा की ओर ले जायेगा, यह तो 23 तारीख को ही पता चल पायेगा।

चुनाव आयोग की अक्षमता।

एक बात तय है कि देश में चुनाव कराने का महत्वपूर्ण तंत्र ‘‘चुनाव आयोग’’ अपनी कार्यक्षमता व विश्वसनीयता न केवल खो चुका है, बल्कि निष्पक्षता से भी कोसो दूर है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता व कार्यक्षमता के नाम पर आज भी टीएन शेषन को ही याद करते है। अन्यथा जो जप्ति एक पार्टी के विधायक की शिकायत पर हुई, चुनाव आयोग की मशीनरी के सर्विलांस के रहते उक्त पैसा कैसे, कब व कहां से आया चुनावी मशीनरी को मालूम ही नहीं पड़ा। यह एक अक्षमता व शोध का विषय है। इस ‘‘कैश कांड’’ ने एक बात तो सिद्ध कर दी कि यदि आप जागते रहेंगे तब न तो आपकी जेब कटेगी न ही दूसरों की जेब भरी जा सकेगी। समस्त राष्ट्रीय पार्टियां निष्पक्ष चुनाव आरोप-प्रत्यारोप करने के लिए सरकारी मशीनरियों पर ही निर्भर रहती है, स्वयं ‘‘बहुजन विकास आघाडी पार्टी’’ के समान ऐसी अनियमितताओं को रोकने के लिए जाग्रत व प्रयासरत नहीं रहती हैं। वे इस तरह की गैरकानूनी और आचार संहिता के उल्लंघन को रोकने का दायित्व सिर्फ संस्थाओं को की मानते है। शायद इसका कारण एक मात्र यह है कि ये समस्त राष्ट्रीय पार्टियां जब भी उन्हें मौका मिलता है, वे इस तरह की अवैधानिक कार्रवाइयों में संलिप्त रहती है। इसका मतलब साफ है। राजनीतिक पार्टियों अक्षरशः निम्न उक्ति का पालन करती है। ‘‘कांच के घर में रहने वाले दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंकते’’।

चुनावी परिणाम की संभावनाएं।

जहां तक परिणाम की बात है, चुनावी परिणाम का उंट किस करवट बैठेगा, यह बात बिना किसी विवाद के मान्य है कि जहां तक महाराष्ट्र का सवाल है, शरद पवार इस चुनाव के सबसे बडे़ अनुभवी और व्यापक आधार वाले नेता है जो जोड-तोड़ की राजनीति में वर्तमान चाण्क्य अमित शाह से भी ज्यादा चाणक्य नीति में माहिर है। तभी तो वह तत्समय देश के सबसे समृद्ध राज्य महाराष्ट्र के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बन गये थे। देश की जनता कुछ अवसरों पर भावुक हो जाती है, जैसा कि हमने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में एकतरफा जीत को देखा था शरद पवार दीर्घायु हो, शतायु हो। उनका राजनैतिक जीवन का यह अंतिम पड़ाव है। जहां जनता निश्चित रूप से उनके नेतृत्व में ‘‘अघाड़ी’’ की सरकार बनाकर सम्मानपूर्वक बिदाई देने की संभावना दिखती है, जिसके परिणाम में सुप्रिया सुले या उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन सकते है।