राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)

आखिर नाम में क्या रखा? शेक्सपियर! 
                                                                                                                    

-:द्वितीय भाग:-
    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नाम परिवर्तन के साथ ठोस कार्यों से एक मजबूत, बोल्ड, निर्णायक सिद्ध होते जा रहे हैं, वहीं पूर्व यूपीए शासन ने सिर्फ योजनाओं के नामों में परिवर्तन के साथ कुछ गुलामी प्रतीकों के नामों में परिवर्तन किया है। तुलनात्मक रूप से काम करने में यूपीए का शासन बहुत पिछड़ा रहा है। मजबूत ऐसी स्थिति में कम से कम नरेंद्र मोदी से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि नाम बदलने को लेकर जो तर्क देकर अर्थ और परिणाम की जो कल्पना की जा रही हैं, क्या वह भी उतनी ही मजबूत (स्ट्रांग) व वास्तविक होगी? क्योंकि इसी अवास्तविक धारणा को लेकर ही कर्तव्य पथ के मुद्दे पर विवाद का जन्म हुआ है। मैं यह मानता हूं कि वर्तमान व निकट भविष्य में नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प दूर-दूर तक दिखता नहीं है। ‘‘विकल्प हीनता’’ के मामले में देश इंदिरा गांधी के बाद से भी बुरी स्थिति से गुजर रहा है। ऐसी स्थिति में जनता का भी दायित्व हो जाता है कि वह नरेंद्र मोदी का नेतृत्व निष्कलंक और मजबूत तथा कम से कम त्रुटि वाला रहे इस ओर सहयोग करे। कोई भी अच्छे से अच्छा व्यक्ति पूर्ण नहीं होता है, उसमें कुछ न कुछ कमियां-गलतियां अवश्य होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ऐसी कोई गलती न हो, इसी जो उनको कमजोर करे, दृष्टिकोण को लेकर मेरी यह टिप्पणी है। 
    प्रधानमंत्री ने जिस विस्तार से ‘‘राजपथ को गुलामी का प्रतीक’’ बता कर नए भारत की कल्पना की, क्या यह मजाक नहीं होगा कि जब हम आजादी के 75 वर्ष पर अमृत महोत्सव मना कर खुशीयाली व्यक्त कर रहे हैं, वहां आज यह कहां जा रहा है कि गुलामी के प्रतीक राजपथ से हम मुक्त हुए। इसी गुलामी के प्रतीक कर्तव्य पथ पर हमने स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव की परेड धूमधाम से मनाई? गुलामी का प्रतीक राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ बदल देने से ही राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट तक का क्षेत्र में चलने रहने वाले लोग क्या कर्तव्य युक्त हो जाएंगे? इसलिए नाम परिवर्तन को इतना ज्यादा महिमामंडित करना गलत है। वैसे विपक्ष खासकर (शर्मदार?) कांग्रेस को इस मुद्दे पर मोदी की आलोचना करने का कोई नैतिक या तथ्यात्मक आधार नहीं है। वैसे कही-अनकही अर्थात राजनीति की आजकल यह प्रवृत्ति हो गई है कि जो कहा उसे शाब्दिक रूप से छोड़कर अनकहा भाव, अर्थ सहूलियत अनुसार निकाला जाए।
     स्वतंत्र भारत का नागरिक खासकर स्वतंत्रता के बाद पैदा हुआ नागरिक जो अभी तक यह सोच रहा था कि वह ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी से मुक्त हुआ स्वतंत्र देश का एक नागरिक है। परंतु उसे गाहे-बगाहे कभी भी यह याद दिला दिया जाता है कि जिस देश में वह रह रहा है, वहां अभी भी गुलामी के कई प्रतीक मौजूद हैं, ‘‘हींग लगे न फिटकरी’’ के समान आसान है? ये हटेंगे भी या नहीं, मालूम नहीं? गुलामी का यह एहसास बार-बार कराने की बजाय एक ही बार में समस्त गुलामी के प्रतीकों को हटाने का निर्णय क्यों नहीं ले लिया जाता है?
     वैसे हमारी संस्कृति में ‘‘नाम व नामकरण’’ का बड़ा महत्व है। आज भी हिंदू समाज नवजात शिशुओं का नाम के समय की ग्रह स्थिति को देखकर पंडितों से और ज्योतिषियों से राय लेकर रखता है। प्रधानमंत्री की कर्तव्य पथ नाम रखने के पीछे रही भावना का पालन कर यदि कर्तव्य निभाना है, तब इस देश में बहुत से नागरिकों को भी अपना नाम बदलना होगा। उदाहरणार्थ मध्य प्रदेश के विधायक जालम सिंह, पूर्व निगम अध्यक्ष शैतान सिंह (जिन्हें में व्यक्तिगत रूप से जानता हूं) आदि अनेक नाम ऐसे हैं, जो नाम के विपरीत कार्य करने के कारण जनता का विश्वास जीतकर संवैधानिक पदों पर बने हुए रहे हैं। कई विजय कुमार ‘‘विजय’’ की चैखट पर नहीं पहुंच पाए तो कुछ सुखनंदन दुखों के ‘‘अवसाद में ही गुम’’ हो गए। कई दरिद्र नारायण अरबपति हैं। अमीर चंद गरीब नहीं हो सकता? अच्छाराम में कोई बुराई नहीं हो सकती? तो गोरे व्यक्ति का नाम कालू राम कैसे रखा जा सकता है? सज्जन कुमार दुर्जन (84 के दंगों का आरोपी) कैसे हो सकते हैं? विश्वास कुमार पर अविश्वास कैसे किया जा सकता है? ऐसी अंतहीन सूची है। ‘‘होइ है सोइ जो राम रचि राखा’’।
    अतः यदि वास्तव में बदलने की कोई की जरूरत हो तो आदरणीय लोगों की वो मानसिकता जो गुलामी से लबरेज है, जो स्वार्थ (सिर्फ स्वहित), जातिवादी व्यवस्था, परनिन्दा, अहंकार को ही सर्वश्रेष्ठ समझती है। सिर्फ नारों, बातों या नाम बदलने से रोटी-कपडा-मकान-श्रेष्ठ शिक्षा-उचित व सुलभ स्वास्थ्य सेवा नहीं मिल सकती है। ’कर्तव्य पथ पर घूमने से, या नाम पट्टिका पढने-पढाने से नहीं, कर्तव्य के कडे परिश्रमी, सत्यनिष्ठा व्यवहार को आत्मसात कर पूर्णतः ईमानदारी पूर्वक अनुसरण से ही विकसित भारत की कल्पना साकार हो सकती है।
    प्रधानमंत्री के गुलामी के प्रतीक को इतिहास बनाने के कुछ घंटों बाद ही ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का निधन हो गया। प्रधानमंत्री मोदी ने दुख व्यक्त कर शोक संदेश भेजकर श्रद्धांजलि अर्पित की। तथापि देश का मीडिया ‘‘आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास’’ प्रधानमंत्री के कर्तव्य भाव के संदेश को इतनी जल्दी भूल कर देश की जनता को हमारी गुलामी की सबसे बड़ी प्रतीक को विस्मृत करने की बजाए याद ताजा कर महिमामंडित कर प्रशस्त करने में अपना विस्तृत योगदान दिया। बजाय इसके कि वे प्रधानमंत्री के समान एक लाइन में समाचार देकर श्रद्धांजलि देकर अपने कर्तव्य बोध का एहसास करा सकते थे? तथापि मीडिया महिमामंडित करने के उक्त कार्य को इस आधार पर सही ठहरा सकता है कि एलिजाबेथ द्वितीय के निधन पर उनके सम्मान में एक दिन का राष्ट्रीय शोक रखने का निर्णय भारत शासन ने लिया है। इसीलिए यह भी कहा गया है कि (शेक्सपियर का कथन) ‘‘नाम में क्या रखा है’’।
    मध्यप्रदेश शासन ने आम लोगों की खुशहाली के लिए वर्ष 2016 में देश में पहला हैप्पीनेस विभाग (राज्य आनंद संस्थान) ही बना दिया था। आज इस विभाग का रिपोर्ट कार्ड क्या है? क्या प्रदेश की जनता ‘खुश’ होकर ‘सुखी’ हो गई? बल्कि यह आनंद विभाग ही स्वयं अपने अस्तित्व का ज्यादा आंनद नहीं ले पाया। वर्ष 2018 में इसे धर्मस्व विभाग के साथ मिलाकर ‘‘आध्यात्म विभाग’’ बना दिया गया। वर्ष 2020 में देश में मध्यप्रदेश को हैप्पीनेस इंडेक्स में 25वीं रैंकिंग मिली है। नाम व काम करने के अंतर की यह वास्तविकता है।