सत्य का अर्थ होता है, अनंत। सत्य की खोज का कोई अंत नहीं होता। यात्रा शुरू तो होती है, पर पूरी नहीं होती। पूरी हो ही नहीं सकती। क्योंकि अगर पूरी हो जाए यात्रा  तो उसका अर्थ होगा कि सत्य भी सीमित है। तुम आ गए आखिरी सीमा पर, फिर उसके पार क्या होगा? नहीं, सत्य असीम है। यही तो हमने बार-बार अनेक-अनेक ढंग से कहा है कि परमात्मा अनंत है, असीम है, अपार है, उसका विस्तार है, विराट है। जैसे तुम सागर में उतर गये, यह तो सच है लेकिन तुमने पूरे सागर को थोड़े ही पा लिया। तुम जितना पार करते जाओ, उतना ही सागर शेष है। फिर सागर तो शायद चुक भी जाए।  
कोई तैरता ही रहे, तैरता ही रहे, तो दूसरा किनारा आ भी जाएगा पर परमात्मा का कोई किनारा ही नहीं है। इसीलिए इसे असीम कहते हैं। सत्य असीम है, अनंत है, इसलिए सत्य की खोज का कोई अंत नहीं होता। अमेरिका का एक बहुत बड़ा मनीषी हुआ-जान डैबी। वह कहा करता था, जीवन रुचि का नाम है। जिस दिन वह गयी कि जीवन भी चला गया। सत्य की खोज में रुचि है। सत्य में उतना सवाल नहीं है, जितना खोज में है। मजा मंजिल का नहीं है, यात्रा का है। मजा मिलन का कम, इंतजारी का ज्यादा है। जान डैबी से उसकी नब्बेवीं वषर्गांठ पर बातचीत करते समय एक डाक्टर मित्र ने कहा, फिलासफी, दर्शन में रखा क्या है!  
डैबी ने शांतिपूर्वक कहा, दर्शन का लाभ है कि उसके अध्ययन के बाद पहाड़ों पर चढ़ाई संभव हो जाती है। डाक्टर ने कहा, मान लिया कि दर्शन का यही लाभ है कि पहाड़ों पर चढ़ाई संभव हो जाती है लेकिन एक पर चढ़ने के बाद दूसरा ऐसा ही पहाड़ दिखना आरंभ हो जाता है, जिस पर चढ़ना कठिन प्रतीत होता है। उसके पार होने पर तीसरा फिर चौथा। जब तक यह प्रम और चुनौती है, तब तक जीवन है। जिस दिन चढ़ने को शेष नहीं, आकषर्ण, चुनौती नहीं, उसी दिन मृत्यु घट जाएगी और मृत्यु नहीं है, जीवन ही है। तुम पहाड़ चढ़ते हो, इसी आशा में कि उसके पार कुछ नहीं है, पर पाते हो कि दूसरा पहाड़ प्रतीक्षा कर रहा है।  
इससे भी बड़ा, इससे भी विराट, इससे भी ज्यादा स्वर्णमयी। फिर तुम्हारे भीतर चुनौती उठी। तुम फिर चले। शिखर पर पहुंचते ही आगे का दिखायी पड़ता है, उसके पहले दिखायी नही पड़ता। ऐसे ही सत्य की खोज अनंत है। ऐसी यात्रा जो कभी समाप्त नहीं होती। यह शुभ भी है। समाप्त हो जाए तो जीवन समाप्त हो गया।