वैदिक साहित्य से हम जानते हैं कि परम-पुरुष नारायण प्रत्येक जीव के बाहर तथा भीतर निवास करने वाले है। वे भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों जगतों में विद्यमान हैं। यद्यपि वे बहुत दूर हैं, फिर भी हमारे निकट हैं-आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतरू हम भौतिक इन्द्रियों से न तो उन्हें देख पाते हैं, न समझ पाते हैं अतएव वैदिक भाषा में कहा गया है कि उन्हें समझने में हमारा भौतिक मन तथा इन्द्रियां असमर्थ हैं।  
किन्तु जिसने, भक्ति में कृष्णभावनामृत का अभ्यास करते हुए, अपने मन-इन्द्रियों को शुद्ध कर लिया है, वह उन्हें निरन्तर देख सकता है। ब्रघ्संहिता के अनुसार परमेर के लिए जिस भक्त में प्रेम उपज चुका है, वह निरन्तर उनके दर्शन कर सकता है। और भगवद्गीता में कहा गया है कि उन्हें केवल भक्ति द्वारा देखा-समझा जा सकता है। भगवान सबके हृदय में परमात्मा रूप में स्थित हैं। तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि वे बंटे हुए हैं? नहीं। वास्तव में वे एक हैं। 
जैसे सूर्य मध्याह्न समय अपने स्थान पर रहता है, लेकिन यदि कोई पांच हजार मील की दूरी पर घूमे और पूछे कि सूर्य कहां है, तो सभी कहेंगे कि वह उसके सिर पर चमक रहा है। इस उदाहरण का अर्थ है कि यद्यपि भगवान अविभाजित हैं, लेकिन इस प्रकार स्थित हैं मानो विभाजित होंवैदिक साहित्य में यह भी कहा गया है कि अपनी सर्वशक्तिमत्ता द्वारा एक विष्णु सर्वत्र विद्यमान हैं। 
जिस तरह एक सूर्य की प्रतीति अनेक स्थानों में होती है। यद्यपि परमेर प्रत्येक जीव के पालनकर्ता हैं, किन्तु प्रलय के समय सबका भक्षण भी कर जाते हैं। सृष्टि रची जाती है, तो वे सबको मूल स्थिति से विकसित करते हैं और प्रलय के समय सबको निगल जाते हैं। वैदिक शास्त्र पुष्टि करते हैं कि वे समस्त जीवों के मूल तथा आश्रय-स्थल हैं। सृष्टि के बाद सारी वस्तुएं उनकी सर्वशक्तिमत्ता पर टिकी  रहती हैं और प्रलय बाद सारी वस्तुएं पुन: उन्हीं में विश्राम पाने के लिए लौट आती हैं।