राजीव खण्डेलवाल (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार)  

‘तेल का खेल’’, ‘‘न खेला होवे कब’’?
 
    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना के विषय पर बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की मींटिग में समस्त राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सहकारी संघवाद की याद दिलाते हुये कहा कि वे अपने-अपने प्रदेशों में वेट को घटाकर अपने राज्य के नागरिकों को तेल की मंहगाई से राहत प्रदान करें। प्रधानमंत्री ने तेल कीमतों में ‘‘मंहगाई की आग’’ का कारण‘‘रूस-यूक्रेन युद्ध’’ को बतलाया। पिछले 8 वर्षो में पेट्रोल 70-75 रू. से बढ़कर सैकड़ा (100) पार कर गया, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का मूल्य 130-135 डॉलर प्रति बैरल से घटकर 40-60 डॉलर तक आ गया था। रूस व यूक्रेन में युद्ध प्रारंभ होने के पूर्व 24 फरवरी तक क्रुड़ आईल की कीमत अंर्तराष्ट्रीय बाजार में 100 डॉलर से भी कम लगभग 95 डॉलर रहने के बावजूद भी हमारे देश में औसत 100 रू. से ऊपर पेट्रोल के दाम पहुंच गये थे। परन्तु प्रधानमंत्री की इस बेतहाशा तूफानी बढ़ोतरी पर कोई नजर नहीं गई। भले ही इसका कोई कारण नहीं बतलाया हो परन्तु इस बढ़ोतरी का कारण ‘‘न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः‘‘, अर्थात धन से कभी तृप्त न होने वाली लालसा के अलावा और क्या हो सकता है? यद्यपि यह कारक देश के खजाने में वृद्धि करने में बहुत सहायक रहा।
    केन्द्रीय सरकार द्वारा नवम्बर 2021 में एक्साइज ड्यूटी घटाकर राज्य सरकारों से वेट कम करने की अपील की गई थी। तब समस्त बीजेपी शासित राज्यों ने अपने राज्यों में वेट की दर घटा दी थी। परन्तु विपक्षी राज्योें ने नहीं घटाई। सिवाएं पंजाब को छोड़कर जहां चुनाव होने वाले थे, वहां पर वेट अवश्य घटाया गया। उक्त बैठक में ही विपक्षी राज्यों पर तंज कसते हुये प्रधानमंत्री ने एक महत्वपूर्ण आक्षेप यह लगाया कि वेट कम न करना एक तरह से राज्यों के लोगों के साथ अन्याय है। यानी ‘‘जबरा मारे और रोने भी न दे‘‘
    आपको याद होगा, देश के उपभोक्ताओं के लिये पेट्रोलियम उत्पादों के मूल्य निर्धारण की नीति को यूपीए सरकार ने सरकारी ‘‘नियंत्रण से मुक्त‘‘ कर कंपनियों के पाले में ड़ाल दिया था, यह कहकर कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल (क्रूड़ ऑयल) के बढ़ते घटते मूल्य के आधार पर पेट्रोलियम कंपनीयां देशी बाजार में पेट्रोल-डीजल के दाम को तदनुसार निर्धारित कर सकेगीं और इस तरीके से तकनीकि रूप से पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने के लिए सरकार ने स्वयं को जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया था। इसे डायनमिक प्राइसिंग कहते है। यह ‘‘आधिकारिक सैंद्धातिक’’ स्थिति है। परन्तु वास्तविक रूप से धरातल पर उतरी हुई नहीं है। बल्कि यह जैसी ‘‘बहे बहार पीठ तब वैसी दीजे’’ की नीति अपना लेती है। यह इस बात से सिद्ध होती है कि दिन-प्रतिदिन, हफ्ता-पख़वाड़ा डीजल-पेट्रोल के मूल्यों में होने वाली वृद्धि ‘‘चुनाव के समय’’ बिना किसी रूकावट के पूरी चुनावी अवधि में बिना नागा ‘‘अवकाश’’ ले लेती है। यह छुट्ठी सरकार ही तो देगी? अंर्तराष्ट्रीय बाजार नहीं? ‘‘आदर्श चुनाव संहिता लागू‘‘ होते ही मूल्य वृद्धि भी ‘‘आदर्श‘‘ दिखाने के लिए ‘‘रुक‘‘ जाती है?
    देश की राजनीति में पेट्रोलियम उत्पाद की डायनमिक प्राइसिंग नीति को लेकर ही नई वरन्  उसके पूर्व से ही पेट्रोल-डीजल, घरेलु गैस के मूल्यों को लेकर सभी दलों के बीच यह एक प्रमुख राजनीति मुद्दा रहा है। पक्ष हो या विपक्ष दोनों ने सत्ता के समय की अपनी नीति व विपक्ष के रूप में अपनी आलोचनात्मक नीति को देश हित में सही ठहराया है। इसे ही कहते है ‘‘कालस्य कुटिला गति’’ मतलब पक्ष से विपक्ष या ‘विपक्ष’ से ‘पक्ष’ होने पर राजनैतिक दलों द्वारा तेल की अपनी मूलभूत नीति में भी बहुत आसानी से सुविधाजनक परिवर्तन कर लिया जाता है। समस्त दलों को यह आईना जनता द्वारा दिखाना आवश्यक है, ताकि वे अपने गिरेबानों में झांक सके। दुर्भाग्यवश यह संभव नहीं हो पा रहा है। इसलिए उक्त शीर्षक दिया गया है।
    प्रधानमंत्री की राज्यों को वेट कम करने की सलाह की इस दोहरी नीति पर नागरिकों को ध्यान देने की अति आवश्यकता है। प्रधानमंत्री जब राज्यों को वेट घटाने की बात कहते है, तो वे यह कहना नहीं भूलते हैं, बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि इन छः महीनों में कर्नाटक को 5 हजार करोड़ व गुजरात (दोनो भाजपा शासित राज्य) को 3-4 हजार करोड़ का राजस्व का घाटा वेट घटाने के कारण उठाना पड़ा। तथापि उक्त राज्यों के पड़ोसी राज्यांे (विपक्षी शासित) ने 5 हजार करोड़ का अतिरिक्त राजस्व वेट न घटाने के कारण कमा लिया। प्रधानमंत्री ने यह भी माना कि टैक्स में कटौती करने से राजस्व की हानि होती है, लेकिन आम जनता को राहत मिल जाती है। बड़ा प्रश्न यह है कि प्रधानमंत्री इस सिद्धांत को ‘‘चैरिटी बिगन्स एट होम’’ की तर्ज पर एक्साइज ड्यूटी के संबंध में क्यों नहीं अच्छी तरह से लागू करते है? पिछले 8 सालों में पेट्रोल-डीजल में क्रमशः 45%,75% तक की एक्साइज ड्यूटी में वृद्धि(लगभग 30 रू. प्रति लिटर) होकर केन्द्र सरकार के राजस्व में चार गुना इजाफा हुआ। नवम्बर 2021 में मात्र 5 रू. व 10 रू. प्रति लिटर पेट्रोल-डीजल में कमी की गई थी। तथापि यह भी एक तथ्य है कि इसका 42 प्रतिशत राज्यों के पास चला जाता है। अब शायद 100 रू. के मूल्य को जिसमें 100 प्रतिशत समस्त करो के कारारोपण का योग शामिल है (50मूल्य़़50 कर) आधार मूल्य मानकर तेल के मूल्यों में वृद्धि की तुलनात्मक निष्कर्ष निकाले जाकर जनता को गुमराह किया जा रहा हैं। एक्साइज ड्यूटी बढ़ातेे समय प्रधानमंत्री को सहकारी संघवाद की याद व जनता को राहत देने का ख्याल शायद नहीं आया? यही ‘‘एक आंख से हसने और एक आंख से रोने वाली’’ दोहरी नीति है। ऐसी स्थिति में एक्साइज ड्यूटी में अल्प कमी कर सरकार राहत देने का दावा कैसे कर सकती है? अतः एक्साइज ड्यूटी बढ़ाते समय उसे अन्याय नहीं माना है। जब बढ़ोत्री ‘अन्याय’ ही नहीं तब ‘न्याय’(छूट) की आवश्यकता कहां है? 
    इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है, जब भी पेट्रोल उत्पादकों पर खासकर डीजल पर करारोपण चाहे एक्साइज ड्यूटी हो अथवा वेट, उसका केसकेडि़ंग प्रभाव होता है। अर्थात 2ग2त्र 4 न होकर 5 हो जाता हैं। क्योंकि अधिकतम परिवहन साधनों में फ्यूल डीजल का उपभोग (कंजूमशन) होने के कारण भाडे़ में वृद्धि होने से समस्त जीवनपयोगी वस्तुओं के मूल्य में भी वृद्धि हो जाती है और इस प्रकार 10 रू. मूल्य की वृद्धि अंत में जाकर 12-13 रू. की वृद्धि में परिवर्तित हो जाती है। यह 2 से 3 रू. की अतिरिक्त वृद्धि जो ट्रान्सपोटेशन के कारण हो जाती है, वह देश के विकास में खर्च नहीं होती जैसा कि केन्द्रीय सरकार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाते समय जनता से अपील करती है या दावा करती है कि बढ़ा हुआ टैक्स देश के विकास में खर्च होगा। यह बढी हुई वृद्धि ट्रान्सपोर्ट के लागत में ही लग जाती है।
    यूपीए सरकार के प्रथम कार्यकाल (2004 से 2009) में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 45 डॉलर से बढ़कर 160 डॉलर प्रति बैरल तक पहंुच गई थी। जबकि पेट्रोल का दाम तब भी 45-50 रू. प्रति लिटर ही था। परन्तु कम्यूनिष्टिों के दबाव के आगे सरकार ने तेल की कीमत लगभग नहीं बढ़ाई। आर्थिक मंदी के कारण जनवरी 2009 में कच्चे तेल की कीमत घटकर 50 डॉलर हो गयी। 2014 में एक पत्रकार वार्ता में मनमोहन सिंह का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि ‘‘इतिहास मेरे प्रति दयालु’’होगा। एनडीए सरकार के समय कच्चे तेल के मूल्य में भारी गिरावट के बावजूद भी तेल के महगे होने के कारण भारी अंतर से हुये मुनाफे को वह कम कर जनता को राहत क्यों नहीं दे पा रही है? बल्कि जनता से बढ़ी कीमतों का भार देशहित में बुनियादी ढांचों के विकास के लिए सहने को कह रहे है। लोकोक्ति (मुहावरा)‘‘तेल देखों; तेल की धार नहीं’’ के अर्थ को ही तेल की कीमत ने बदल दिया है। वास्तव में तो जनता का ही तेल निकल रहा है। कयोंकि तेल मतलब सिर्फ पेट्रोल-डीजल ही नहीं,बल्कि खाद्य तेलों के मूल्यों में भी अंगार लगी हुयी है। 56 इंच सीना लिये हुये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब सालों से चले आ रहे कठिन, बेहद विवादस्पद विषयों तीन तलाक व अनुच्छेद 370 को समाप्त कर सुलझा सकते है और किया है। इस प्रकार देशहित में साहसपूर्ण निर्णय के लिए स्वयं को सिद्ध कर चुके है। तब पेट्रोलियम उत्पादकों को जीएसटी में शामिल क्यों नहीं कर रहे हैं? पहली बार जीएसटी की जब अवधारणा आई थी, तब ‘‘एक राष्ट्र-एक दर’’ के सिद्धांत के आधार पर उसमें समस्त वस्तुओं पेट्रोल उत्पाद सहित (माल) को शामिल किया जाना था। जिस प्रकार यूपीए सरकार के समय भाजपा शासित सरकारों के मुख्यमंत्रियों ने जीएसटी का अप्रत्यक्षतः विरोध किया था। उसी प्रकार आज पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने के लिए कुछ विपक्षी सरकारें भी अपनी अनिच्छा व्यक्त कर चुकी है। तथापि विगत दिवस ही झारखड़ के वित्तमंत्री ने पेट्रोल-डीजल कोे जीएसटी में लाने का स्वागत किया है। 
    आप जानते है, कच्चे तेल का देश में उत्पादन यूपीए सरकार के समय 2013-14 में 23% लगभग तक होता था। पिछले तीन वर्षो से कच्चे तेल के घरेलु उत्पाद में लगातार गिरावट आयी है। अभी एनडीए सरकार के समय घरेलु उत्पाद घटकर मात्र 14% के आस-पास रह गया। जबकि प्रधानमंत्री ने 10% आयात पर निर्भरता कम करने का लक्ष्य रखा था। आज भी भारत विश्व का सबसे बड़ा कच्चे तेल का आयातक देश है। जिस कारण से हमारे देश की मेहनत से कमाई गई विदेशी मूद्रा भंडार की भारी मात्रा खर्च होती है। यह हमारे बजट, जीडीपी मतलब देश के विभिन्न आर्थिक पहलुओं को किसी न किसी तरह से नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। वैसे आपको यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि भारत रिफाइड़ पेट्रोलियम उत्पाद के निर्यात में दुनिया के शीर्ष 10 देशों में शामिल है। क्या अब भी सरकार को तेल के आयात कम करने के लिए आवश्यक नीति नहीं बनानी चाहिए? 
    प्रथम तो देश में नये तेल कुओं की खोजकर नई तकनीक का उपयोग कर कच्चे तेल के धरेलु उत्पादन को बढ़ाना आवश्यक है, ताकि आयात पर निर्भरता कुछ कम हो सके। पिछले 7 सात सालों से अंर्तराष्ट्रीय बाजार में कीमत कम होने के कारण तेल पूल में संग्रहित अतिरिक्त राजस्व की कुछ राशी तेल के शोध, रिसर्च विज्ञान पर खर्च की जानी चाहिए। दूसरी बात हमें कहीं न कहीं देश के भीतर कन्यजूम्शन की मांग को नियंत्रित करना होगा। जिस प्रकार हमने जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक कुछ प्रतिबधात्मक कदम उठाये है। उसी प्रकार तेल के उपभोग को नियंत्रित करने के लिए राशनिंग एक तरीका हो सकता है। दूसरा तरीका सार्वजनिक व वाणिज्यिक परिवहन को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति की तेल के उपभोग की एक अधिकतम सीमा तय कर उससे उपर जाने वाले तेल के उपभोग पर अतिरिक्त कर लगाकर उपभोग को निरूताहित किया जा सकता है। जैसे बिजली की दरों की बात हो। सरकार अधिक उपभोग पर अतिरिक्त व ज्याद कर लगाती है। यह काम आसान नहीं होगा। परन्तु जब तब सोचेगें नहीं तो उसका हल कैसे निकलेगा? आयात पर खर्च होने वाली महत्वपूर्ण मंहगी विदेशी मूद्रा के कारण इस मुद्दे पर भी गहनता से विचार करने की आवश्यकता है। 
    अंत में एक बात और भाजपा प्रवक्ता यह कहते-कहते नहीं थकते है कि, देशहित में बढ़ा हुआ कर देश के विकास में खर्च होगा। देश की आय जब किसी भी भी स्त्रोत या वस्तुएं के करारोपण से होती है, उसका उपयोग अंततः देश के विकास में ही तो खर्च होता है। तब फिर ‘तेल’ को लेकर ही जनता पर ऐसा नैतिक दबाव क्यों? पेट्रोलियम उत्पाद पर सेस के मामला को ले लीजिये। 2021 की कैग (सीएजी) की रिपोर्ट में सेस की राशी जिस एक्ट के अंतर्गत वसूली गयी है, उसका उपयोग उस तरह नहीं हुआ है। मात्र 21% राशी ही अपेक्षित उद्देश्य के लिए की गई। अतः सरकार का जनता से उक्त आव्हान भी गलत सिद्ध होता है। चूँकि बात हमेशा देश के विकास की जाती है। परन्तु देश को निर्मित करने व अंशदान देने वाले नागरिकों के विकास की बात पर कोई दल ध्यान नहीं दे रहा है। तो क्या देश और नागरिक का विकास अलग-अलग है? नागरिक है, तभी तो देश हैः ‘‘सर सलामत तो पगड़ी हजार‘‘!