राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार) 

ब्रह्माकुमारीज केन्द, बटामा में हुये अखिल भारतीय मीडिया सम्मेलन में भाग लेतें हुयें आज मैंने जो विचार व्यक्त कियें हैं उसे आगे लेख के रूप मे व्यक्त कर रहा हूॅ।
  

 विषय पर अपने विचार व्यक्त करना प्रारंभ करू, इसके पूर्व आपको यह बतलाना मैं जरूरी समझता हूं कि मेरे लेखन कार्य की शुरूवात ही मीडिया के रोल को देखते हुये हुई। जब मुंबई हमलों में इण्डिया टीवी के रजत शर्मा ने हमलावरों की बातचीत का सीधा प्रसारण सिर्फ टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में किया, जिससे हमारी फोर्स की मौजूदगी की स्थिति व सुरक्षा स्थिति का पता चल रहा था, जिससे दुखी होकर ही मंैने पहला लेख ‘‘इलेक्ट्रानिक मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए कानून की आवश्यकता’’ को लेकर लिखा था। यद्यपि मैं मूलतः एडवोकेट हूं, तथापि यही से मेरा लेखन कार्य प्रारंभ हुआ।
निश्चित रूप से ‘‘मीडिया’’ लोकतंत्र का चैथा प्रहरी (स्तम्भ) कहलाता है व निसंदेह हैं भी। स्वाधीनता आंदोलन और तत्पश्चात स्वाधीन भारत में दूसरा स्वाधीनता आंदोलन जिसे ‘‘लोकतंत्र बहाली आंदोलन‘‘ कहां गया, अर्थात् आपातकाल में भी मीडिया का रोल बहुत ही साहसी, संघर्षपूर्वक, प्रभावी रूप से सामना करता हुआ और अपनी सकात्मकता उपस्थिति दर्ज कराने वाला रहा है। वर्तमान में, मीडिया देश की राजनैतिक, सार्वजनिक व सामाजिक दिशा को तय करने में इतना प्रभावशाली हो गया है कि किसी भी लोकतांत्रिक आंदोलन या जनोपयोगी जनता की लोकप्रिय मांग को कुचलने के लिए सरकार सर्वप्रथम मीडिया को नियंित्रंत या कुचलने का प्रयास करके आंदोलन को कुचलने का प्रयास करती है। 
मीडिया हॉउस में तत्समय भी सत्ता पक्ष एवं विपक्षी विचारों के लोग रहकर थोडा बहुत प्रसारण के विषयों को प्रभावित करते रहे हैं। तथापि मीडिया हॉउस के अपने कुछ बंधनों के बावजूद वे उससे उपर उठकर जहां-तहां समाज-देश हित की बात हो या नागरिकों के संवैधानिक या मानवाधिकारों की बात हों, उन सबको जीवंत रख उन्हें उद्देश्यपूर्ण गतिशीलता देते रहे हैं। परन्तु वर्तमान में खासकर पिछले कुछ समय से खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया के मामलें में यह कहने की आवश्यकता बिल्कुल भी नहीं रह गई है कि अब मीडिया की हालत ‘‘आगे नाथ न पीछे पगहा‘‘ तरह की हो गई है। अब ‘‘गोदी मीडिया’’, ‘‘मोदी मीडिया’’ में मीडिया को सीधे रूप से विभाजित कर दिया गया है। बावजूद इसके मीडिया के विभाजन के दोनों रूप अपने मूल उद्देश्यों व दायित्वों को निभाने में आजकल प्रायः असफल ही पाये जा रहे है। ऐसा लगता है कि ‘‘हंसा थे सो उड़ गये, कागा भये दिवान‘‘। पिछले काफी समय से मीडिया के गिरते स्तर के अनेकोंनेक उदाहरण आपके सामने आये हैं। फेहरिस्त लंबी है, जिनके उद्हरण करने की आवश्यकता यहां नहीं है। तथापि हाल में ही ऐसे एक उद्हरण पर आपका ध्यान अवश्य आकर्षित करना चाहता हूं, जिससे आपके सामने मीडिया के वर्तमान चरित्र स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचित हो जाता है।
100 करोड़ लोगों के टीकाकरण का ऐतिहासिक लक्ष्य को पूर्ण कर देश जिस दिन जश्न मना रहा था और जिनके नेतृत्व में यह लक्ष्य पूर्ण हुआ, ऐसे हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उद्गारों को दिन के समय अपने को देश का सबसे तेज व सबसे आगे और सबसे बड़ी टीआरपी कहने वाला मीडिया हॉउस इंडिया टुडे ग्रुप का न्यूज चैनल ‘‘आज तक’’ ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण के प्रसारण को ‘‘दूध की मक्खी की तरह‘‘ बीच में रोकते हुये ब्रेकिंग न्यूज शीर्षक देते हुये शाहरूख खान के बेटे आर्यन खान जो कि नारकोटिक्स ड्रग्स के एक आरोपी है, की यह न्यूज कि उसके जमानत आवेदन पर सुनवाई मुम्बई उच्च न्यायालय में मंगलवार को होगी, प्रधानमंत्री की न्यूज को ब्रेकिंग किया। हद हो गई ‘‘ठकुर सुहाती‘‘ की। प्रधानमंत्री की महत्वपूर्ण 100 करोड़ लोगों की टीकाकरण की विश्व विख्यात उपलब्धि की न्यूज की तुलना में आर्यन खान की सुनवाई की न्यूज का ब्रेकिंग न्यूज बन जाना ‘‘देश के मीडिया हॉउस के सेटअप, एजेड़ा’’ व ‘‘मानसिकता‘‘ को दर्शाता है। वे प्रसारण को रोकने के बजाय नीचे न्यूज की पट्टी भी चला सकते थें।
निश्चित रूप से देश में कुछ ऐसे कलाकार भी है जो बहुत बड़े सेलिब्रिटी होकर प्रधानमंत्री से उनकी तुलना की जा सकती है। जैसे स्वरो की मलिका स्वः लता मंगेशकर, अमिताभ बच्चन आदि हो सकते है। लेकिन शाहरूख खान का बेटा ‘‘न तीन में न तेरह में‘‘ कोई सेलिब्रिटी नहीं है। स्वयं शाहरूख खान भी उतने बड़े सेलिब्रिटी नहीं है, जिनके लिए भी ब्रेकिंग न्यूज की जाय। यदि चैनल ‘‘आज तक’’ को आम नागरिकों की समझ का एहसास नहीं है, परख नहीं है तो, उसने इस मुद्दे पर एक सर्वे क्यों नहीें करा लिया? (सड़े सड़े मुद्दों पर मीडिया की सर्वे कराने की आदत (कु)उद्देश्य तो है?) ताकि उसे समझ में आ जाये और भविष्य में इस तरह ‘‘अशर्फियों को छोड़ कोयलों पर मुहर लगाने‘‘ जैसी बचकाना गलती से बचा जा सके।
आये दिन विभिन्न टीवी चैनलों में चल रही डिबेटो का स्तर भी प्रायः स्तरहीन व अराष्ट्रवादी होते जा रहा है। प्रायः सभी टीवी चैनलों में टीवी डिबेट कहीं ’दंगल’, ‘हल्ला बोल’, ‘मुझे जवाब चाहिये’, ‘पूछता है भारत’, ’पांच का पंच’, ‘ताल ठोक के’, ’आर पार’ ‘राष्ट्र की बात’, ‘मुद्दा गरम हैं’, ‘सबसे बड़ा सवाल’ इत्यादि नामों से प्राईम टाईम पर लाईव बहस प्रसारित की जाती हैं। सिवाए, एनडीटीवी को छोड़कर जिसनें कुछ सालों से इस तरह की बहसों को अवश्य बंद कर दिया है। इन सब बहसों में विषय शब्दों, वाक्यों, ईशारों, भाव भंगिमा इत्यादि सभी को सम्मिलित कर प्रायः स्तरहीन बहस ही होती है, जो अधिकतर बहसों के दिये गये नामों को शायद सार्थक सिद्ध करती है। इसलिये आज के समय की आवश्यकता है कि समय रहते इन बहसों में खासकर राजनैतिक व धार्मिक विषयों व ‘‘हिन्दू-मुस्लिम‘‘ को लेकर होने वाली बहसों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिये। यदि अभी भी हम नहीं चेते तो, हम उस खराब स्थिति में पहुंच सकते है, जहां से फिर वापिस लौटना मुश्किल होगा।
वर्तमान में यह आवश्यक हो गया है कि देश हित में समस्त टीवी चैनल्स स्तरहीन अंतहीन डिबेट से बचें। क्योंकि वैसे भी ‘‘टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट‘‘ (टीआरपी) के चक्कर में मीडिया ‘येलो जर्नलिज्म‘, ‘पेड न्यूज‘, ‘फेक न्यूज‘, व ‘मीडिया ट्रायल‘ की विकृतियों से ग्रस्त  होकर अपनी मूल कृति व कृत्य से दूर हो रहा है।
प्रसिद्व फिल्म कलाकार श्री देवी की मृत्यु पर तीन दिनो तक लगातार मीडिया में सिर्फ श्रीदेवी ही छायी हुई रही। क्या श्रीदेवी कोई राष्ट्रीय व्यक्तित्व थी या देश के प्रति उनका इतना महत्वपूर्ण योगदान था? सिर्फ और सिर्फ टीआरपी की होड़ में वे चैनल भी इस दौड़ में शामिल होकर 72 घंटों से ज्यादा समय से अपने चैनलों में श्रीदेवी को ही लगातार दिखाते रहे जो सामान्यतः अपने निर्धारित कार्यक्र्रमों मेें कोई कटौती/परिर्वतन नहीं करते है। जैसे एन.डी.टीवी, जो कई बार प्रधानमंत्री के सीधा प्रसारण को निर्धारित कार्यक्रम मंे परिर्वतन किये बिना ही दिखाता रहता हैं। इस प्रकार तीन दिनो तक मीडिया ने एक रूकी हुई धड़कन को लगातार दिखाकर देश की धड़कने को रोकने का अनचाहा प्रयास अनजाने में ही करता रहा।
सुशांत प्रकरण में मीडिया ट्रायल पर लिखे एक लेख में डॉ. वेदप्रताप वैदिक की मीडिया पर की गई सटीक टिप्पणी का (साभार) उल्लेख करने से मैं अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूं। डॉ. वैदिक से न्यूर्याक में हुई अमेरिकन महिला मदाम क्लेयर से हुई मुलाकात में उक्त महिला का टीवी के बाबत यह कथन था कि ‘‘यह ‘‘इंडियट बॉक्स’’ अर्थात ‘‘मूरख बक्सा’’ है’’। मतलब मूर्खो का, ‘‘मूर्खो के लिये व मूर्खो के द्वारा चलाये जाने वाला बॅक्सा है’’। 
मीडिया के रोल की वर्तमान में महत्ता इसलिये भी बढ़ जाती है कि मेरा यह सुनिश्चित मत है कि वर्तमान में देश की समस्याओं का प्रमुख कारण देश का नैतिकता के पतन की दिशा की ओर तेजी से जाना है। इस स्थिति के लिए प्रमुख रूप से आज का मीडिया ही जिम्मेदार है। जिस तरह की विषय वस्तु मीडिया आज देश के सामने दिखाते है, पढ़ाते है व परोसते है, जो सिर्फ दर्शकों को नैतिक पतन की गर्त पर ले जा रही है, इसमे कोई दो राय हो ही नहीं सकती हंै। जिस तरह अश्लीलता, गाली गलोच, अपशब्दों का प्रयोग कर अराष्ट्रवादी तत्वों की आवाज का प्लेटफार्म देने का कार्य करके मीडिया कौन सी अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है?
जहां तक विभिन्न न्यूज चैनलों के विषय वस्तु और स्तर की बात है, उनमे परस्पर कोई खास अंतर नहीं है। मीडिया हॉउस कह सकते है कि हम तो वही परोसते है, जिसे जनता पसंद करती है या जिसे सुनना व देखना चाहती है। उसे दिखाना हमारी मजबूरी है। हमारें अपने स्तर पर विषय व प्रसारण के गुणात्मक चयन करने की ज्यादा गुंजाइश नहीं है। जबकि जनता यह कह सकती है कि उसे जो दिखाया जा रहा है, वह उसे देखने के लिये मजबूर ही नहीं बल्कि अभिशप्त भी है, क्योंकि समस्त मीडिया का लब्बो लुबाब ऐसा ही है जैसे कि न ‘‘तेल देखे न तेल की धार‘‘। सवाल मुर्गी पहले आयी या अंड़ा यह नहीं है? बल्कि मीडिया जिस कारण वह स्वयं को देश के ‘‘लोकतंत्र का प्रहरी’’ मानता है, वह तभी अपनी इस महत्वपूर्ण स्थिति के औचित्य को साबित  कर सकता है, जब वह अपने इस महत्वपूर्ण दायित्व व जिम्मेदारियों को सही तरीके से निभाएं।
अंत में वास्तव मंे अब समय आ गया है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया स्वयं ‘स्वेच्छिक कोड़’ लागू करे अन्यथा लोकतंत्र के इस चैथे प्रहरी को मजबूत रखने के लिए उसे भी कानून की सीमा में नियंत्रित करना ही होगा। जैसा कि लोकतंत्र के अन्य तीन स्तम्भ कानून के नियंत्रण में है।